गर्मियों में लीची का स्वाद ही नहीं इसका रस हमारे शरीर में पानी की मात्रा को कम नहीं होने देता है। इसमें कैल्शियम के साथ प्रोटीन, खनिज पदार्थ, फास्फोरस, आइरन और विटामिन सी भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। लीची के पौधे लगाने में एक बार तो मेहनत करनी पड़ती है लेकिन बाद में इसका फल खाने को मिलता रहता है और प्रतिवर्ष बिना लागत के भरपूर कमाई भी होती रहती है। हमारे देश में लीची की बागवानी सबसे अधिक बिहार में की जाती है। इसके अतिरिक्त देहरादून की घाटी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, झारखण्ड के छोटानागपुर क्षेत्र तथा छत्तीसगढ के अंबिकापुर क्षेत्र में की जाती है। फलों की गुणवत्ता के आधार पर अभी तक उत्तरी बिहार की लीची का स्थान प्रमुख है। लीची के लिए भूमि की तैयारी परम्परागत बाग लगाने के जैसी ही होती है। रेखांकन में अंतर रहता है सघन बागवानी में पौधे से पौधे एवं कतार से कतार की दूरी परम्परागत बागवानी की अपेक्षा कम होती है। इसे 5-5 मीटर पर लगाया जाता है। यह कार्य भी परम्परागत बागवानी की तरह किया जाता है। पौध लगाने का उत्तम समय जून और जुलाई का महीना है। पौधे से पौधे और लाइन से लाइन की दूरी भूमि की उपजाऊ शक्ति के अनुसार 10 से 12 मीटर रखनी चाहिए।
मई से जून के प्रथम सप्ताह तक 10 से 12 मीटर की दूरी पर एक मीटर व्यास और एक मीटर गहराई के गड्ढ़े खोदकर 8 से 15 दिनों तक खुले रहने चाहिए। तत्पश्चात मिट्टी व अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद बराबर- बराबर मात्रा में लेकर गड्ढ़े मे डाले जिससे कि मिट्टी बैठकर ठोस हो जाये तत्पश्चात जुलाई में रोपण किया जा सकता है। यदि खेत की मिट्टी चिकनी हो तो खेत की मिट्टी खाद व बालू रेत बराबर-बराबर मात्रा में मिला देना चाहिए। लीची के पौधों में मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। इसलिए अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए रोपाई करते समय तथा रोपाई करने के बाद कुछ सावधानियां रखना आवश्यक है। खेत में केवल वही पौधे लगाये जायंे जो पेड़ से गुटी काटने के बाद कम से कम 6 से 8 माह तक गमलो में अथवा भूमि में लगाये गए हो, क्योंकि लीची की गुटी पेड़ से अलग होने के पश्चात् बहुत कम समय जीवित रह पाती है और कभी-कभी तो 60 प्रतिशत तक मर जाती है। इस प्रकार पुराने पौधे भी खेत में लगाने के बाद शत प्रतिशत जीवित नहीं रह पाते है। जहाँ तक संभव हो लीची के दो वर्ष के पौधे खेत में लगाये जाना चाहिए, इससे कम पौधे मरेंगे। रोपाई के समय पौधे को गड्ढ़े में रखकर उसके चारों ओर खाली जगह में बारीक मिट्टी डालकर इतना पानी डाल देना चाहिए कि गड्ढ़ा पानी से भर जाये। इससे मिट्टी नीचे बैठ जाएगी और खाली हुए गड्ढ़े में पुन बारीक मिट्टी डालकर गड्ढ़े को जमीन की सतह तक भर देना चाहिए। पेड़ के चारों और मिट्टी डालकर मिट्टी को हाथ से नहीं दबाना चाहिए। क्योंकि इससे प्रायः पौधे की मिट्टी का खोल पिंडी टूट जाता है, जिससे पौधे कि जड़ टूट जाती है, और पौधा मर जाता है। इसलिए मिट्टी को पानी द्वारा उपरोक्त विधि से सेट कर भर देना चाहिए। लीची का नया बाग लगने हेतु गड्ढ़ों को भरते समय जो मिट्टी व खाद आदि का मिश्रण बनाया जाता है उसमे लीची के बाग की मिट्टी अवश्य मिला देना चाहिए क्योंकि लीची कि जड़ों में एक प्रकार का कवक जिसे माइकोराइजा कहते है पाई जाती है। इस कवक द्वारा पौधे अच्छी प्रकार फलते फूलते है और नए पौधे में भी कवक अथवा लीची के बाग की मिट्टी मिलाने से मृत्युदर कम हो जाती है। पौधों के थालों में नमी बनी रहनी चाहिए। वर्षा न होने की स्थिति में नए पौधों के थाले सूखने नहीं चाहिए। दूसरा अधिक वर्षा की स्थिति में थालो में पानी रुकना नहीं चाहिए। लीची के पौधों को सर्दियों में पाले से बचाना आवश्यक है जिसके लिए 10 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए। गर्मियों में लू से बचाने के लिए प्रति सप्ताह सिंचाई करते रहना चाहिए।
प्रारंभिक अवस्था में पौधों को पाले और लू से बचाने के लिए पौधों को पूर्व की ओर से खुला छोड़कर शेष तीनों दिशाओं में पुवाल, गन्ने की पत्तियों और बॉस की खपच्चियों अथवा अरहर आदि की डंडियों की मदद से ढ़क देना चाहिए।सूर्य की तेज धूप से बचाने के लिए तनों को चूने के गाढ़े घोल से पोत देना चाहिए। उत्तर-पश्चिम व दक्षिण दिशा मे शीशम का सघन वृक्षा रोपण वायु अवरोधक के रूप में किया जाना चाहिए। फलत वाले पेड़ों में सर्दियों में 15 दिन के अंतर पर और गर्मियों में फल बनने के पश्चात् लगातार आर्दता बनाये रखने के लिए जल्दी जल्दी सिंचाई करते रहना चाहिए। इस समय पानी की कमी नहीं होना चाहिए। अन्यथा झड़ने और फटने का डर रहता है। प्रारम्भ के 2-3 वर्षों तक लीची के पौधों को 30 किग्रा सड़ी हुई गोबर की खाद, 2 किग्रा करंज की खल्ली, 200 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सिगल सुपरफास्फेट तथा 150 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष की दर से देना चाहिए। तत्पश्चात पौधों की बढ़वार के साथ-साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए।
पूरी खाद एवं आधे उर्वरकों को जून तथा शेष उर्वरकों को सितम्बर में वृक्ष के छत्राक के नीचे गोलाई में देकर अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। खाद देने के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। जिन बगीचों में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई दे उनमें 150-200 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति वृक्ष की दर से सितम्बर माह में देना चाहिए। फल विकसित होने के समय भूमि में नमी की कमी और तेज गर्म हवाओं से फल अधिक फटते हैं। यह समस्या फल विकास की द्वितीय अवस्था में आती है। इससे बचने के लिए भूमि में नमी बनाए रखने के लिए अप्रैल के प्रथम सप्ताह से फलों के पकने एवं उनकी तुड़ाई तक बाग की हल्की सिंचाई एवं पौधों पर जल छिड़काव करना चाहिए। यह भी देखा गया है कि अप्रैल में पौधों पर 10 पी.पी.एम. एन.ए.ए. एवं 0.4 प्रतिशत बोरेक्स के छिड़काव से भी फलों के फटने की समस्या कम होती है। यह कीट पत्तियों के निचले भाग पर पाया जाता है, जो पत्तियो का रस चूसता है। तथा पत्तिया भूरे रंग की व मखमली हो जाती है और इसकी पत्तियाँ मुड़ जाती है। इनका परिसंकुचन इतना अधिक बढ़ जाता है कि यह पूर्ण रूप से मुड़कर गोल हो जाती है। इस प्रकार लीची का बगीचा तैयार हो जाएगा और मीठे-मीठे रसीले फल देगा। मौसम की शुरुआत में लीची की बाजार में अच्छी कीमत भी मिलती है। (हिफी)