पुण्य तिथि पर विशेष।
मीनू मसानी (मिनोचेर रुस्तम मसानी) ) स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी, राजनेता, पत्रकार, लेखक एवं सांसद थे। वे दूसरे, तीसरे तथा चौथे लोकसभा चुनावों में राजकोट से सांसद चुने गये। वे उदारवादी आर्थिक नीति के पक्षधर थे। उन्होने 1950 में लोकतांत्रिक शोध संगठन की स्थापना की। इसी संगठन की ओर से 1952 में उदारवादी विचारधारा के लिए मासिक पत्रिका ‘फ्रीडम फस्र्ट’ का प्रकाशन किया गया। मीनू मसानी ने इस पत्रिका को नीतिगत निर्णयों एवं प्रासंगिक राष्ट्रीय, वैश्विक विषयों पर गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया।
20 नवम्बर 1905 को बंबई (अब मुंबई) में जन्मे मीनू मसानी ने एल्फिन्स्टन कॉलेज से अपनी स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद मीनू मसानी ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और लिंकन इन्न से कानून की पढ़ाई पूरी की। इंग्लैंड में मीनू मसानी भारतीय विद्यार्थियों के समूह ‘इंडियन मजलिस’ के अध्यक्ष चुने गये और ब्रिटिश लेबर दल के सदस्य भी रहे।
1929 में भारत वापस आने के बाद बंबई उच्च न्यायालय में वकालत की शुरुआत की, लेकिन कुछ ही दिनों में अपनी वकालत छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये। 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें एक साल के लिए कारावास का दंड दिया गया। मीनू मसानी ने जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, युसूफ मेहर अली एवं अन्य नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की, लेकिन पार्टी में कम्युनिस्ट सदस्यों के बढ़ते प्रभाव के चलते 1939 में लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया और मसानी ने राजनीति छोड़कर टाटा कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरु आत होने पर मीनू मसानी वापस सक्रिय राजनीति में लौट आये और आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने पर वर्ष 1943 में मीनू मसानी बंबई के महापौर बनाने वाले सबसे युवा व्यक्ति बने। मीनू मसानी बाद में संविधान सभा के लिए चुने गये और नये संविधान निर्माण में नागरिकों के मूल अधिकारों से संबंधित समिति के सदस्य बने। संविधान सभा में मीनू मसानी ने समान नागरिक संहिता लागू किये जाने का प्रस्ताव दिया था लेकिन उसे नामंजूर कर दिया गया।
स्वाधीन भारत में पहले राजदूत के रूप में मीनू मसानी ब्राजील के राजदूत बनाये गये। 1957 के लोकसभा के आम चुनावों में मीनू मसानी, रांची से निर्दलीय संसद सदस्य निर्वाचित हुए थे और 1959 में उन्होंने सी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के साथ मिलकर स्वतंत्र पार्टी का गठन किया। 1967 के आम चुनावों में स्वतंत्र पार्टी संसद में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी और लोकसभा में इनके 44 सदस्य थे, लेकिन वर्ष 1971 के आम चुनावों में स्वतंत्र पार्टी के खराब प्रदर्शन और लोकसभा का चुनाव हारने के बाद मीनू मसानी सक्रिय राजनीति से हट गये। राजनीतिज्ञ के रूप में मीनू मसानी साम्यवादी व्यवस्था के पूर्णत: खिलाफ थे और भारत की आर्थिक और विदेशी नीतियों में सोवियत रूस के प्रति झुकाव के घोर विरोधी भी थे। कांग्रेस के स्थान पर कोई दूसरा विकल्प तलाशने में मीनू मसानी समाजवादी विचारकों को एक समय स्वतंत्र पार्टी में प्रिवी पर्स की समाप्ति का विरोध, बैंक राष्ट्रीयकरण का विरोध गैर समाजवादी निर्णयों को शिरोधार्य करना पड़ा।
स्वतंत्र भारत में स्वतंत्र विचारों के अध्ययन और आम लोगों को स्वतंत्रता की सी भावना को लोकप्रिय बनाने के लिए, मीनू मसानी ने 1950 में ‘लोकतांत्रिक शोध संगठन’ की स्थापना की। 1952 में इस संगठन ने उदारवादी विचारधारा के मासिक पत्रिका freedom First का प्रकाशन शुरू किया। सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद मीनू मसानी ने ‘फ्रीडम फस्ट’ का संपादन का काम अपने हाथों में ले लिया और इस पत्रिका को नीतिगत निर्णयों एवं प्रासंगिक राष्ट्रीय, वैश्विक विषयों पर गूढ़ विश्लेषण प्रस्तुत करने का माध्यम बना दिया। 1975 में प्रेस सेंसरशिप के विरोध में मीनू मसानी को अपनी पत्रिका का प्रकाशन कुछ महीनों के लिए बंद कर देना पड़ा क्योंकि मीनू मसानी ने अपनी समाचार पत्रिका को प्रकाशन पूर्व सेंसर अधिकारियों को देने से मना कर दिया। राजनीतिज्ञ के रूप में मीनू मसानी को कुछ समझौते करने की बाध्यता रही होगी, लेकिन पत्रकार-संपादक के रूप में मीनू मसानी ने तत्कालीन सरकार की हर चुनौती का पूरी निडरता से सामना किया।
जून, 1975 में सेंसरशिप के आदेश का पालन करते हुए मीनू मसानी ने पूरे लेख को प्रकाशन प्री सेंसरशिप के लिए भेजा, सेंसर अधिकारियों ने इस पत्रिका के अधिकतर लेख व संपादकीय के प्रकाशन की अनुमति नहीं दी। इस समय तक पत्रिका के नये अंक के आने में केवल तीन दिन बचे थे तो मीनू मसानी ने सेंसर द्वारा रोके गये लेख-संपादकीय की जगह खाली जगह छोड़ने और उस स्थान पर सेंसर्ड छापने का विचार किया, लेकिन इसी बीच टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार ने एक खबर छापी कि समाचारपत्र-पत्रिका में सेंसर हुए स्थान को खाली छोड़ना भी जुर्म माना जायेगा तो मीनू मसानी ने अपनी पत्रिका के प्रकाशन का इरादा छोड़कर, सेंसरशिप के खिलाफ बंबई (अब मुंबई उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
बंबई उच्च न्यायालय ने ‘फ्रीडम फस्र्ट’ पर सेंसर की बंदिशों को अवैध ठहराया और छह महीने के बंदी के बाद जनवरी, 1976 में इस पत्रिका का प्रकाशन हुआ तो इसमें अदालती फैसले, लेख के अलावा इसमें मीनू मसानी की लिखित एक पुस्तक का विज्ञापन भी छापा गया- ‘इस जेपी द आंसर?’ । आपातकाल के दौरान भी ‘फ्रीडम फस्र्ट’ में सरकार के फैसलों का खुल कर विरोध होता था और इसमें मीसा बंदियों, सरकारी दमन और प्रेस सेंसरशिप विरोधी सामग्री का प्रकाशन भी होता था। मार्च 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने मीनू मसानी को अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया लेकिन अपना पद संभालने के कुछ समय बाद ही इस आयोग की पूर्ण स्वायत्तता और वास्तविक अधिकारों के लेकर सरकार से असहमति के बाद मीनू मसानी ने इस पद से त्यागपत्र दे दिया। 27 मई 1998 को मीनू मसानी का निधन हो गया।एजेंसी।