लियन स्काट (Leon Scott) ने 1857 में ऐसे यंत्र, फोनाटोग्राफ, का आविष्कार किया जिसके द्वारा ध्वनि का अभिलेखन किया जा सकता था। फोनाटोग्राफ में झिल्ली थी, जिससे एक बहुत नाजुक lever था। झिल्ली parabolic funnel के पतले सिरे पर तनी होती थी। उत्तोलक की नोक ऐसे बेलन पर लाई जाती थी जिसपर कागज लिपटा होता था और कागज पर कालिख पुती होती थी। बेलन बहुत सूक्ष्म पेंच से लगा होता था, जो बेलन के घूमने पर क्षैतिज दिशा में चलता था। जब झिल्ली पर ध्वनि पड़ती थी और बेलन घुमाया जाता था तब चिन्हक कागज के काले पृष्ठ पर सर्पिल रेखा बन जाती थी। इस प्रकार ध्वनि का अभिलेखन कर लिया जाता था।
अभिलिखित ध्वनि का प्रथम वास्तविक पुनरुत्पादन टी.ए. एडिसन द्वारा 21 नवम्बर 1876 में संभव हो सका। ऐडिसन ने अपने यंत्र को फोनोग्राफ नाम दिया। इसमें पीतल का बेलन था, जिस पर सर्पिल रेखा बनाई जाती थी। बेलन से क्षैतिज पेंच लगा होता था। लगभग 2 इंच व्यासवाले पीतल के छोटे से बेलन के मुँह पर पार्चमेंट की झिल्ली तानी जाती थी। झिल्ली के केंद्र से इस्पात की सूई संलग्न होती थी जिसकी नोक छेनीदार होती थी। सूई की नोक के पास इस्पात की कठोर कमानी लगाई जाती थी। कमानी का दूसरा सिरा पीतल के बेलन से जुड़ा होता था। अभिलेखी बड़े बेलन पर इस प्रकार रखा जाता था कि बेलन के घूमने पर सूई की पतली धार सर्पिल ग्रूव के बीच में चले। बेलन पर टिन की पन्नी की परत होती थी । जब छोटे बेलन में ध्वनि का प्रवेश कराकर झिल्ली को कंपायमान किया जाता था तब दोलनों के दबाबों की विभिन्नता के कारण खाँच के तल में पन्नी पर चिन्हक द्वारा विभिन्न गहराइयों की खुदाई हो जाती थी। यह खुदाई ध्वनि तरंगों के अनुरूप होती थी।
ध्वनि के पुनरुत्पादन के लिये खाँच पर दूसरा चिन्हक रखा जाता था। चिन्हक खुदाई का अनुसरण करता हुआ क्रम से ऊपर या नीचे जाता था और इस तरह वह झिल्ली को, जिस प्रकार वह अभिलेखन के समय कंपित की गई थी उसी प्रकार, कंपित होने के लिये बाध्य करता था। झिल्ली के कंपन वायु को कंपित करते थे और इस प्रकार पूर्वध्वनि का पुनरुत्पादन होता था।
आगे चलकर इसमें बहुत से सुधार किए गए। एडिसन के मोम के बेलनवाले फोनोग्राफ ओर ग्रैहम बेल तथा सी.एस. टेंटर के ग्रामोफोन में रिकार्ड पर ऊपर नीचे खुदाई करके नहीं, वरन् कटाई करके, ध्वनि अभिलेखन किया गया। ध्वनि पुनरुत्पादन विद्युत्-जमाव-प्रक्रिया द्वारा किया गया। फोनोग्राफ की तरह बेलनाकार रिकार्डों का उपयोग करनेवाली मशीनें बहुत दिनों तक जनप्रिय नहीं, परंतु इनमें बहुत सी त्रुटियाँ थीं। इन त्रुटियों में से कुछ को दूरकर Emile Berliner ने 1887 में यंत्र बनाया, जिसे ग्रामोफोन नाम दिया।
गायकों को horn के मुह के ठीक सामने रखा जाता था ताकि ध्वनि की ऊर्जा diaphragm पर केंद्रित हो सके। गायक या वादक सिमटकर बैठते थे। एक परदे के आगे भोंपू बाहर की ओर निकला होता था। परदे के दूसरी ओर अभिलेखन मशीन होती थी, जिसमें मोम जैसे पदार्थ की चौरस पट्टिका होती थी। इसी पट्टिका पर सूई सर्पिल रेखा अंकित करती थी। विद्युत् जमाव की प्रक्रिया द्वारा इस पट्टिका से ठोस धातु का negative बनाया जाता था। ऐसे पदार्थ पर जो साधारणत: कड़ा होता है, परंतु गरम करने पर मुलायम हो, जाता है, इस प्रतिछाप को दबाकर उसकी प्रतिलिपियाँ बनाई जाती थीं।
इसी समय के आस पास बहुत से आविष्कारकों ने पुनरुत्पादन करनेवाली मशीनों के सुधार की ओर ध्यान दिया। लंदन के विज्ञानसंग्रहालय में प्रदर्शित बहुत से ग्रामोफोनों द्वारा उनके विकास की विभिन्न अवस्थाओं की झलक मिलती है। आरंभ में बर्लिनर की मशीन है, जिसमें धातु तनुपटवाली Sound box है। यह हाथ से चलाई जाती थी। 1896 में यांत्रिक नियंत्रण का प्रवेश हुआ और शताब्दी के अंत तक घड़ी के समान यंत्र बनाया गया, जो केवल पुनरुत्पादन के लिय प्रयुक्त होता था। इसमें सेलूलायड का तनुपट था, परंतु दो साल पश्चात् अभ्रक का उपयोग होने लगा। 1905 तक ऐसी अनुनादपेटिका का विकास हो चुका था जो बिना किसी महत्वपूर्ण परिवर्तन के 20 वर्ष तक प्रचलित रही। इसमें अभ्रक का तनुपट था, जो चारों तरफ किनारे पर रबर के खोखले छल्ले रूपी gasket से अच्छी तरह कसा रहता था। जो उत्तोलक तनुपट के केंद्र को सुई की नोक से लोड़ता था, उसका आलंब असिकोर का होता था और उसकी गति का नियंत्रण कोमल कमानियों द्वारा होता था। अच्छे पुनरुत्पादन के लिये बड़े हार्न आवश्यक थे, परंतु जब इनका भार बहुत अधिक होने लगा तब उन्हें अनुनादपेटिका से अलग कर दिया गया और मशीन की पेटी पर बने एक ब्रैकेट से जोड़ा जाने लगा। अनुनादपेटिका को भोंपू से जोड़ने के लिय एक छोटी नलिका का उपयोग किया गया, जिसे tone arm कहते थे। भोंपू का दिखाई देना जनता पसंद नहीं करती थी, इसलिये उसे उलटा करके पेटी में रखा गया।
microphone के सामने बोलता या गाता है। ध्वनिपोष में उत्पन्न परिवर्ती विद्युद्धारा को रेडियो वाल्वों द्वारा संबंधित कर एक कुंडली में ले जाते हैं। विद्युद्धारा के घटने बढ़ने से नरम लोहे का आर्मेचर पार्श्व दिशा में दोलित होता है और उससे जुड़ी हुई sapphire की सूई मोमपट्टिका पर सर्पिल खाँच बना देती है।
विद्युद्विधि से ध्वनि उत्पादन करने के लिये अनुनादपेटिका की जगह pick up का उपयोग करते हैं। सूई की पार्श्वीय गति एक कुंडली में परिवर्ती धारा उत्पन्न करती है, जिसे संबंधित कर लाउडस्पीकर में ले जाते हैं। बहुत से ध्वनिग्रह मणिभ का उपयोग करते हैं और बहुतों में armature होता है या कुंडली। कुछ ध्वनिग्रह विद्युद्धारित्र का भी उपयोगकरते हैं।
1926 तक वें records का व्यास 10-12 इंच होता था और वे एक मिनट में 78 या 80 बार घूमते थे। उनके घूमने की अवधि चार मिनट तक होती थी, परंतु अब ऐसे सुधार किए गए हैं कि एक ही records से आधा घंटा तक गाना सुना जा सकता है। ये records एक मिनट में 33 बार घूमते हैं। ऐसा भी प्रबंध किया गया है कि records अपने आप बदलते रहते हैं।
1935 से पहले प्राय: इस्पात की सूइयों का उपयोग किया जाता था, एक ही records पर चलने के बाद उन्हें बदलना आवश्यक हो जाता था, परंतु आजकल नीलम की सूइयों का उपयोग किया जाता है।
विद्युत् और यांत्रिक समुदायों की सदृशता के आधार पर हैरिसन ने 1925 में Feed-back recorder बनाया था। दूसरा महत्वपूर्ण चरण था ऊर्ध्वाधर अभिलेखन के लिये पुनर्जनन Feed-back recorder का निर्माण। 1947 तक Feed-back recorder का उपयोग पार्श्वीय अभिलेखन के लिये भी किया जाने लगा। इससे यह लाभ हुआ कि सूई पर पट्टिका की अभिक्रिया से जो विकृति उत्पन्न होती थी वह कम हो गई।एजेंसी।