ये पता चला है कि देश में केवल 10 महिला राजनेता हैं. भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद यहाँ बहुत कम महिला मुख्यमंत्री हो पायी हैं.Sara Kamal अनुवाद: श्रद्धान्विता तिवारी .जहाँ तक भारतीय राज्यों का प्रतिनिधित्व करने की बात है, पिछले 70 सालों के स्वाधीन इतिहास में केवल 15 महिलाएं ही ये कर पायी हैं | क्या ये सिर्फ इस कारण है कि हम सामूहिक रूप से अपनी इन राजनेताओं से अपरिचित रहे हैं? इस सन्दर्भ में मैं उन भारतीय महिलाओं पर प्रकाश डालना चाहती हूँ जिन्होंने अपने राज्यों का प्रतिनिधित्व किया है.
सुचेता कृपलानी
1963 में सुचेता कृपलानी देश की और उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में चुनी गयीं. जिस समय कांग्रेस के सी बी गुप्ता और सम्पूर्णानन्द के बीच रस्साकशी चल रही थी, उसी समय कृपलानी राज्य की प्रमुख के रूप में उभरीं। उन्होंने एक अच्छे प्रशासक के रूप में खुद को स्थापित किया, मुख्य तौर पर उस समय जब राज्य कर्मचारी 62 दिनों लम्बे आंदोलन पर चले गए थे. कहा जाता है की उस समय कृपलानी आय में बढ़ोत्तरी ना करने के अपने निर्णय में दृढ रहीं और तभी मानीं जब कर्मचारी समझौता करने को राज़ी हुए.हरियाणा के अम्बाला में जन्म और दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से पढ़ाई करने वाली सुचेता कृपलानी का राजनीतिक करियर उस समय से शुरू होता है जब उन्होंने महात्मा गाँधी को विभाजन के व्यवस्थापन में मदद की थी. भारतीय संविधान का चार्टर लिखनेवाली उप समिति की भी वो सदस्य थीं.सुचेता कृपलानी को आज भी कुशल वक्ता और ईमानदार अफसर के रूप में जाना जाता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल 1967 में समाप्त हुआ और उसके बाद वो उत्तर प्रदेश के ही गोंडा चुनाव क्षेत्र से लोक सभा सदस्य चुनी गयीं.
नंदिनी सत्पथी
ओड़िसा की ‘आयरन लेडी’ के रूप में जानी जानेवाली नंदनी सत्पथी ओड़िसा की पहली और किसी भारतीय राज्य की प्रमुख बननेवाली दूसरी महिला हैं. उन्होंने 14 जून 1972 को कार्यभार संभाला. उनके प्रशासन के समय पूरा देश भारत-पाक युद्ध से हिला हुआ था. भारत में आपातकाल लग जाने से उनका कार्यकाल सिर्फ एक साल की छोटी अवधि में ही ख़त्म हो गया.नंदनी सत्पथी इंदिरा गाँधी के बहुत नज़दीक थीं. आपातकाल को लेकर विचारों में मतभेद होने के बाद भी वह देश की प्रधानमंत्री की दोस्त और राष्ट्र्पति की विश्वासपात्र रहीं. आपातकाल बीत जाने के बाद उन्हें फिर से ओड़िसा का मुख्यमंत्री चुना गया. उन्होंने अपना दूसरा कार्यकाल 6 मार्च 1973 से 16 दिसंबर 1976 तक पूरा किया.बचपन से ही नंदनी की राजनीति में बहुत रूचि थी. उनका राजनीतिक करियर 1951 में ओड़िसा के कॉलेजों में फीस बढ़ने को लेकर किये गए विद्यार्थियों के आंदोलन से हुआ. इसके बाद ही वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुईं और ‘विमेंस फोरम ऑफ़ इंडिया’ की अध्यक्ष बनीं। राज्य की मुख्यमंत्री बनने के अलावा उन्हें संसद सदस्य भी चुना गया और सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में उन्होंने इस क्षेत्र में तेजी से विकास किया.राजनीति के अलावा नंदनी सत्पथी ने अनेक किताबें लिखीं और समकालीन साहित्य का उड़िया में अनुवाद भी किया. हर साल 9 जून यानि नंदनी सत्पथी के जन्मदिवस को ‘नंदनी दिवस’ और ‘बालिका दिवस’ के रूप में मनाया जाता है.
शशिकला काकोडकर
गोवा के पहले मुख्यमंत्री दयानन्द बांदोडकर की मृत्यु के बाद उनकी बेटी शशिकला काकोडकर ने 12 अगस्त 1973 से 27 अप्रैल 1979 तक गोवा के मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला. उनके प्रशासन के समय गोवा का भविष्य अनिश्चित था. वहां की जनता दो अलग विचारधाराओं में फंसी हुई थी. एक तरफ काकोड़कर और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के लोग थे जो कहते थे कि गोवा महाराष्ट्र में मिल जाना चाहिए और दूसरी ओर विरोधी पार्टी गोवा को संघसाशित प्रदेश बनाकर उसकी अलग पहचान बनाना चाहती थी.यह मसला ओपिनियन पोल के द्वारा हल किया गया जिसमें काकोडकर और उनकी पार्टी की हार हुई. लेकिन इसके बाद भी काकोडकर को विधान मंडल के चुनाव में 30 में से 15 वोट मिले और वो गोवा की शिक्षा मंत्री चुनी गयीं. वो मराठी भाषा की प्रचारक थीं और गोवा की संस्कृति के संरक्षण में उनका विशेष योगदान है.
सईदा अनवर तैमूर
सईदा अनवर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, आसाम की नेता थीं. 6 दिसंबर 1980 को उन्होंने आसाम की पहली और भारत की चौथी महिला मुख्यमंत्री के रूप में काम करना शुरू किया. उनके शासन के दौरान आसाम में अप्रवासी लोगों को बाहर निकालने की मांग करनेवाला ‘आसाम आंदोलन’ आकार ले रहा था. उनके सात महीनों के प्रशासन में यह आंदोलन और भड़क गया तथा विधान सभा बर्खास्त होकर आसाम में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा.
मुख्यमंत्री पद का कार्यकाल जल्दी समाप्त हो जाने के बाद भी सईदा अनवर सामाजिक कार्य विभाग की मंत्री और राज्य में कांग्रेस की प्रमुख बनीं रहीं. 1988 में उन्हें संसद सदस्य चुना गया और तीन साल बाद वह कृषि मंत्री के रूप में आसाम में वापस आयीं.
जे. जयललिता
एक अभिनेत्री से राजनेता बननेवाली जयललिता भारत की छंटवी और तमिलनाडू की दूसरी महिला मुख्यमंत्री थीं (पहली महिला मुख्यमंत्री जानकी रामचंद्रन* थीं.). 1984 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एम्. जी. रामचंद्रन की हृदयाघात से मृत्यु हो जाने के बाद जयललिता ने तमिलनाडू का सारा प्रशासनिक कार्य संभाल लिया. और इसी बीच उन्हें राज्य सभा का सदस्य भी चुना गया. एम् जी रामचंद्रन की मृत्यु के बाद जयललिता तमिलनाडू में लौटीं और ए.आइ.डी.एम्.के. की मदद से 1991 के चुनाव में जीत हासिल की. इस जीत के बाद जयललिता ने मुख्यमंत्री के रूप में 1991 से 1996, 2002 से 2006 और 2011 से 2014 तीन बार पदभार संभाला.अपनी सरकार के दौरान जयललिता ने तमिलनाडू में अनेक सुधार लाये. उन्होंने 57 महिलाओं द्वारा चलाये जानेवाले पुलिस स्टेशन के अलावा महिला-संचालित पुस्तकालय, बैंक और दुकानें स्थापित कीं. महिलाओं के लिए पुलिस स्टेशन में 30% कोटे की भी व्यवस्था की. उन्होंने सरकारी योजना के तहत ७३ भोजनालयों की स्थापना की जहाँ पर इडली, सांभर और दही चावल जैसे प्रादेशिक व्यंजन बहुत ही कम दामों पर दिए जाने लगे. इसे लोगों द्वारा अच्छा प्रतिसाद भी मिला.2014 में जयललिता को आय से अधिक संपत्ति के केस में गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें 4 साल की जेल हुई लेकिन उनके समर्थकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. जयललिता के देहांत के पश्चात उन्हें आज भी ‘अम्मा’ और ‘पुरात्ची थलेवी’ (क्रांतिकारी नेता) के नाम से जाना जाता है.
*जानकी रामचंद्रन
तत्कालीन मुख्यमंत्री एम्. जी. रामचंद्रन की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जानकी रामचंद्रन ने राज्यसभा का विश्वासमत जीत लिया. इस प्रकार उन्होंने खुद को तमिलनाडू की पहली और भारत की पांचवी महिला मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित किया. किन्तु 24 दिनों बाद ही यह सरकार बर्खास्त कर दी गयी और राज्य सभा का चुनाव दोबारा हुआ. इस चुनाव में जानकी रामचंद्रन एम्. करूणानिधि से हार गयीं.यह विदित है कि इन सभी महिला मुख्यमंत्रियों ने उस समय कार्यभार संभाला जब उनके राज्य विकल परिस्थिति से गुज़र रहे थे. और इस समय भी उन्होंने महिला राजनेताओं की कुशलता और पुरुषों के कंधे से कन्धा मिलाकर चलने की क्षमता को साबित किया.मुख्यमंत्री का पद स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ावा तो नहीं देता किन्तु जिस प्रकार से राजनितिक क्षेत्र में महिला उम्मीदवार बढ़ती जा रही हैं, उनसे महिलाओं के प्रति विचारधारा में परिवर्तन अवश्य ही आया है. एक तरफ जहाँ महिलाओं की क्षमता समाज के सामने आयी है, वहीं दूसरी ओर समाज के हर तबके की महिलाओं को चुनाव लड़ने, खुद को साबित करने और सामाजिक पर्यावरण को सँभालने का मौका मिला है.