– वीर विनोद छाबड़ा
फिल्म संसार भी अजीब जगह है। यहाँ इंसान बनने कुछ आता है, बनता कुछ और है। नियति का खेल जो ठहरा। अब देखिये न असित सेन को। उनके पिता फोटोग्राफर थे। बेटे असित को न्यू थिएटर्स में कैमरा डिपार्टमेंट में लगवा दिया। सोचा, काम सीख जाएगा तो कैमरामैन बन जाएगा। बड़ी-बड़ी फ़िल्में शूट करेगा। यहाँ असित की दोस्ती असिस्टेंट कैमरामैन बिमल रॉय से हो गयी। बिमल रॉय कैमरामैन बने तो असित सेन उनके सहायक। बिमल रॉय डायरेक्टर बने तो असित सेन फोटोग्राफी को तिलांजलि देकर उनके असिस्टेंट डायरेक्टर हो गए। अब उनकी बारी आयी डायरेक्टर बनने की। दो फ़िल्में डायरेक्ट कीं। परिवार (1956) चली नहीं और और अभिभट्टाचार्य-माला सिन्हा वाली अपराधी कौन (1957) हिट हुई। क़ामयाबी सर चढ़ कर बोलती है। लेकिन असित सेन के साथ उल्टा हुआ। उन्हें डायरेक्शन बहुत झंझटी लगा, बहुत मगज़मारी है। एक्टिंग ज़्यादा मज़ेदार और सहज है। वो बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ में छोटा सा रोल कर ही चुके थे। अछूत के विषय पर बनी ‘सुजाता’ में उन्होंने पंडित भवानी शंकर शर्मा का रोल किया। आगे भी बिमल रॉय की कई फिल्मों में रहे। परख, बंदिनी, काबुलीवाला, बेनज़ीर आदि।
असित सेन का पहला कॉमिक ब्रेक था, सुबोध मुख़र्जी की ‘जंगली’ (1961)। मगर मज़ा नहीं आया। उन्होंने आईने के सामने खड़े होकर अपने चेहरे को फिर से निहारा। एक भोला-भाला,बेवकूफ़ सा दिखता कन्फ्यूज़्ड आदमी, जिसे देख कर बरबस ही हंसी आ जाए। उन्होंने संवाद को खींच कर स्लो मोशन में बोला। उन्हें लगा ये स्टाईल दर्शकों को भा जायेगी। ‘सौतेला भाई’ (1962) में इसे आज़माया। क्लिक हो गए असित सेन। गाड़ी चल पड़ी। ‘बीस साल बाद’ के गोपीचंद जासूस को भला कौन भूल सकता। क्या मैं अंदर आ सकता हूँ…अरे मैं तो अंदर आ ही गया। सवाल और फिर खुद ही जवाब। उनका ये अंदाज़ खूब भाया दर्शकों को।
भले एक ही सीन हो उनका, लेकिन दर्शकों का ध्यान खींचते ही रहे। ‘आनंद’ में डॉक्टर के पास पहुंचे। बोले, डॉक्टर, एक नई कम्प्लीकेशन शुरू हो गयी है…इतना ही कहना था कि हाल हंसी से गूँज उठा। बिमल रॉय ने शेक्सपीयर के नाटक ‘कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ पर ‘दो दुनी चार’ बनायी तो किशोर कुमार और असित सेन दोनों को डबल रोल दिया। कुछ साल बाद गुलज़ार ने इसका रीमेक बनाया ‘अंगूर’, संजीव कुमार और देवेन वर्मा को लेकर। दोनों ही एक जैसी फ़िल्में, लेकिन ‘अंगूर’ मीठे रहे। यूट्यूब पर ‘दो दूनी चार’ देखें तो बराबर मज़ा आएगा।
असित सेन ने करीब दो सौ फ़िल्में कीं, मेरे सनम, नई रौशनी, भूत बंगला, उपकार, ब्रह्मचारी, दो चोर, दो रस्ते, आराधना, बेटी, मेरा गाँव मेरा देश, मेरे अपने, पूरव और पश्चिम, अमर प्रेम, दुश्मन, बॉम्बे टू गोवा, चौकीदार, चोर मचाये शोर, बैराग, घर, राम बलराम, धर्मा आदि। असित सेन के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये रही कि चाहे वो चौकीदार का किरदार कर रहे हों, या थानेदार का या फिर मकान मालिक का, उनकी एक्टिंग की स्टाइल कभी नहीं बदली। उन्होंने अपनी प्रतिभा को निखरने का चांस ही नहीं दिया। वो ‘टाइप्ड’ हो गए। वस्तुतः इसके लिए दर्शक भी कम दोषी नहीं। वे एक्टर को बनी-बनाई छवि में ही देखना चाहते हैं। बीआर ईशारा ने ‘चेतना’ और ‘ज़रूरत’ में और आरके नैय्यर की ‘इंतक़ाम’ में उन्हें बुरे आदमी का किरदार दिया भी। फ़िल्में तो खूब चलीं, लेकिन दर्शकों ने असित सेन के इस नकारात्मक छवि को कतई पसंद नहीं किया। वो लौट अपने पुराने अंदाज़ में। 13 मई 1917 को गोरखपुर में जन्मे असित सेन ने आखिरी साँस मुंबई में 18 सितंबर 1993 को ली।