पुण्य तिथि पर विशेष
डाॅ. सम्पूर्णानन्द-कुशल राजीतिज्ञ, बहुमखी प्रतिभा के धनी डाॅ. सम्पूर्णानन्द भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ- जागरूक शिक्षाविद्, गम्भीर, मर्मंज्ञ और उदात्त साहित्यकार के रूप में विख्ृयात हैं। इनका जन्म वाराणसी में 1 जनवरी 1890 को सम्भ्रान्त कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता विजयानन्द धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जिनका प्रभूत प्रभाव सम्पूर्णानन्द पर पड़ा। उन्होंने क्वीन्स कॉलेज, वाराएासी से बी.एस-सी. और इसके पश्चात् पैउागॉजीकल ट्रेनिंग कॉलेज, इलाहावाद से एल.टी. की परीक्षाऍं उत्तीर्ण कीं। उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत आदि भाषाओं में निर्बाध गति प्राप्त की। कुछ दिनों बाद उनकी नियुक्ति डूँगरपुर कॉले, बीकानेर में प्रधानाचार्य के पद पर हुर्इ। 1921 में महात्मा गॉंधी के राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रेरित होकर वे वाराणसी लौट आए और ‘ज्ञानमण्डल’ में काम करने लगे। इन्हीं दिनों उन्होंने ‘मर्यादा’ (मासिक) और ‘टूडे’ (अंग्रेजी दैनिक) का सम्पादन भी किया।
उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अन्तर्गत प्रथम पंक्ति के सेनानी के रूप में कार्य किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वे उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री, शिक्षामंत्री और 1955 में मुख्यमंत्री बने। 1962 में राजस्थान के राजयपाल नियुक्त हुए। 1967 में राज्यपाल पद में मुक्त होने पर वाराणसी लोैट आए और मृत्युपर्यन्त काशी विद्यापीठ के कुलपति रहे। दर्शन, जयोतिष, भारतीय संस्कृति, राजनीति, गणित, विज्ञान, शिक्षा और साहित्य आपके चिन्तन और लेखन के विषय है।
1940 में वे अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति निर्वाचित हुए। उन्हें सर्वोंच्च उपाधि साहित्य-वाचस्पति भी प्राप्त हुई। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के भी वे अध्यक्ष और संरक्षक रहे। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय तो उनकी ही देन है। डॉ. सम्पूर्णानन्द ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उनके निबन्ध ‘नवनीत’, ‘प्रभा’, आदि पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होते रहे। ‘आर्यों का आदिदेश’ में अकाट्य प्रमााणों के आधार पर उन्होंने यह सित्र किया कि आर्य भारत के ही मूल निवासी थे, वे कहीं बाहर से नहीं आए थे। 10जनवरी 1969 को वाराणसी में ही उनका देहावसान हो गया।एजेंसी।