जयंती पर विशेष। शैलेन्द्र (शंकरदास केसरीलाल) हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध गीतकार थे। ‘होठों पर सच्चाई रहती है, दिल में सफाई रहती है’, ‘मेरा जूता है जापानी,’ ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ जैसे दर्जनों यादगार फ़िल्मी गीतों के जनक शैलेंद्र ने महान् अभिनेता और फ़िल्म निर्माता राज कपूर के साथ बहुत काम किया।
‘शैलेन्द्र, जन्म 30 अगस्त, 1923 को रावलपिंडी में हुआ था। शैलेन्द्र जी के पिता फ़ौज में थे। बिहार के रहने वाले थे। पिता के रिटायर होने पर मथुरा में रहे, वहीं शिक्षा पायी। घर में भी उर्दू और फ़ारसी का रिवाज था, लेकिन शैलेन्द्र की रुचि घर से कुछ भिन्न ही रही। 1942 में बंबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने गये। अगस्त आंदोलन में जेल भी गये। लेकिन कविता का शौक़ बना रहा।
किसी ज़माने में मथुरा रेलवे कर्मचारियों की कॉलोनी रही धौली प्याऊ की गली में गंगासिंह के उस छोटे से मकान की पहचान सिर्फ बाबूलाल को है जिसमें शैलेन्द्र अपने भाईयों के साथ रहते थे। सभी भाई रेलवे में थे। बड़े भाई बी.डी. राव, शैलेन्द्र को पढ़ा-लिखा रहे थे। बाबू लाल के अनुसार, मथुरा के ‘राजकीय इंटर कॉलेज’ में हाईस्कूल में शैलेन्द्र ने पूरे तब के संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश)में तीसरा स्थान प्राप्त किया। वह बात 1939 की है। तब वे 16 साल के थे। के.आर. इंटर कॉलेज में आयोजित अंताक्षरी प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे और खूब ईनाम जीतते थे। इसके बाद शैलेन्द्र ने रेलवे वर्कशाप में नौकरी कर ली। बाबूलाल भी रेलवे में लग गए। कुछ दिन मथुरा रहकर शैलेन्द्र का तबादला माटुंगा हो गया।
अगस्त 1947 में राज कपूर कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र जी को पढ़ते देखकर प्रभावित हुए। और फ़िल्म ‘आग’ में लिखने के लिए कहा किन्तु शैलेन्द्र जी को फ़िल्मी लोगों से घृणा थी। 1948 में शादी के बाद कम आमदनी से घर चलाना मुश्किल हो गया। इसलिए राज कपूर के पास गये। उन दिनों राजकपूर बरसात फ़िल्म की तैयारी में जुटे थे। तय वक्त पर शैलेन्द्र राजकपूर से मिलने घर से निकले तो घनघोर बारिश होने लगी। क़दम बढ़ाते और भीगते शैलेन्द्र के होंठों पर ‘बरसात में तुम से मिले हम सनम’ गीत ने अनायास ही जन्म ले लिया। अपने दस गीत सौंपने से पहले शैलेन्द्र ने इस नए गीत को राजकपूर को सुनाया। राजकपूर ने शैलेन्द्र को सीने से लगा लिया। दसों गीतों का पचास हज़ार रुपये पारिश्रमिक उन्होंने शैलेन्द्र को दिया। नया गीत बरसात का टाइटिल गीत बना। गीत चले, फिर क्या था, उसके बाद शैलेन्द्र जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सरल और सटीक शब्दों में भावनाओं और संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर देना शैलेन्द्र जी की महान् विशेषता थी। ‘किसी के आँसुओं में मुस्कुराने’ जैसा विचार केवल शैलेन्द्र जैसे गीतकार के संवेदनशील हृदय में आ सकता है। उनकी संवेदना का एक उदाहरण देखिये -“कल तेरे सपने पराये भी होंगे, लेकिन झलक मेरी आँखों में होगी फूलों की डोली में होगी तू रुख़सत, लेकिन महक मेरी साँसों में होगी…..”शायद कभी प्यार की राह में कभी ऐसे गिरे रहे होंगे वे कि फिर कभी संभल नहीं पाये। इसीलिये वे लिखते हैं-“सहज है सीधी राह पे चलना, देख के उलझन, बच के निकलना कोई ये चाहे माने न माने, बहुत है मुश्किल गिर के संभलना…..”फ़िल्मों में गीत लिखने के पहले देश के आजादी की लड़ाई में योगदान देने का उनका एक अलग ही तरीका रहा है। वे उस समय देशभक्ति से सराबोर वीररस की कविताएँ लिखा करते थे और उन्हें जोशोखरोश के साथ सुनाकर सुनने वालों को देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत कर दिया करते थे, परिणामस्वरूप देश के आजादी के वीरों का बहुत अधिक उत्साहवर्धन होता था। उनकी रचना ‘जलता है पंजाब……’ ने उन दिनों बहुत प्रसिद्धि पाई। फ़िल्मों में आने के बाद भी उनका ये जज़्बा बना ही रहा इसीलिये वे ग़रीब भारतीय की अभिव्यक्ति इन शब्दों में करते हैं –“मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी-सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी…..”एक हिंदुस्तानी स्त्री की भावनाओं का कितना सुंदर प्रदर्शन करते हैं वे अपने इस गीत में-“तन सौंप दिया, मन सौंप दिया, कुछ और तो मेरे पास नहीं जो तुम से है मेरे हमदम, भगवान से भी वो आस नहीं…..”
बिना शक शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा गीतकार कहा जा सकता है। उनके गीतों को खुरच कर देखें तो आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे। उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे।- गुलज़ार
शैलेंद्र ने राजकपूर अभिनीत ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म का निर्माण किया था। दरअसल, शैलेन्द्र को फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ बहुत पसंद आई। उन्होंने गीतकार के साथ निर्माता बनने की ठानी। राजकपूर और वहीदा रहमान को लेकर ‘तीसरी कसम’ बना डाली। खुद की सारी दौलत और मित्रों से उधार की भारी रकम फ़िल्म पर झोंक दी। फ़िल्म डूब गई। कर्ज़ से लद गए शैलेन्द्र बीमार हो गए। यह 1966 की बात है। अस्पताल में भरती हुए। तब वे ‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में, नजरों को हम बिछायेंगे’ गीत की रचना में लगे थे। शैलेन्द्र ने राजकपूर से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। वे बीमारी में भी आर. के. स्टूडियो की ओर चले। रास्ते में उन्होंने दम तोड़ दिया। यह दिन 14 दिसंबर 1966 का था। मौके की बात है कि इसी दिन राजकपूर का जन्म हुआ था। शैलेन्द्र को नहीं मालूम था कि मौत के बाद उनकी फ़िल्म हिट होगी और उसे पुरस्कार मिलेगा।
शैलेन्द्र को तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था, जो निम्न प्रकार है- 1958 में ‘ये मेरा दीवानापन है…’ (फ़िल्म- यहूदी) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला।1959 में ‘सब कुछ सीखा हमने…’ (फ़िल्म- अनाडी) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला।1968 में ‘मै गाऊं तुम सो जाओ…’ (फ़िल्म- ब्रह्मचारी) के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला।
शैलेन्द्र के निधन के बाद ‘मेरा नाम जोकर’ का वह गीत अधूरा रह गया । ‘जीना यहाँ मरना यहाँ’ का सिर्फ मुखड़ा तैयार हो सका था । बीमार शैलेन्द्र ने राज कपूर से कहा कि अस्पताल से लौट कर वह गीत पूरा कर देंगे । शैलेन्द्र के यूँ चले जाने से वह एक गीत ही नहीं उनका वादा भी अधूरा रह गया । यह बहुत कम लोग जानते हैं कि अब जो गीत पूरा का पूरा सामने है, उसका अंतरा शैलेन्द्र ने नहीं लिखा है । इस गीत को शैलेन्द्र के बेटे शैली शैलेन्द्र ने पूरा किया था।