कुमाऊं के स्वतन्त्रता संग्राम में विक्टर मोहन जोशी ऐसा नाम रहा है जिसने बतौर संग्रामी के ही नहीं, अपितु यशस्वी संपादक के रुप में अपना विशिष्ट स्थान बनाया. मोहन जोशी ऐसे यशस्वी संग्रामी रहे जिनकी विद्वता के कायल तत्कालीन बुद्धिजीवी भी थे. उनके भाषाणों में कायरता और जड़ता को छार कर देने का गुण मौजूद था. वे जब व्यारव्यान देते तो स्वराज्य की पवित्र गंगा प्रवाहित कर देते. अखबार में उनकी लेखनी आग उगलती और मुर्दा दिलों में जीवन पैदा कर देती, ऐसी प्राणपूर्ण लेखन शैली आज भी हिन्दी पत्रकारिता में दुर्लभ है.
विक्टर मोहन जोशी निडर आंदोलनकारी, समाजसेवी और कुशल संपादक थे। उनका जन्म अल्मोड़ा में 1 जनवरी 1896 को हुआ। इलाहाबाद के इरविन क्रिश्चियन कॉलेज से मोहन ने बी.ए किया, वह हिंदी और अंग्रेजी के विद्वान छात्र थे। 1916 में कुमाऊं परिषद में उनकी अहम भूमिका रही। विक्टर मोहन जोशी 1925 में अल्मोड़ा जिला बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे। जनता को आजादी के लिए जागरुक करने के लिए उन्होंने ‘स्वाधीन प्रजा’ नाम का साप्ताहिक अखबार प्रकाशित किया।
आजादी में उनके योगदान को देखते हुए अल्मोड़ा के राजकीय महिला अस्पताल में 12 फरवारी 2004 को उनकी मूर्ति लगाई गई, बागेश्वर का राजकीय इंटर कॉलेज का नाम भी उनके ही नाम पर रखा गया है।
जब ‘होम रुल लींग’ आन्दोलन चला तो मोहन जोशी ने अपने निवास स्थान में इसकी स्थापना करके अपने इरादे जाहिर कर दिए. ‘होमरुल लीग’ में बदरीदत्त पाण्डे, चिरंजीलाल शाह, हीरा बल्लभ पाण्डे, हरगोविन्द पन्त आदि शामिल हुए. मोहन जोशी के विचारों से प्रभावित होकर मिशिनरी महिला कुमारी टर्नर भी ‘होम रुल लीग’ से जुड़ गई. दस्तावेज के अनुसार ‘होम रुल लीग’ की स्थापना के बाद मोहन जोशी और बदरी दत्त पाण्डे न केवल करीब आ चुके थे बल्कि ब्रिटिश हुकूमत की आँखों की किरकिरी बन चुके थे. तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर लोमस दोनों को गिरफ्तार करने के बहाने ढूंढने लग गए थे.
पढ़ाई समाप्त करने के बाद विक्टर मोहन जोशी के पिता ने उन्हें नौकरी की सलाह दी. उल्लेखनीय है कि मोहन जोशी के पिता सरकारी खजाने में लिपिक थे. बाद में वे पादरी भी रहे. मोहन जोशी ने पिता के नौकरी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और ‘स्वराज्य आन्दोलन’ में समर्पित होकर कूदने का संकल्प लिया. इसके लिए उन्होंने ईसाई समाज को जागृत करने का फैसला किया. वे प्रयाग से प्रकाशित होने वाली ‘स्वराज्य’ नामक राष्ट्रीय विचारों के साप्ताहिक से प्रभावित हुए. इससे प्रभावित होकर मोहन जोशी ने प्रयाग से ही ‘क्रिश्चयन नेशनलिस्ट’ अंग्रेजी साप्ताहिक 1920 में निकालना प्रारम्भ किया.
दरअसल क्रिश्चयन नेशनलिस्ट’ का उद्देश्य भारतीय ईसाईयों को स्वराज्य आन्दोलन से जोड़ना था. यह पत्र राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत था. ईसाई समाज को याद दिलाई जाती थी कि ईसा यहूदियों की आजादी के लिए. सूली पर चढ़ गए थे. अत: उनके अनुयाइयों को गुलाम नहीं रहना चाहिए और आजादी की लड़ाई में शामिल होना चाहिए. इस अखबार ने अल्मोड़ा में ईसाई समाज को इतना बल दिया कि उन्होंने गिरजे से ‘यूनियन जैक’ हटाने के लिए कह दिया. इस समाचार पत्र का अल्मोड़ा के ईसाइयों में इतना प्रभाव पड़ा कि अल्मोड़ा के तत्कालीन पादरी यूनससिंह, डा. मनोहर मसीह,जैमान आदि कांग्रेस से सहानुभूति रखने लगे.
‘क्रिश्यन नेशनलिस्ट’ अधिक दिनों तक तो नहीं चला पर इस अखबार के माध्यम से मोहन जोशी ने देश विचारवान लोगों में संग्रामी पत्रकार के रुप में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली. एक ईसाई के लिए देश भक्त और वह भी कुमाऊं में तब अपवाद की घटना थी. मोहन जोशी के विचारों से प्रभावित होकर उन्हें महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सदस्य चुन लिया.
‘क्रिश्चयन नेशनलिस्ट’ के प्रकाशन से पूर्व मोहन जोशी कुछ समय तक अल्मोड़ा में सक्रिय रहे. 1918 में जब ‘अल्मोड़ा अखबार’ ब्रिटिश शासकों के षडयंत्र के कारण बन्द हुआ तो मोहन जोशी ने ‘शक्ति’ के प्रकाशन में बदरीदत्त पाण्डे को भरपूर सहयोग दिया. तब तक ‘कुमाऊँ परिषद’ का गठन किया जा चुका था. मोहन जोशी कुमाऊँ परिषद से सम्बद्ध लोगों को पूरी तरह से संग्राम में जोड़ने की चाहत रखते थे. परिषद से जुड़े नरम प्रकृति के व्यक्तियों से मोहन जोशी के स्पष्ट मतभेद रहे थे. इस सबके बावजूद उन्होंने ‘बेगार आन्दोलन’ को सफल बनाने में ‘कुमाऊँ परिषद’ में सक्रियता की.
प्रसंगवश यह जिक्र जरुरी है कि कुमाऊँ में स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन का आरम्भ ‘कुली बेगार’ और जंगलात सम्बन्धी परेशानियों को लेकर किया गया. इसमें अखबारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. मोहन जोशी की खूबी थी कि उन्होंने बतौर ‘अखबार नबीस’ के भी स्वतन्त्रता संग्राम को गतिशील बनाने में विशिष्ट योगदान दिया. 1921 में ‘बेगार कवर’ समाप्त होने की सफलता के बाद शक्ति के संस्थापक संपादक बदरीदत्त पाण्डे गिरफ्तार कर लिए गए. तब ‘शक्ति’ संपादक के रुप में मोहन जोशी ने लिखा।
विक्टर मोहन जोशी की याद में
विक्टर मोहन जोशी जी जीआईसी एनटीडी अल्मोड़ा
विक्टर मोहन जोशी महिला अस्पताल अल्मोड़ा
विक्टर मोहन जोशी स्मारक राजकीय इंटर कॉलेज, बागेश्वर
अल्मोड़ा के एन.टी.डी. क्षेत्र में उनकी कब्र है।
‘शक्ति’ संपादक के रुप में विक्टर मोहन जोशी ने देश प्रेम से ओत-प्रोत ऐसे लेख लिखे जिससे विदेशी शासकों पर सीधी चोट पड़ती. क्रिसमस के अवसर पर उन्होंने लिखा ”हिन्दुस्तान का खून चूसने वाले… फिरंगियों को अपने अतीत की ओर देखना चाहिए. यदि आज प्रभ यीशू खीष्ट्र भारत में होते तो स्वार्थी नौकरशाही उन्हें भी जेलों के भीतर बन्द कर देती.“
‘शक्ति’ के संपादन काल में ही विक्टर मोहन जोशी 1 जनवरी 1922 को गिरफ्तार कर लिए गए. उनके साथ प्रख्यात भाषा विद डा. हेमचन्द्र जोशी आदि भी गिरफ्तार किए गए. उन्हें ग्यारह दिनों का कारावास भुगतना पड़ा. 1921 के बागेश्वर मेले में ‘बेगार आन्दोलन’ की घटनाओं से घबराये विदेशी प्रशासकों ने नेताओं को मेले में जाने से रोकना चाहा. मोहन जोशी और उनके साथियों को मेले में जाते समय गिरफ्तार किया गया. 1923 में शिवरात्रि के मेले के अवसर पर मोहन जोशी भिकियासैण गए. बावजूद धारा 144 लगने के उन्होंने स्वराज्य आन्दोलन से सम्बन्धित उत्तेजक भाषण दिए. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन उनके शुभ चिन्तकों ने जुर्माना भरकर उन्हें कारावास जाने से रोक लिया.
बदरीदत्त पाण्डे के जेल से रिहा होने के बाद ‘शक्ति’ का संपादन फिर बदरीदत्त पाण्डे को सौंप दिया गया. इस बीच मोहन जोशी पूरी तरह संग्राम में सक्रिय हो गए. बागेश्वर के ‘उत्तरायणी मेले के कारण ब्रतानवी शासक परेशान रहने लगे. यह मेला स्वतन्त्रता संग्रामियों की कर्मभूमि बन चुका था. 1924 में मोहन जोशी कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन से भाग लेकर जब लौटे तो उन्हें पता चला कि दबंग पुलिस अफसर को बागेश्वर भेजा गया है.
कप्तान ‘यंग’ नाम के इस पुलिस अफसर ने सुलताना डाकू को गिरफ्तार करके अपना दबदबा बनाया हुआ था. मेले से एक रोज पहले रानीखेत पहुंचे मोहन जोशी रात को पैदल चलकर बागेश्वर पहुँचे. इसकी भनक किसी को नहीं लगी. मेले के रोज उन्होंने उत्तेजक भाषण देकर सैकड़ों लोग अपने इर्द-गिर्द खड़े कर दिए. उन्हें गिरफ्तार करने के लिए 250 सशस्त्र पुलिस बल की मदद लेनी पड़ी. उन्हें तीन साल का सपरिश्रम कारावास की सजा सुनाकर बरेली जेल भेज दिया गया. स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी स्मारिका जनपद अल्मोड़ा में इसे दो साल का कठोर कारावास बताया गया, साथ ही मोहन जोशी को फरवरी 1923 में भी कारागार जाना दर्शाया गया है.
बरेली जेल में रहते हुए विक्टर मोहन जोशी को पारिवारिक दुःख झेलना पड़े. अस्वस्थ पिता जेल में जाकर उनसे मिले और क्षमा याचना करके बाहर आने को कहा, पर मोहन जोशी ने इंकार कर दिया. इस दौरान पिता और छोटे भाई सीजर की मृत्यु हुई. पिता के देहान्त का समाचार जवाहर लाल नेहरु ने जेल में जाकर मोहन जोशी को दिया. 20 जनवरी 1925 को उन्हें सजा की अवधि पूरी होने से पहले ही रिहा कर दिया गया. इसका कारण जेल में बिगड़ा स्वास्थ्य था. मोहन जोशी ने जल्दी रिहाई का आदेश मिलने पर लिखित रुप से अपना विरोध जेल में दर्ज किया.
जेल से छूटने के बाद मोहन जोशी खद्दर के प्रचार में लग गये. इस बीच मोहन जोशी ने दूसरी बार बदरीदत्त पाण्डे के गिरफ्तार होने पर शक्ति का संपादन किया. जोशी जी का अध्ययन का दायरा विस्तृत था. वे हिन्दी और अंग्रेजी में तो विशेष दखल रखते ही थे साथ ही कई बार कुमाऊँनी में व्याख्यान देते थे. वे हिन्दू धर्म के प्रति भी उतना ही आदर भाव रखते थे जितना ईसाई धर्म के प्रति. 21 जुलाई 1925 के ‘शक्ति’ में उनकी टिप्पणी इस प्रकार है- मैं नाम का ईसाई हूँ, पर हिन्दू समाज से मुझे घनिष्ट प्रेम है… मैं भारत का बच्चा हूँ यही मेरा पालन पोषण हुआ है.
हालांकि मोहन जोशी और बदरीदत्त पाण्डे एक ही डगर के राही थे फिर भी ‘शक्ति’ का संपादन दूसरी बार छोड़ते समय मोहन जोशी ने ऐसा भाव प्रदर्शित किया जिससे लगता है ‘शक्ति’ परिवार के किसी सदस्य के साथ उनका मनमुटाव रहा. वैसे बदरीदत्त पाण्डे को ‘कूर्मांचल केसरी’ से सम्बोधित करने की शुरुआत मोहन जोशी ने की और मोहन जोशी को ‘देशभक्त मोहन जोशी’ के रुप में बदरीदत्त पाण्डे ने प्रचारित किया. 1932 में मोहन जोशी ने फिर बदरीदत्त पाण्डे के प्रति सम्मान जताया. जिला परिषद के लिए मोहन जोशी के नाम का प्रस्ताव सर्वसम्मति से हो रहा था. लेकिन मोहन जोशी ने बदरीदत्त पाण्डे को ही इस पद पर आसीन करवाया. इस सबके बावजूद नवम्बर 1925 में मोहन जोशी ने स्पष्ट लिखा कि राजनीति फुटबाल की भांति है जब चाहा बाहर कर दिया.
अल्मोड़ा जनपद में (पिथौरागढ़ सहित) कताई बुनाई के लिए वातावरण बनाने में मोहन जोशी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. आप जिलाा परिषद के सचिव चुने गए. इस दौरान उन्होंने सबसे पहले खद्दर की दुकान खोली. स्कूलों में कताई को अनिवार्य विषय बनाया साथ ही काष्ठकला को भी शुरु करवाया. हरिजनों को निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करवाई. बाद में विदेशी शासकों द्वारा काम में अड़चन पैदा करने के कारण उन्होंने महात्मा गाँधी को पत्र लिखकर इस पद से इस्तीफा दे दिया. लेकिन तब तक सूती और ऊनी कारोबार की कुमाऊँ में जड़ जम चुकी थी.
मोहन जोशी की कार्यशैली से परेशान प्रशासकों ने 1926 में घोषणा कर दी कि उन्हें राजनीतिक कार्यों (स्वराज्य आन्दोलन) के लिए बागेश्वर में कोई स्थान न मिलने पावे. इसके बावजूद मोहन जोशी ने स्वराज्य मन्दिर के लिए बागेश्वर में स्थान प्राप्त कर लिया. स्वराज्य मन्दिर का उद्देश्य उसे संग्रामियों के स्मारक के रुप में विकसित करना था. इस काम में वे तन, मन, धन से जुड़े. इस वास्ते कांग्रेस जनों की एक कमेटी भी बनी. 1927 में उत्तरायणी मेले में बकायदा इस वास्ते प्रस्ताव भी पारित हुआ पर दुर्भाग्य से मोहन जोशी का यह सपना पूरा नहीं हो सका.
1929 में जब महात्मा गाँधी अल्मोड़ा पधारें तो मोहन जोशी उन्हें बागेश्वर ले गये. महात्मा गाँधी से ‘स्वराज्य मंदिर’ की नींव रखवाई गई. मोहन जोशी के संग्रामों व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अल्मोड़ा यात्रा के बाद महात्मा गाँधी ने अपने अखबार में उन्हें ‘इसाई समाज का उत्कृष्टम पुष्प’ बताया.
स्वतन्त्रता संग्राम को गति देने के लिए विक्टर मोहन जोशी ने 1 जनवरी 1930 को अल्मोड़ा से ‘स्वाधीन प्रजा’ साप्ताहिक का प्रकाशन किया. उन्हें प्रजा को स्वाधीन देखना था. ‘स्वाधीन प्रजा’ में मोहन जोशी की लेखनी एक कवि के समान स्वतन्त्रता की पवित्र गंगा प्रवाहित कर देती. हर शब्द देश प्रेम से रंगा होता, जिसमें आक्रोश झलकता, लाल रंग से रंगा हुआ सन् 1930 के होली अंक में मोहन जोशी ने लिखा इसी भारत में एक समय प्रहलाद आया था, सत्य के नशे में वह अजब रंग लाया था. अपने दुष्ट पिता को बार-बार उसने हराया था… आज गाँधी भी होलियों में रंग लाया है. नौकरशाही ने बार-बार उसे सताया है…. पर गाँधी अकेला क्या करेगा? अकेला मरेगा तो अकेला तरेगा. सबने होली की उमंग में मिलकर सतरंगी पिचकारी छोड़ी तो सारा भारत क्षण भर में तरेगा. तरेगा, तरेगा, तरेगा निश्चय तरेगा, मारो सब छोड़ो सतरंगी पिचकारी.
‘स्वाधीन प्रजा’ में स्वराज्य आन्दोलन के लिए मोहन जोशी ने आक्रामक पत्रकारिता शुरु की. उनके लेखों से जान पड़ता है कि वे किस कोटी के देश भक्त थे. उनके लेखन शैली से ब्रतानवी शासक घबरा उठे. अभी ‘स्वाधीन प्रजा’ के अठारह ही अंक निकले थे कि पत्र से छ: हजार रुपए की जमानत माँगी गई. मोहन जोशी ने ‘स्वाधीन प्रजा’ को इतना प्रखर बनाया था कि इतनी अधिक जमानत देश के किसी भी अखबार से नहीं माँगी गई. परिणामस्वरुप अखबार बन्द हो गया बाद में कृष्णानन्द शास्त्री ने कुछ समय तक इसे प्रकाशित किया. वास्तव में एक पत्रकार के रुप में मोहन जोशी ने बाल गंगाधर तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी के समान ही आक्रामक रुख आख्तियार किया.
मोहन जोशी का साहसिक व्यक्तित्व हमेशा खतरे से जूझता रहा. 1930 में अल्मोड़ा नगर पालिका (जहाँ आजकल महिला चिकित्सालय है) में तिरंगा फहराने जा रहे मोहन जोशी ने अद्भुत साहस का परिचय दिया. नगर पालिका के इर्द-गिर्द 75 गोरखा सिपाही लाठी और बन्दूक लिए तैनात कर दिए गए. दो मशीन गनें लगाई गई. धारा 144 की घोषणा के बावजूद मोहन जोशी अपने साथियों के साथ नगर पालिका परिसर में नारे लगाते हुए आ पहुँचे. सत्याग्रहियों को घेर कर मदिरा के मद में झूमते सिपाहियों ने लाठियाँ बरसानी शुरु कर दी. मोहन जोशी ने तब तक तिरंगा नहीं छोड़ा जब तक वे अचेत होकर गिर न पड़े. स्वतन्त्रता संग्राम में इस घटना ने सकरात्मक असर दिखाया. प्रतिक्रिया स्वरुप बाद में कई प्रधानों ने अपने इस्तीफे तक दे दिए. लेकिन सिर में आई गम्भीर चोट से मोहन जोशी की स्मरण शक्ति कमजोर हो गई. एक दशक बाद यही उनकी मृत्यु का कारण बन गई. इस ‘झण्डा सत्याग्रह’ पर महात्मा गाँधी ने टिप्पणी की ‘सत्याग्रह के युद्ध में मोहन जोशी ने साबित कर दिया है कि वे किस धातु के बने हैं.’
बीमार होने के बावजूद जनवरी 1932 में मोहन जोशी को बागेश्वर में धारा 144 तोड़ने और सरकार के विरुद्ध भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें छ: माह की जेल व एक सौ रुपए अर्थ दण्ड को सजा सुनाई गई.
यूँ तो विक्टर मोहन जोशी 1935 तक संग्राम से जुड़े रहे पर 1932 के बाद उन्हें मानसिक रोग ने आ घेरा. वे बीच-बीच में विकृत हो जाते और ‘बिजली ! बिजली!’ चिल्लाने लगते. 1935 के बाद आपका जीवन एकाकी हो गया. आपने जवाहर लाल नेहरु से तक मिलने से इंकार कर दिया. महात्मा गाँधी ने आपका उपचार कराना चाहा पर आपने अस्वीकार कर दिया. 4 अक्टूबर 1940 को एकाकी जीवन बिता रहे मोहन जोशी ने देह त्याग दिया. हालांकि अन्तिम समय में मोहन जोशी अंग्रेजी में धार्मिक पुस्तक लिख रहे थे पर इसके पन्ने किसी के हाथ नहीं लग सके. अंग्रेज लेखक चार्ली आरनोल्ड ने इसके कुछ पृष्ठ देखकर प्रतिक्रिया व्यक्त की- मोहन जोशी की अंग्रेजी में लिखने की शैली गजब की है, उनके विचारों में बल है.’ मोहन जोशी ने एक पुस्तक ‘जापानी खूनी’ भी लिखी जो जापानी पुस्तक का हिन्दी रुपान्तर है.
विक्टर मोहन जोशी कुमाऊँ के स्वराज्य आन्दोलन में एक जलती हुई ज्वाला की तरह आविर्भूत हुए. स्वराज्य की लड़ाई में सर्वस्व अर्पण कर देने वाले इस संग्रामी का जीवन एक महान यज्ञ के रुप में सामने आया. जिन अमर प्राणों को वह अपने साथ लाया था उन्हीं को दान कर दिया. अफसोस! इस महान देश भक्त की स्मृति आधुनिक समाज में क्षीण हो गई है.–शिरीश पाण्डेय-पुरवासी के चौदवें अंक से साभार.