राजनेता अपने को समाजसेवी कहते हैं। राजनीति समाज सेवा के लिए बनी भी थी क्योंकि जहां आमजन अपनी-अपनी समस्या में ही उलझे रहते हैं वहीं समाजसेवी पूरे समाज की चिंता करता है, समाज के हित में वह दिन-रात की परवाह नहीं करता, अपना घर-परिवार भी ठीक से नहीं देख पाता। इस त्याग का उसे प्रतिफल भी मिलता है। समाज के सभी लोग उसका सम्मान करते हैं, उसकी जरूरतों को पूरा करते हैं। इस प्रकार उसके परिवार का दायरा बढ़ता जाता है। गांव, ब्लाक, जिला और प्रदेश से लेकर देश तक पहुंच जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ऐसे ही समाज सेवी थे। देश की सेवा करने वाले और भी लोग हुए जिन्होंने अपने-अपने तरीके से देश सेवा की है। चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक रोशन, भगत सिंह, रामप्रसाद, विस्मिल और नेता सुभाष चन्द्र बोस के अलग रास्ते थे लेकिन देश की आजादी के बाद राजनीति में तेजी से बदलाव आया। हालांकि सभी ने यही कहा कि हम समाज सेवा कर रहे हैं। यह समाज सेवा कैसी है, इसका खुलासा चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली संस्था ‘एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म’ ने रिपोर्ट में किया है। इससे पता चलता है कि राजनीति समाज सेवा नहीं बल्कि एक दुकान है जो बेहतर अवसर मिलने पर मुनाफा कमाती है और हालात बदलने पर उसे घाटा उठाना पड़ता है। इन दुकानों को चंदा मिलता है और ये तो जगजाहिर है कि कोई भी मुफ्त में किसी को पैसा नहीं देना चाहता। चुनाव प्रक्रिया में जो लोग सुधार चाहते हैं उनके लिए यह चिंता की खबर है।
हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दल और चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होते हैं इनकी शुचिता बनाये रखने की जरूरत है। सत्ता में बैठी पार्टी को चंदा देने वाले कोई परोपकारी नहीं हैं। अभी हाल में केन्द्र सरकार ने विदेशों से राजनीतिक दलों को चंदे पर खुली छूट देने की बात कही थी। राजनीतिक दलों को अब देश ही नहीं विदेशों से भी भरपूर चंदा मिलता है क्योंकि विदेश में बैठे लोगों का कारोबार भारत में चल रहा है। इस प्रकार वे भी इस चंदे का प्रतिकार किसी न किसी रूप में लेते हैं। कुछ दिन पहले यह बात उठी थी कि राजनीतिक दलों को चंदा पर रोक लगाकर चुनाव लड़ने के लिए सरकार की तरफ से निश्चित धन दिया जाए। इस पर भी विचार होना चाहिए।
एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफाम्र्स ने विभिन्न राजनीतिक दलों को चंदे से हुई आमदनी और खर्च का दो साल का विवरण जारी किया है। इसमें बताया गया कि 2014 में केन्द्र में सत्ता में आयी भाजपा की आमदनी में 81 फीसद की वृद्धि हुई है। भाजपा इस समय देश की सबसे बड़ी पार्टी है और 21 राज्यों में उसकी स्वयं अथवा साझे की सरकारें चल रही हैं। राजनीतिक दलों की आमदनी और खर्च का विवरण खुद उनके द्वारा ही घोषित किया गया है। भाजपा ने 2015-16 में 570.86 करोड़ की धनराशि चंदे से जुटायी थी जबकि 2016-17 में यह रकम बढ़कर 10.34 करोड़ रुपये हो गयी । इससे साफ पता चलता है कि सत्तारूढ़ होने पर राजनीति की दुकान सबसे ज्यादा चलती है। भाजपा की कुल आय में स्वैच्छिक अनुदान की हिस्सेदारी 96.41 प्रतिशत रही है। यह स्वैच्छिक अनुदान पार्टी नेता और अन्य लोगों का है। भाजपा ने इस राशि में 710.05 करोड़ रुपये खर्च किये। इसके बाद उसके पास 324.21 करोड़ रुपये बचे हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सत्ता से ही बेदखल नहीं हुई बल्कि उसको चंदा देने वाले भी नहीं मिल रहे हैं। जाहिर है कि ऐसी दुकान पर ग्राहक क्यों जाएंगे जहां से कुछ मिलने की उम्मीद ही नहीं है। कांग्रेस को वर्ष 2015-16 में 261.65 करोड़ रुपये मिले थे जबकि 2017-17 मंे यह राशि सिर्फ 225.36 करोड़ रुपये रह गयी। कांग्रेस ने 321.66 करोड़ रुपये खर्च किये हैं। इस प्रकार उसे 96.3 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा है। राष्ट्रीय दलों में बसपा का भी शुमार है, इसलिए उसका हिसाब भी दिया गया है। बसपा का हिसाब-किताब फिलहाल दुरुस्त चल रहा है भले ही लोकसभा चुनाव में उसे कोई सांसद नहीं मिला और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उसके इतने विधायक नहीं थे जो एक सदस्य को भी राज्यसभा में भेज पाते। इसके बावजूद सुश्री मायावती की पकड़ मजबूत दिखाई पड़ती है। बसपा को 2015-16 में 74.38 करोड़ रुपये चंदे में मिले थे जबकि 2016-17 में यह राशि बढ़कर 173.58 करोड़ रुपये हो गयी। बसपा ने अपने खर्च में भी किफायत की है और उसने 51.83 करोड़ खर्च करके बाकी रुपये बचा लिये। देश में वामपंथ को भले ही ठुकरा दिया गया है लेकिन माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को अब भी अच्छा खासा चंदा मिलता है। माकपा को 2015-16 में 107.48 करोड़ रुपये मिले। खर्च करने के मामले में इस पार्टी ने भी बुद्धि लगायी और 94.05 करोड़ रुपये खर्च करके लगभग 6 करोड़ रुपये बचा लिये।
सभी पार्टियों के आय के स्रोत बैंक में जमा धन पर ब्याज, एफडी, पार्टी के कूपन, सदस्यता शुल्क और स्वैच्छिक अनुदान रहे हैं। ध्यान देने की बात यह कि सबसे बड़ा स्रोत स्वैच्छिक अनुदान का है। इसलिए चुनाव सुधार की दिशा में काम करने वाली इस संस्था ने सुझाव दिया है कि चुनाव आयोग ऐसा नियम बनाये जिससे कोई भी पार्टी 20 हजार रुपये से अधिक के चंदे का हिसाब देने के लिए चंदा देने वाले फार्म 2 ए का कोई हिस्सा खाली न छोड़े। यह भी कहा गया है कि चंदा देेने वाले सभी लोगों अथवा प्रतिष्ठानों की पूरी जानकारी आरटीआई के तहत सार्वजनिक जांच के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। राजनीतिक दलों को आयकर रिटर्न भरना अनिवार्य होना चाहिए और तय समय पर आयकर रिटर्न नहीं भरने वालों को उनकी आमदनी पर आयकर लगाने का प्रावधान किया जाए। ऐसा न करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता समाप्त कर देनी चाहिए। राजनीतिक दल कैसे कमायी कर रहे हैं और किस तरह से कर रहे हैं इसका लेखा परीक्षण भी कराया जाना चाहिए।
राजनीतिक दल जब तक समाज सेवा करते रहे तब तक उनकी मुख्य कमायी सदस्यता शुल्क ही रहती थी। आजादी से पहले कांग्रेस की सदस्यता चवन्नी की होती थी और लोग नारा लगाते थे कि एक चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की। उस समय तक राजनीतिक दल समाज सेवी हुआ करते थे। गांधी जी कांग्रेस के चवन्नियां सदस्य भी नहीं थे लेकिन कांग्रेस ने उनके नाम का दुरुपयोग बहुत दिनों तक किया। अब तो पार्टियों के चंदे की राशि भी बढ़ गयी है लेकिन फिर भी यह राशि इतनी नहीं है कि करोड़ों-अरबों की राशि इकट्ठी की जा सके। अब चंदे के रूप में उन लोगांे का पैसा मिलता है जो उसकी वसूली भी किसी न किसी रूप में कर लेना चाहते हैं। इसीलिए सबसे ज्यादा चंदा उन राजनीतिक दलों को मिलता है जो केन्द्र अथवा राज्यों में सरकार चला रहे होते हैं। सरकार से मधुर संबंध रखकर उसका फायदा उठाने वालों के नाम भी जब-तब सुनाई पड़ जाते हैं। देश में कितने ही नेताओं के नाम घोटालों से जुड़े हैं जिन्होंने सत्ता का फायदा निजी हित में लिया है। कई नेता तो जेल की हवा भी खा रहे हैं। राजनीतिक दलों की यह कमायी चुनावों में भ्रष्टाचार का कारण भी बनती है। इसीलिए चुनाव आयोग ने भी राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता के लिए आवाज उठाई और दो हजार से ज्यादा चंदा चेक के माध्यम से देने का सुझाव दिया था जिसे मान लिया गया।
लोकतंत्र में राजनीतिक दल और चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होते हैं इनकी शुचिता बनाये रखने की जरूरत है। सत्ता में बैठी पार्टी को चंदा देने वाले कोई परोपकारी नहीं हैं। अभी हाल में केन्द्र सरकार ने विदेशों से राजनीतिक दलों को चंदे पर खुली छूट देने की बात कही थी। राजनीतिक दलों को अब देश ही नहीं विदेशों से भी भरपूर चंदा मिलता है क्योंकि विदेश में बैठे लोगों का कारोबार भारत में चल रहा है। इस प्रकार वे भी इस चंदे का प्रतिकार किसी न किसी रूप में लेते हैं। कुछ दिन पहले यह बात उठी थी कि राजनीतिक दलों को चंदा पर रोक लगाकर चुनाव लड़ने के लिए सरकार की तरफ से निश्चित धन दिया जाए। इस पर भी विचार होना चाहिए। (हिफी)