हिंदी फिल्मों के जाने माने निर्देशक बासु चटर्जी का गुरुवार को 90 वर्ष की आयु में मुंबई में निधन हो गया। उनके निधन के साथ ही एक युग का अंत हो गया। वे उन चुनिंदा निर्देशकों में थे, जिन्होंने मध्यमवर्गीय परिवारों के हालात बड़े पर्दे पर दिखाए।उन्होंने फिल्मों के अलावा टीवी सीरियल में भी अपनी खास जगह बनाई। खास बात ये है कि उन्होंने निर्देशन या फिल्म मेंकिंग से जुड़ा किसी तरह का कोई कोर्स भी नहीं किया था। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने ब्लिट्स पत्रिका में बतौर कार्टूनिस्ट की थी।
बासु दा का जन्म अजमेर में हुआ था,लेकिन उन्होंने होश मथुरा में संभाला था। यहीं पर उन्होंने इंटरमिडिएट तक पढ़ाई की। बासु दा के पिता रेलवे में थे, इसलिए उनका ट्रांसफर होता रहता था। अलग-अलग वक्त पर दिए विभिन्न इंटरव्यू में उन्होंने अपनी जीवन यात्रा के बारे में बताया था। जिसके बारे में हम आपको बता रहे हैं।
बासु दा को बचपन से ही खेलने और सिनेमा देखने का बहुत शौक था। फिल्मों का शौक उन्हें उनके बड़े भाई की वजह से मिला। वे करीब सात साल की उम्र से उनके साथ फिल्में देखने जाते थे। उनका कहना था कि उन दिनों मथुरा में ही थिएटर था और उसमें जितनी भी फिल्में लगती थीं, मैं सब देखता था। पढ़ने में वे ठीकठाक ही थे, लेकिन उनकी दिलचस्पी ज्यादा खेलने और फिल्में देखने में थी। बासु दा के मुताबिक चार भाई और दो बहनों के परिवार में माता-पिता ने पढ़ाई को लेकर हम पर किसी तरह का दबाव नहीं डाला।
बासु दा के मुताबिक निर्देशन में उनकी रुचि शुरू से नहीं थी, शुरू में तो वे भी आम लोगों की तरह फिल्में देखते थे। उन्होंने बताया कि निर्देशन में उनकी रुचि काफी वक्त बाद यानी मुंबई में आने के बाद हुई। यहां पर आकर वे ‘फिल्म सोसायटी मूवमेंट’ के साथ जुड़े, जहां दुनिया की अलग-अलग भाषाओं की अच्छी-अच्छी फिल्में दिखाई जाती हैं। यहां उन्हें हॉलीवुड के अलावा फ्रेंच, जर्मन, इटैलियन, जापानी और अन्य भाषाओं की फिल्में देखने का मौका मिला। जिसके बाद उनका रुझान फिल्में बनाने की ओर आया।
बासु दा के मुताबिक उन दिनों फिल्म आई थी, ‘बाइसिकल थीफ’ उसकी शूटिंग ना किसी स्टूडियो में हुई थी, ना ही कोई मंझे हुए आर्टिस्ट थे, सबकुछ इधर उधर से इकट्ठा करके बनाई गई थी, लेकिन इसके बाद भी सब उसे देखकर चौंक गए थे। मुझे भी वो बहुत अच्छी लगी थी। उसके कुछ ही दिनों हमने देखा कि सत्यजीत रे ने एक फिल्म बनाई है ‘पाथेर पांचाली’ बनाई। इससे पहले तक ये था कि जो भी अच्छी चीज होती है तो वो इटैलियन होगी जर्मन होगी या फ्रेंच होगी। जब सत्यजीत रे ने पाथेर पांचाली बनाई तो हमारी आंखें खुलीं कि हम लोग भी ये कर सकते हैं, हमें कुछ हौंसला आया, फिर हमारा झुकाव फिल्म निर्देशन की ओर हुआ।
मथुरा से ग्रेजुएशन करने के बाद बासु मुंबई आ गए थे। जब उन्होंने फिल्में बनाना शुरू किया था, तब पूना और कलकत्ता में फिल्म इंस्टीट्यूट बना भी नहीं था। ऐसे में किसी तरह कोर्स करने का तो सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने बताया था कि उन दिनों जितने भी भारतीय निर्माता-निर्देशक थे, सबने अपने आप पढ़कर और असिस्टेंट बनकर विद्या हासिल की थी। खुद बासु ने फिल्म बनाने से पहले उस समय उन्हें जितनी भी किताबें मिलीं, उन्हें पढ़ डाला था। उनका कहना था मैं जानना चाहता था कि फिल्में किस तरह बनाई जाती हैं।
फिल्म मेकिंग की काफी किताबें पढ़ने के बाद बासु दा को पता चला कि मथुरा के स्कूल के उनके सीनियर रहे कवि शैलेंद्र’तीसरी कसम’ नाम की फिल्म शुरू करने जा रहे हैं। जिसके बाद वे उनसे जाकर मिले और साथ काम करने की इच्छा जताई। तो शैलेंद्र ने उन्हें फिल्म के डायरेक्टर बासु भट्टाचार्य से बात करने को कहा।तब बासु वीकली मैगजीन ब्लिट्ज में कार्टूनिस्ट थे, इस वजह से लोग उन्हें जानते थे औरभट्टाचार्य जी ने भी ओके कर दिया। उस फिल्म में बासु को सीधे चीफ असिस्टेंट बना दिया गया। उनके साथ एक अन्य असिस्टेंट भी थे, जिनका नाम बाबूलाल विशारद था।
बतौर स्वतंत्र निर्देशक ‘सारा आकाश’ बासु दा की पहली फिल्म थी। उनका कहना था कि ये फिल्म उन्होंने उस अनुभव के आधार पर बनाई थी, जो उन्हें विभिन्न फिल्म सोसायटियों में अलग-अलग भाषाओं (फ्रेंच, जर्मन, इटैलियन, मैक्सिकन) की फिल्में देखकर मिला था। बासु दा के मुताबिक उस फिल्म को लेकर सबसे अच्छा कमेंट उन्हें उस वक्त के बड़े निर्देशन चक्रवर्ती जी ने दिया था। उन्होंने कहा था कि बासु दा हम लोग तो दर्शकों के लिए फिल्में बनाते हैं, लेकिन आपने तो ये फिल्म हमारे लिए बनाई है। इससे काफी कुछ सीखने को मिला। बासु दा के मुताबिक ‘सारा आकाश’ के डिस्ट्रिब्यूटर राजश्री थे, उन्हें भी ये फिल्म काफी पसंद आई थी। जिसके बाद उन्होंने मुझे मेरी दूसरी फिल्म ‘पिया का घर’ ऑफर की।
अपनी बनाई फिल्मों में बासु दा की पसंदीदा फिल्म ‘जीना यहां’ थी, जो कि मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित थी। बासु दा कि ये फिल्म चली नहीं थी, लेकिन फिर भी वो उनके दिल के सबसे करीब थी और उन्हें पसंद थी। ये फिल्म उन्हें इसलिए अच्छी लगी थी, क्योंकि इसमें उन्होंने एक अलग तरह की वास्तविकता बताई थी। उनके मुताबिक, लोगों को लगता है कि सुख-समृद्धि-शांति गांवों में है, शहरों में कुछ नहीं है। जबकि उस फिल्म की कहानी में उल्टा बताया गया था, शहरों में लड़ झगड़कर अपना हक मांग सकते हैं, उसे ले सकते हैं, लेकिन गांव अब भी पिसा हुआ है। रगड़ रहा है पुरानी दकियानूसी पीढ़ियों के अनुसार। तो उन्नति अगर कहीं हुई है तो सिर्फ शहरों में हुई है।..