फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘धर्मयुग’ में ‘तीसरी कसम’ की शूटिंग रिपोर्ट लिखी थी- ‘तीसरी कसम के सेट पर तीन दिन’। इस रिपोर्ट में एक जगह वह लिखते हैं, ‘इसी बीच असिस्टेंट डायरेक्टर बासु चटर्जी ने मेरे पास आकर धीरे से कहा, सर, चलिए जरा कैमरे के व्यू फाइंडर से आँख सटा कर देखिए, तब पता चलेगा कि गाड़ी में कैसा ‘चंदा का फूल’…! बासु चटर्जी असिस्टेंट डायरेक्टर के अलावा बम्बई अब मुंबई के मशहूर कार्टूनिस्ट थे, जो हर सप्ताह अपनी बांकी निगाह से दुनिया को देखता और दिखाता था। इसलिए उसकी किसी बात पर पहली बार गंभीरतापूर्वक मैं कभी ध्यान नहीं देता। रेणु की इन चंद पंक्तियों से ही बासु चटर्जी की शख्सियत की तस्वीर उभरती है, जो उनकी बातचीत, समझदारी और फिल्मों में बाद में दिखती है। यही ‘बांकी निगाह’ अपनी मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के साथ फिल्मों में आती है और हमें हिंदी सिनेमा का वह चितेरा फिल्मकार मिलता है, जो मध्यवर्गीय परिवार और परिजनों से घिरा रहा।
बासु चटर्जी ने अपने समय के लोकप्रिय सितारे अमिताभ बच्चन और जितेंद्र को भी पर्दे पर ‘लार्जर दैन लाइफ’ नहीं होने दिया। अमिताभ बच्चन की ‘मंजिल’ और जितेन्द्र की ‘प्रियतमा’ उदहारण हैं। बासु चटर्जी की पैदाइश अजमेर शहर में 10 जनवरी, 1927 को हुई थी। पिता रेलवे में मुलाजिम थे। उनके साथ फिर मथुरा जाना हुआ। मथुरा और आगरा में बासु चटर्जी की पढ़ाई-लिखाई हुई। यहीं लेखक राजेंद्र यादव और शैलेन्द्र से दोस्ती हुई। दोनों फिल्मकार बासु चटर्जी के फिल्मी सफर के आरंभिक साथी बने। फिल्में देखने का शौक मथुरा में ही जागा था। शायद ही कोई फिल्म छूटती थी। बड़े होने पर मन के किसी कोने पर फिल्म के बीज पड़ गए थे, जिसे अंकुरित होने में 15 सालों का समय लगा।
मथुरा में ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद बासु आजीविका की तलाश में बम्बई अब मुंबई आए। यहाँ एक मिलिट्री स्कूल में लाइब्रेरियन की नौकरी मिली। पैर टिकाने की जगह मिलने के बाद अरमानों के पंख निकलने शुरु हुए। बासु चटर्जी का संपर्क ‘ब्लिट्ज’ के संपादक से हुआ और वे वहाँ पर पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट हो गए। रेणु ने इसी कार्टूनिस्ट की ‘बांकी निगाह’ का उल्लेख अपनी शूटिंग रिपोर्ट में किया था। 1948 में बम्बई अब मुंबई आ चुके बासु चटर्जी ने थोड़े समय तक ही लाइब्रेरियन का काम किया। ‘ब्लिट्ज’ से जूडने के बाद उन्होंने वह ऊबाऊ नौकरी छोड़ दी। ‘ब्लिट्ज’ में कार्टून बनाने का सिलसिला 15 सालों तक चला। आगरा के साथी शैलेन्द्र से बम्बई अब मुंबई में संपर्क बना हुआ था।
शैलेन्द्र ने 1963 में जब रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम’ पर फिल्म का निर्माण शुरु किया तो बासु ने फिल्म से जुड़ने की इच्छा जताई। सोचा कि दोस्त की फिल्म के सेट पर फिल्म मेकिंग के गुर सीखने का मौका मिलेगा। दोस्ती और निर्माता होने के बावजूद शैलेंद्र ने कहा कि निर्देशक बासु भट्टाचार्य से मिल लो। उनकी हां के बाद आ सकते हो। मुलाकात हुई तो कार्टूनिस्ट की समझदार और जागरुक पृष्ठभूमि की वजह से बासु भट्टाचार्य सहज ही तैयार हो गए। ‘तीसरी कसम’ के बाद बासु चटर्जी ने गोविंद सरैया के साथ ‘सरस्वतीचंद्र’ में भी असिस्टेंट का काम किया। दूसरी फिल्म व्यवसायिक दृष्टि से सफल रही और पहली फिल्म सुधी दर्शकों और आलोचकों के बीच सराही गई। दो फिल्मों में सहायक रहने के बाद बासु चटर्जी ने तय कर लिया कि अब वह खुद निर्देशन करेंगे। ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’… उन दिनों एफएफसी (आज की एनएफडीसी) ने युवा, नए और प्रयोगशील फिल्मकरों को फाइनेंस करने का निर्णय लिया था।
बासु चटर्जी ने मथुरा के दोस्त राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ को चुना। स्क्रिप्ट लिखी और जमा कर दी। मंजूरी भी मिल गई। राकेश पांडे, मधु चक्रवर्ती और एके हंगल मुख्य भूमिकाओं के लिए चुने गए। ‘सारा आकाश’ ढाई लाख रुपयों में बनी और रिलीज हुई। साहित्य पर आधारित इस फिल्म को उस साल प्रदर्शित, चर्चित और कामयाब ‘आराधना’, ‘दो रास्ते’, ‘एक फूल दो माली’ और ‘प्यार का मौसम’ जैसी लोकप्रियता नहीं मिली, लेकिन उसी साल प्रदर्शित ‘सात हिंदुस्तानी’ की तरह ‘सारा आकाश’ का हिंदी फिल्म के इतिहास में दूरगामी असर रहा। पहली ने हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा के सितारे अमिताभ बच्चन को जन्म दिया तो दूसरी ‘न्यू वेब की नींव बनी। न्यू वेभ, पैरेलेल सिनेमा, आर्ट सिनेमा जिस तिपाये पर टिकी और आगे बढ़ी, उनमें मृणाल सेन की ‘भुवन शोम; और मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ के साथ बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ शामिल है।
‘सारा आकाश’ ने मुख्यधारा की चालू, लार्जर दैन लाइफ और घिसी-पिटी फॉर्मुलों की फिल्मों से अलग राह दिखाई। इस लिहाज से बासु चटर्जी पायनियर निर्देशक हैं। आगे चलकर उन्होंने ‘रजनीगंधा’, ‘चितचोर’, ‘छोटी सी बात’, ‘बातों बातों में’, ‘खट्टा मीठा’ और ‘स्वामी’ फिल्मों से मिडिल सिनेमा की राह प्रशस्त की। बासु चटर्जी की फिल्मों में मृणाल सेन और मणि कौल की आगामी फिल्मों का ‘कला’ आग्रह नहीं है। वह मध्यवर्गीय आकांक्षाओं, दुविधाओं और सपनों की कहानियां लेकर फिल्मों में आये। मध्यवर्गीय परवरिश, सोच और विश्वदृष्टि ही बासु चटर्जी को परिचालित करती रही। अपनी फिल्मों के बारे में बातें करते हुए वे हमेशा यही कहते थे कि मैं निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आता हूं। उन परिवारों के चरित्रों की आशा-निराशा को अच्छी तरह जानता हूं, इसलिए स्वाभाविक तौर पर मेरी फिल्मों में मध्यवर्गीय चरित्र ही होते हैं। हिंदी फिल्मों के प्रचलित हीरो की अविश्वसनीय मर्दानगी मेरी समझ में नहीं आती। बासु चटर्जी की फिल्मों के नायक और नायिका मध्यवर्गीय समाज और परिवार में आज भी दिखाई देंगे। यूं लगता है कि सीधे जीवन से वे पर्दे पर आ गए हैं। ‘सारा आकाश’ के नायक समर(राकेश पांडे) और नायिका प्रभा (मधु चक्रवर्ती) के बीच लंबे समय तक अबोला रहता है। समर को लगता है कि उसे पारिवारिक जरूरतों की वजह से एक अनचाहे रिश्ते में बांध दिया गया है, जो उसकी जिंदगी की बाड़ बन गई है। वह अपने दोस्तों से कहता भी है कि ‘इन्हीं बाड़ों को कुचल कर हमें आगे बढ़ना होगा’। ‘पिया का घर’ में छोटे घर की जिंदगी में कसमसाते राम शर्मा(अनिल धवन) और मालती शंकर(जया भादुड़ी) के दांपत्य की अड़चनों और अंतरंगता को बखूबी दिखाया गया है। ‘पिया का घर’ राजा ठाकुर जी मराठी फिल्म ‘मुंबईचा जंवाई’ की रीमेक थी। मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित ‘रजनीगंधा’ प्रेमत्रिकोण का मध्यवर्गीय संदर्भ लेकर आती है। फिल्म में नायिका दीपा की भूमिका में विद्या सिन्हा ने प्रचलित हिंदी फिल्मों की नायिका से एक अलग छवि पेश की थी। प्रेमत्रिकोण भी नया था। दीपा(विद्या सिन्हा),नवीन(दिनेश ठाकुर) और संजय(अमोल पालेकर) के बीच का प्रेमत्रिकोण मध्यवर्गीय रोमांस, उम्मीद, स्मृतिदंश को बारीकी से पेश करता है। इस फिल्म में योगेश के गीतों ने मध्यवर्गीय यथार्थ को भावभीनी तरलता और गहराई दी थी। उनकी ‘चितचोर’, ‘छोटी सी बात’, ‘खट्टा मीठा’ और ‘स्वामी’ फिल्मों के विषय और चरित्रों की विस्तार में चर्चा की जा सकती है। इन सभी फिल्मों में बासु चटर्जी की कोशिश रही है कि वह हिंदी फिल्म के ‘बालकोनी (शिक्षित और मध्यवर्गीय) दर्शकों को करीबी अनुभव और मनोरंजन दे सकें।
बासु चटर्जी, हृषीकेश मुखर्जी और गुलजार हिंदी फिल्मों के ‘मिडिल सिनेमा’ के दर्शकों को अपनी फिल्मों से लुभाते रहे, उन्होंने कमर्शियल मेनस्ट्रीम सिनेमा और आर्टसिनेमा के बीच दर्शकों को रोचक मनोरंजन की जमीन दी। प्रलोभनों और अवसरों के बावजूद वे तीनों इसी जमीन पर नई नई फिल्में रचते रहे। उन्होंने पॉपुलर सितारों को कुछ नया और सार्थक करने का अवसर दिया। तुलनात्मक अध्ययन के शौकीन हृषीदा और बासु चटर्जी के बीच प्रतिद्वंदिता की बातें करते हैं। बासु चटर्जी ने ऐसी तुलनाओं से हमेशा परहेज किया और हृषीदा को वरिष्ठ फिल्मकार का सम्मान दिया। बासु चटर्जी की ज्यादातर फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित हैं। वे कहानियां साहित्य से लेते थे। उनकी पटकथा फिल्म के हिसाब से तैयार करते थे। पहली फिल्म ‘सारा आकाश’ मूल उपन्यास की आधी कथा पर ही बनी थी। मूल से यह बदलाव उनकी बाद की फिल्मों में भी दिखाई देता है, लेकिन कभी किसी लेखक से मनमुटाव नहीं हुआ। बासु चटर्जी हिंदी फिल्मों के वाहिद फिल्मकार हैं, जिनका साहित्य और साहित्यकारों से जीवंत संबंध रहा। उनकी फिल्मों के के साथ उनकी फिल्मों के गीत-संगीत को भी ध्यान से पढ़ना चाहिए। उन्होंने किरदारों के मनोभावों को व्यक्त करने वाले गीत चुनें। उनकी फिल्म ‘खट्टा मीठा’ का गीत ‘थोड़ा है थोड़े की जरुरत है’ तो मिडिल क्लास का एंथम बन चुका है।बासु चटर्जी का निधन 4 जून, 2020 को मुम्बई में हुआ था । अमर उजाला से साभार