गुरु रविदास जयंती, माघ महीने में पूर्णिमा (माघ पूर्णिमा) के दिन पर मनाया जाने वाला गुरु रविदास का जन्मदिवस है। यह रैदास पंथ धर्म का वार्षिक केंद्र बिंदु है। जिस दिन अमृतवाणी गुरु रविदास जी को पढ़ी जाती है, और गुरु के चित्र के साथ नगर में एक संगीत कीर्तन जुलूस निकाला जाता है। इसके अलावा श्रद्धालु पूजन करने के लिए नदी में पवित्र डुबकी लगाते हैं, उसके बाद भवन में लगी उनकी छवि पूजी जाती है। हर साल, श्री गुरु रविदास जन्म स्थान मंदिर, सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी में एक भव्य उत्सव के अवसर पर दुनिया भर से लाखों श्रद्धालुओं आते है।
मन चंगा तो कठौती में गंगा.-संत रविदास, भारतीय जनमानस का वह संत जिसने जाति-पाति के बंधनों से पार पा लिया.संत रविदास /संत रैदास का जन्म 31 जनवरी, 1433 , माघ पूर्णीमा के दिन रग्घू और घुरविनिया दंपति के यहां हुआ. साक्ष्य के आधार पर रैदास का चर्मकार जाति का होना सिद्ध होता है-‘नीचे से प्रभु आँच कियो है कह रैदास चमारा ‘रविदास इतने दयालु और परोपकारी थे कि साधू संतों को वह बिना मूल्य के जूते भेंट कर देते थे. उनके पिता को यह बात खटकती थी. एक दिन तंग आकर उनके पिता ने उन्हें पत्नी सहित घर से निकाल दिया. फिर क्या पड़ोस में ही रविदास ने एक कुटिया बनाई और अपने काम के साथ जनसेवा करते रहे.रविदास जी ने पहले बौद्ध, सिख और हिंदू धर्म को अपनाया था। निर्गुण सम्प्रदाय में इन्हें प्रसिद्ध संत माना जाता था।रविदास जी ने भक्ति आंदोलन का उत्तर भारत में नेतृत्व किया था।अपनी रचनाओं के माध्यम से संत रविदास ने न केवल सामाजिक समता को बढ़ावा दिया बल्कि उस समय में व्याप्त बुराइयों पर भी खूब लिखा.संत कबीर की ही तरह रैदास भी जनवाणी में लिखने वाले संत थे. यह भक्ति काल की विशेषता रही है कि कवियों ने वही लिखा जो उस युग की प्रचलित भाषा थी. ऐसा लोग कहते हैं कि रविदास ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी शाखा के बीच पुल की तरह थे. उनकी रचनाओं में एक ओर जहां अबूझ दर्शन होता था वहीं आसानी से समझ में आ जाने वाला सरल काव्य भी होता था.इस मत के अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं।इस मत के अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं।प्रियादास कृत ‘भक्तमाल’ की टीका के अनुसार चित्तौड़ की ‘झालारानी’ उनकी शिष्या थीं, जो महाराणा सांगा की पत्नी थीं। इस दृष्टि से रैदास का समय 1482-1527 . (सं. 1539-1584 वि.) अर्थात विक्रम की सोलहवीं शती के अंत तक चला जाता है। कुछ लोगों का अनुमान कि यह चित्तौड़ की रानी मीराबाई ही थीं और उन्होंने रैदास का शिष्यत्व ग्रहण किया था। मीरा ने अपने अनेक पदों में रैदास का गुरु रूप में स्मरण किया है –‘गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी। सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।’
रविदास के बारे में एक किस्सा बहुत प्रसिद्ध है, एक बार रैदास के शिष्य उनसे गंगा स्नान पर चलने के लिए जिद करने लगे. गंगा स्नान का पर्व था तो शिष्यों की जिद वाजिब भी थी. रविदास ने अपने शिष्यों से कहा कि एक व्यक्ति को मैंने जूते बनाकर देने का वचन दे रखा है. अगर जूते समय से तैयार नहीं हुए तो वचन भंग होगा. काम न कर पाने की वजह से मेरा मन तो यहीं लगा रहेगा. इसलिए जिस काम के लिए मन न तैयार हो उसे नहीं करना चाहिए. और वैसे भी मन चंगा तो कठौती में गंगा.
एक किवदंति भी रैदास के बारे में प्रचलित है कि किसी महिला की अंगूठी गंगा स्नान के समय नदी में गिर गई थी. वह रोती हुई रविदास के पास आई और बताने लगी कि उसकी अंगूठी गंगा में गिर गई. रविदास ने अपनी कठौती में से अंगूठी निकाल कर महिला को दिखाया कि देखो यही तो नहीं. महिला चौंक गई. उसने कहा कि हां यही है. फिर यहीं से कहावत प्रचलित हो गई मन चंगा तो कठौती में गंगा.
संत रविदास मानते थे कि भगवान एक ही हैं. फिर चाहे उन्हें राम कहो या रहीम. हिंदू-मुसलमान सब एक ही ईश्वर की उपासना करते हैं. तभी तो उन्होंने लिखा-कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा,वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा.रविदास किसी एक वर्ग के संत नहीं थे. सभी वर्गों के लोग संत रविदास को आध्यात्मिक गुरु के तौर पर अपनाने लगे. तभी तो ऐसी जनश्रुति है कि मीरा भी उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानने लगीं.वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की,सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की.रविदास को जाति-पाति से कोई मतलब न थे. उनके लिए सब एक समान थे. तभी तो उन्होंने लिखा कि-जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात.रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात. एजेन्सी।