– वीर विनोद छाबड़ा-साठ से लेकर नब्बे के सालों के दौर में अभिनेत्री उर्मिला भट्ट एक जाना-माना नाम थीं. उन दिनों वो मां-सास की भूमिकाओं के लिए फिट पायी जाती थीं. हालांकि इन भूमिकाओं के लिए भी वो फर्स्ट चॉइस कभी नहीं रहीं. कभी निरूपा राय ने मना कर दिया तो कभी सुलोचना ने. अचला सचदेव और दुर्गाखोटे बहुत बूढ़ी हो चुकी थीं. ललिता पवार चुड़ैल सास किस्म के किरदार करने में मसरूफ़ थीं. ऐसे प्रोड्यूसर्स-डायरेक्टर्स के लिए उर्मिला भट्ट एक वरदान बन कर आयीं. इससे पहले वो गुजराती थिएटर और नृत्य से जुड़ी थीं. संगीत कला अकादमी, राजकोट में लोक नृत्य करती और गायन भी करती थीं. उनके एक नाटक ‘जोसाई तोरम राम’ ने हज़ार से ऊपर परफॉरमेंस दिए. लगभग 75 गुजराती और राजस्थानी फिल्मों में भी काम किया. राज्य सरकारों द्वारा कई बार सम्मानित की गयीं. बीआर चोपड़ा की ‘हमराज़’ से उन्होंने हिंदी सिनेमा में पदार्पण किया और शीघ्र ही हर चौथी-पांचवीं फिल्म में वो कभी माँ तो कभी सास के किरदार में दिखने लगीं. रोल भले छोटे थे मगर वो संतुष्ट रहीं. गौरी, संघर्ष, अखियों के झरोखों से, गीत गाता चल, बेशर्म, राम तेरी गंगा मैली, बालिका बधु, धुंध, प्रोफेसर की पड़ोसन, घर हो तो ऐसा, थोड़ी सी बेवफ़ाई, तोहफा, निकाह, दि बर्निंग ट्रेन, राम-बलराम आदि करीब 125 फिल्मों में छोटे बड़े किरदार किये. दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, जीतेंद्र तमाम पॉपुलर नायकों के साथ काम किया. कमलेश्वर जी की कहानी पर आधारित ‘फिर भी’ में उन्होंने जानदार परफॉर्मन्स दी थी.
22 फरवरी 1997 की सुबह उर्मिला भट्ट की नौकरानी ने उनके एक रिश्तेदार को फोन किया किया कि मैडम दरवाज़ा नहीं खोल रही हैं. उनके रिश्तेदार ने मुंबई में होटल का कारोबार करने वाली उनकी बेटी-दामाद को फ़ोन किया. सब फ़ौरन वहां पहुंचे. दरवाज़ा तोड़ा गया तो देखा, 63 वर्षीया उर्मिला ज़मीन पर लहू-लुहान गिरी पड़ी हैं. अलमीरा टूटी पड़ी थी, सारा घर अस्त-व्यस्त था. ऐसा लगता था जैसे किसी ने लूट के इरादे से उनकी हत्या की है. पिछला दरवाज़ा टूटा हुआ था. पुलिस ने अंदाज़ा लगाया कि इसी दरवाज़े से हत्यारे अंदर आये होंगे. उनके शरीर पर चाकू से कई वार किये गए. वो उस फ्लैट में अकेली रहती थीं. पति बड़ोदा अकादमी ऑफ़ परफार्मिंग आर्ट्स में डीन थे. उनकी बेटी ने बताया कि उनकी मां आसानी से किसी को घर में घुसने नहीं देती थीं. एकाकी थीं. 1981 में उर्मिला के कहने से उनके कई मित्रों ने एक फाइनांस कम्पनी में पैसा लगाया था लेकिन उस कम्पनी के कर्ता-धर्ता पैसा लेकर चम्पत हो गए. तब उर्मिला पर भी फ्रॉड का केस चला था. उनकी हत्या को भी इससे जोड़ कर देखा गया. मगर कुछ हासिल नहीं हुआ. पुलिस कई साल तक हत्यारों को तलाशती रही. कुछ साल पहले तक तो केस सॉल्व नहीं हुआ था. इधर की स्थिति मालूम नहीं है. लेकिन इतना निश्चित है कि उनकी हत्या आज भी रहस्य बनी हुई है, अनसुलझी है. बड़े बड़े महानगरों में फ्लैट्स लेकर अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों के साथ ऐसा खतरा हमेशा बना रहता हैं. कब किसी के साथ क्या हो जाए, पता ही नहीं चलता. उस दौर का मीडिया अगर आज के दौर की तरह इंवेस्टिगेटिंग रहा होता तो ये केस कब को सॉल्व होकर क्लोज़ हो चुका होता.