– वीर विनोद छाबड़ा- ग्यारह साल की रही होगी क़मर सुल्ताना जब उनने मधुबाला को ‘बादल’ (1951) में तलवार बाज़ी करते हुए देखा और वो उन्हें दिलो-जान से चाहने लगीं. हाथ में एक छड़ी लेकर उनकी तरह तलवार बाज़ी करने लगीं. उधर से डायरेक्टर लेखराज भाखड़ी गुज़रे. वो इस लड़की के जज़्बे से बहुत प्रभावित हुए और उसे अपनी अंडर प्रोडक्शन ‘ठोकर’ (1953) में शम्मी कपूर के अपोज़िट वैम्प का छोटा सा किरदार दे दिया. इसकी हीरोइन थीं श्यामा. भाखड़ी ने क़मर सुल्ताना को नया स्क्रीन नेम दिया – जैजैवंती. मगर न फिल्म चली, मगर जैजैवंती निगाहों में चढ़ गयी. विजय भट्ट ने उन्हें भारत भूषण के अपोज़िट ‘चैतन्य महाप्रभु(1954) में उन्हें हीरोइन बना दिया. उन्होंने क़मर को नया नाम दिया – अमिता. लेकिन ये मूवी फ्लॉप हो गयी. मगर अमिता नहीं. अमर कीर्तन, बादल और बिजली, बाग़ी सरदार, इंद्रसभा जैसी आधा दर्जन फ़िल्में आयीं और बिना प्रभाव छोड़े चली गयीं. अमिता उदास हो गयी. लेकिन तभी उनके जीवन में एक नया और उत्साहवर्धक मोड़ आया. उन्हें अपनी फेवरिट मधुबाला के साथ ‘शीरीं फ़रहाद’ (1956) में बतौर सेकंड लीड काम करने का मौका मिला. इसमें उनके किरदार का नाम शमा था. यही वो मूवी था जिसका गाना बड़ा मशहूर हुआ था – गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा…
1957 फिल्मिस्तान के एस मुखर्जी के लिए नासिर हुसैन ने ‘तुमसा नहीं देखा’ में शम्मी कपूर के अपोज़िट कास्ट किया. शुरू में इसके हीरो देवानंद थे. लेकिन बात नहीं बनी तो शम्मी कपूर ने जगह ले ली. बहरहाल, सुपर डुपर हिट हुई फिल्म. ओपी नैय्यर के म्यूज़िक और मजरूह के गानों ने धूम मचा दी. तक़रीबन हर गाने में अमिता दिखाई दी… यूं तो हमने लाख हंसीं देखे हैं तुमसा नहीं देखा… आये हैं दूर से मिलने हुज़ूर से, चुप न रहिये कुछ तो कहिये, दिन है के रात है…सर पे टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल ओ तेरा क्या कहना…देखो क़सम देखो क़सम से कहते हैं तुमसे हाँ तुम भी जलोगे हाथ मलोगे रूठ के हमसे हाँ…इसके बाद 1959 में विजय भट्ट ने उन्हें नवोदित राजेंद्र कुमार के अपोज़िट ‘गूँज उठी शहनाई’ में कास्ट किया. इसमें पहले आशा पारेख के नाम पर विचार किया गया था. लेकिन उन्हें किरदार के अनुरूप मैच्योर नहीं पाते हुए अमिता का चांस मिल गया. भरत व्यास के गीत और वसंत देसाई का संगीत बहुत मशहूर हुआ. अमिता पर फिल्माए ये गाने तो बहुत ही पसंद किये गए… दिल का खिलौना हाय टूट गया… तेरे सुर और मेरे गीत…जीवन में पीया तेरा साथ रहे… मगर त्रासदी देखिये कि ‘तुमसा…’ और ‘गूँज…’ के हीरो तो चल निकले और बरसों सिल्वर स्क्रीन पर छाए रहे लेकिन इनकी हीरोइन अमिता वहीं की वहीं ही रह गयी, बल्कि और नीचे चली गयी. उन्हें बाद में करैक्टर रोल्स पर तसल्ली करनी पड़ी. अशोक कुमार-वहीदा-प्रदीप कुमार की ‘राखी’ (1962) में उन्हें अशोक कुमार की पत्नी का एक छोटा सा महत्वहीन किरदार मिला. राजेंद्र कुमार-साधना की ‘मेरे महबूब’ (1963) में उन्हें फिर नसीम आरा का एक छोटा सा निगेटिव दिखने वाला किरदार मिला जो हीरो से एकतरफा प्यार करती हैं. लेकिन अमिता ने जान डाल दी इसमें. फिल्मफेयर अवार्ड कमेटी में उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट किया. मगर बाज़ी मार ले गयीं, ‘गुमराह’ की शशिकला.
यहाँ से अमिता के कैरीयर ने फिर एक मोड़ लिया. अब वो बी ग्रेड की फिल्मों में दिखने लगीं. ‘हम सब उस्ताद हैं’ में किशोर कुमार और फिर ‘नमस्ते जी’ में महमूद की नायिका के रोल में दिखीं. दर्शकों द्वारा पसंद तो की गयीं. मगर इसके बावजूद कैरीयर में ठहराव नहीं आया. रिश्ते-नाते और आसरा (1966) में वो निगेटिव किरदार में दिखीं. बल्कि आगे और गिरावट आयी. ‘अराउंड दि वर्ल्ड’ (1967) और हसीना मान जायेगी (1968) में वो राजश्री और बबिता की सहायिका बनी दिखीं. हसीना…में वो जॉनी वॉकर की पंजाबन महबूबा थीं. इसके बाद वो शादी करके फिल्म इंडस्ट्री से गायब हो गयीं. कुछ साल बाद फिर नज़र आयीं जब उनकी बेटी सबीहा ने फिल्मों में डेब्यू किया. लेकिन वो भी ज़्यादा चल नहीं सकीं. 11 अप्रेल 2024 को क़मर सुल्ताना उर्फ़ अमिता 85 साल की हो गयी हैं. कहाँ हैं? ठीक ठीक मालूम नहीं. सुना है स्वस्थ हैं. फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा कोई मित्र ही उनके बारे में ठीक ठीक ही बता सकता है.
