स्मृति शेष। सी. एफ़. एंड्रयूज मिशनरी, शिक्षक और समाज सुधारक थे। महात्मा गाँधी के करीबी मित्रों में सी. एफ़. एंड्रयूज भी थे। वह गाँधीजी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भी उनके साथ बराबर रहे। नागरिकों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करने व गाँधीजी को अफ्रीका से लौटकर भारत आकर आंदोलन करने के लिए भी सी. एफ़. एंड्रयूज ने ही मनाया था। शायद वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो गांधीजी को ‘मोहन’ कहकर संबोधित करते थे।
सी. एफ़. एंड्रयूज ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव-सेवा को अर्पित किया। उन्होंने ब्रिटिश नागरिक होते हुए भी जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के लिए ब्रिटिश सरकार को दोषी ठहराया और जरनल ओ डायर के कुकृत्य को “जानबूझ कर किया गया जघन्य हत्याकांड” बताया। सी. एफ़. एंड्रयूज भारतीय स्वाधीनता संग्राम के बारे में समय-समय पर ‘मैंचेस्टर गार्जियन’, ‘द हिन्दू’, ‘माडर्न रिव्यू’, ‘द नैटाल आबजर्वर’ और ‘द टोरोन्टो स्टार’ में लगातार आलेख लिखते रहे।
सी. एफ़. एंड्रयूज का जन्म 12 फ़रवरी, 1871 को , न्यूकैसल,इंग्लैंड में हुआ था। 1893 में उन्होंने पैमब्रोक कॉलेज, कैम्ब्रिज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 1897 में इंग्लैंड के चर्च मंत्रालय में कम करने लगे। बाद में उन्होंने पैमब्रोक कॉलेज के पादरी और व्याख्याता के रूप में काम किया। 1903 में उन्हें दिल्ली में कैम्ब्रिज ब्रदरहुड के सदस्य के रूप में धर्म के प्रचार के लिए सोसायटी द्वारा नियुक्त किया गया। मार्च 1904 में एंड्रयूज सेंट स्टीफन कॉलेज में शिक्षण का कार्यभार ग्रहण करने के लिए भारत आ गये।
भारत में एंड्रयूज और गोपाल कृष्ण गोखले दोस्त बन गए और यहाँ गोखले ने पहली बार अनुबंधित श्रम की प्रणाली की खामियों और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के कष्टों के साथ एंड्रयूज को परिचित कराया। एंड्रयूज ने महात्मा गांधी और उनके अहिंसक प्रतिरोध आंदोलन या सत्याग्रह में सहायता के लिए 1913 के अंत में दक्षिण अफ्रीका जाने का फैसला किया। डरबन में महात्मा गाँधी के आगमन पर एंड्रयूज की मुलाकात गाँधीजी से हुई और एंड्रयूज ने झुककर गाँधीजी के पाँव छुए। इस मुलाकात के बारे में सी. एफ़. एंड्रयूज ने लिखा- “इस पहले पल की मुलाकात में हमारे दिलों ने एक दूसरे को देखा और और वो कभी न टूटने वाले प्यार के मजबूत संबंधों से एकजुट हो गये”।
भारत आने के बाद सी. एफ़. एंड्रयूज महात्मा गाँधी, बी. आर. अम्बेडकर, दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, टी. वी. सप्रू तथा रबींद्रनाथ टैगोर आदि के निकट मित्र बने गए थे। समय के साथ-साथ वह पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति में रंग गये थे। अपना परिचय वह एक विदेशी के रूप में नहीं, एक भारतीय के रूप में देते थे। उन्होंने अपने पूरे अंतर्मन से स्वाधीनता संग्राम में भारत का साथ दिया और ब्रिटिश सरकार में अन्यायपूर्ण जातीय राजनीतिकरण की कड़े शब्दों में निंदा की।
दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी नागरिक अधिकारों का उल्लंघन, नस्लीय भेदभाव और पुलिस कानून के खिलाफ विरोध व्यक्त करने के लिए भारतीय समुदाय को संगठित करने और ‘नेटाल इंडियन कांग्रेस’ स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। सी. एफ़. एंड्रयूज ने नटाल में एक आश्रम को संगठित करने और गाँधीजी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘द इंडियन ओपीनियन’ प्रकाशित करने में गांधीजी की मदद की।
रबींद्रनाथ टैगोर भी सी. एफ़. एंड्रयूज के मित्रों में थे। सी. एफ़. एंड्रयूज सामाजिक सुधारों के प्रति रबींद्रनाथ टैगोर की गहरी चिंता के प्रति आकर्षित थे। अंततः एंड्रयूज ने कलकत्ता (कोलकाता) के निकट टैगोर के प्रयोगात्मक स्कूल शांति निकेतन को ही अपना मुख्यालय बनाया। एंड्रयूज ने ईसाइयों और हिंदुओं के बीच संवाद विकसित किया। उन्होंने ‘बहिष्कृत की अस्पृश्यता’ पर प्रतिबंध लगाने के आंदोलन का समर्थन किया। 1925 में वह प्रसिद्ध वायकोम सत्याग्रह में शामिल हो गए और 1933 में दलितों की मांगों को तैयार करने में बी. आर. अम्बेडकर की सहायता की।
सी. एफ़. एंड्रयूज, रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ दक्षिण भारत के आध्यात्मिक गुरु नारायण गुरु से मिले। इसके बाद उन्होंने रोमेन रोल्लैंड (फ्रेंच नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार) को लिखा ‘मैने ईसा मसीह को एक हिन्दू सन्यासी की पोशाक में अरब सागर के तट पर चलते हुए देखा है। सी. एफ़. एंड्रयूज ने इंग्लैंड के चर्च को कभी छोड़ा नहीं था, परंतु उन्होने कैम्ब्रिज मिशन के ब्रदरहुड से इस्तीफा दे दिया था।
जुलाई 1914 में दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के बाद सी. एफ़. एंड्रयूज ने ज्यादातर भारतीय मजदूरों का प्रतिनिधित्व करते हुए फ़िजी, जापान, केन्या और सीलोन (श्रीलंका) सहित कई देशों की यात्रा की। 1920 से वह ‘आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ के साथ जुड़ गये और 1925 में उसके अध्यक्ष भी बने। 1930 के प्रारंभ में सी. एफ़. एंड्रयूज ने लंदन में गोलमेज सम्मेलन की तैयारियों में गांधीजी की सहायता की। स्वयं को भारतीय नेताओं और ब्रिटिश सरकार के बीच सुलह मंत्री के रूप में पेश करने का अनूठा विचार एंड्रयूज का ही था। सी. एफ़. एंड्रयूज ने भारतीय राजनीतिक आकांक्षाओं का समर्थन किया और इन भावनाओं को व्यक्त करते हुए 1906 में सिविल और सैन्य राजपत्र में एक पत्र भी लिखा था।
वह जल्द ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में शामिल हो गये और उन्होंने मद्रास में 1913 में कपास श्रमिकों की हड़ताल को हल करने में मदद की। ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सी. एफ़. एंड्रयूज के योगदान को देखते हुए सेंट स्टीफन कॉलेज के उनके छात्रों और गाँधीजी ने उन्हें ‘दीनबन्धु’ की उपाधि दी। सी. एफ़. एंड्रयूज की कलकत्ता यात्रा के दौरान 5 अप्रैल, 1940 को मृत्यु हो गई। लोअर सर्कुलर रोड, कलकत्ता के ‘ईसाई कब्रिस्तान’ में उन्हें दफ़नाया गया था।एजेन्सी।