डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को”आधुनिक भारत के विश्वकर्मा” के रूप में बड़े सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। अपने समय के बहुत बड़े इंजीनियर, वैज्ञानिक और निर्माता के रूप में देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को भारत ही नहीं वरन् विश्व की महान् प्रतिभाओं में गिना जाता है।ईंट, पत्थर, लोहे और सीमेंट की इमारत बनाने वाला कोई इंजीनियर एक शिल्पकार ही माना जाता है। पर, उसकी इंजीनियरिंग में विशिष्ट तकनीकी कौशल के साथ-साथ सामाजिक सरोकार भी जुड़ जाएं तो वह महान बन जाता है। गुलामी के दौर में अपनी प्रतिभा से भारत के विकास में योगदान देने वाले सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया एक ऐसे ही युगद्रष्टा इंजीनियर थे।हर साल 15 सितंबर को उनकी याद में ही इंजीनियर दिवस मनाया जाता है। 1883 में इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करने वाले मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का पसंदीदा विषय सिविल इंजीनियरिंग था। कॅरियर के आरंभिक दौर में ही मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने कोल्हापुर, बेलगाम, धारवाड़, बीजापुर, अहमदाबाद एवं पूना समेत कई शहरों में जल आपूर्ति परियोजनाओं पर खूब काम किया था।सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया एक कुशल प्रशासक भी थे। 1909 में उन्हें मैसूर राज्य का मुख्य अभियंता नियुक्त किया गया। इसके साथ ही वह रेलवे सचिव भी थे। कृष्णराज सागर बांध के निर्माण के कारण मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का नाम पूरे विश्व में सबसे अधिक चर्चा में रहा था। इसका निर्माण स्वतंत्रता से करीब चालीस वर्ष पहले हुआ था। आज कृष्णराज सागर बांध से निकली 45 किलोमीटर लंबी विश्वेश्वरैया नहर एवं इस बांध से निकली अन्य नहरों से कर्नाटक के रामनगरम और कनकपुरा के अलावा मंड्या, मालवली, नागमंडला, कुनिगल और चंद्रपटना तहसीलों की करीब 1.25 लाख एकड़ भूमि में सिंचाई होती है। विद्युत उत्पादन के साथ ही मैसूर एवं बंगलूरू जैसे शहरों को पेयजल आपूर्ति करने वाला कृष्णराज सागर बांध सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के तकनीकी कौशल और प्रशासनिक योजना की सफलता की कहानी कहता है।
उस समय तक विशाल बांधों जैसी संरचनाओं के सिद्धांतों को व्यापक तौर पर समझा नहीं गया था। इसलिए कृष्णराज सागर बांध के निर्माण को लेकर उनकी सबसे अधिक चिंता हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग के तत्कालीन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए कावेरी नदी के पानी को रोकने की थी। विश्वेश्वरैया के लिए प्रमुख चुनौती सीमेंट के बिना बांध निर्माण करना था क्योंकि तब देश में सीमेंट निर्माण आरंभिक अवस्था में था और इसे बेहद महंगी कीमत पर आयात करना पड़ता था। लेकिन उन्होंने इस समस्या का भी समाधान खोज निकाला।
जलाशय में पानी को नियंत्रित करने के लिए सर मोक्षगुंडम ने विशेष तकनीक का प्रयोग किया। उन्होंने बांध की दीवार के दूसरी तरफ कुएं रुपी विशेष प्रकार की गोलाकार संरचनाओं को बनाया, इनसे स्वचालित दरवाजों को जोड़ा। इन दरवाजों को बांध की दीवार के अंदर स्थापित किया गया था। बांध में उपयोग किए गए 171 दरवाजों में से 48 स्वचालित दरवाजे हैं, जिन्हें सर मोक्षगुंडम द्वारा विकसित किया गया था। सभी 48 स्वचालित दरवाजे ढलवां लोहा से बने थे, जिसका निर्माण भद्रावती स्थित मैसूर लौह एवं इस्पात कारखाने में किया गया। आश्चर्य की बात यह है कि प्रत्येक दरवाजे पर दस टन का भार होने के बाद भी ये स्वतः ऊपर-नीचे खुलते-बंद होते थे।
जब जलाशय में जल अधिकतम स्तर पर होता था तो पानी कुएं में गिरता था, जिससे कुएं में स्थित डोंगा यानी फ्लोट ऊपर उठता था और बैलेंस भार नीचे गिरता जाता था। इससे सभी दरवाजे ऊपर उठ जाते थे। इस प्रकार अतिरिक्त पानी बांध से निकलने लगता था। जब जलाशय का स्तर कम होता था तो कुंए खाली हो जाते थे। जिससे बैलेंस भार फिर से ऊपर उठ जाता था और दरवाजे फिर से बंद हो जाते, जिससे पानी का बहाव रुक जाता था। पूरे विश्व में पहली बार ऐसी तकनीक का उपयोग किया गया था। बाद में उनकी इस तकनीक को यूरोप सहित विश्व के अन्य देशों ने भी अपनाया।
बांध निर्माण के साथ-साथ औद्योगिक विकास में भी विश्वेश्वरैया का योगदान कम नहीं है। कावेरी पर बांध निर्माण के साथ ही उस क्षेत्र में मिलों एवं कारखानों को स्थापित किया जा रहा था। विद्युत आने से नई मशीनों से तेजी से काम हो रहा था। सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया औद्योगिक विकास के समर्थक थे। वह उन शुरुआती लोगों में से एक थे, जिन्होंने बंगलौर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में धातुकर्म विभाग, वैमानिकी, औद्योगिक दहन एवं इंजीनियरिंग जैसे अनेक नए विभागों को आरंभ करने का स्वप्न देखा था।
विश्वेश्वरैया मैसूर राज्य में व्याप्त अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि आधारभूत समस्याओं को लेकर भी चिंतित थे। कारखानों की कमी, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण विकास नहीं हो पा रहा था। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने काफी प्रयास किए। सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की दूरदर्शिता के कारण मैसूर में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया और लड़कियों की शिक्षा के लिए पहल की गई। समाज के संपूर्ण विकास के उनके कार्यों के कारण ही उन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहा जाता है।
जब उन्होंने नौकरी छोड़ी तब उनकी आयु 58 वर्ष से अधिक थी। कोई और व्यक्ति होता तो लम्बी व सार्थक नौकरी के बाद अपने अवकाश पर आनन्द उठाता, पर विश्वेश्वरैया ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने ‘भारत का पुनर्निर्माण’ (1920), ‘भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था’ (1934) नामक पुस्तकें लिखीं और भारत के आर्थिक विकास का मार्गदर्शन किया।
अपनी शताब्दी पूरी करने के बाद भी यह महान् व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ था। वह सुबह-शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबन्द रहे और उनमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थे। जब उन्हें 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा, ‘अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूँगा, तो आपको निराशा ही होगी। मैं सत्य की तह तक पहुँचने वाला व्यक्ति हूँ।’ 102 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहे। उन्होंने कहा, “जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।”