पुण्य तिथि पर विशेष
संजोग वॉल्टर। स्वप्निल संसार। तस्वीर बनाता हूँ मगर तस्वीर नहीं बनती… कानों में गिरती है जब रेशमी, शीतल, शहद-सी आवाज की कोमल बूँद, तब सचमुच हम नहीं बना पाते उस शख्सियत की संपूर्ण तस्वीर जो उस आवाज का मालिक था। लरजती, सलोनी, मखमली आवाज के जादूगर तलत महमूद हमारे बीच में नहीं हैं, कहीं नहीं हैं, किंतु उनके सैकड़ों रसीले-नशीले नगमे फिजाँ में आज भी घुलकर संगीतप्रेमियों को मदहोश कर रहे हैं। एक अनजाना-सा मीठा दर्द दिल के गुलाबी कोने में उठता है और ठहर जाता है। एक सुरीली उद्दाम लहर बहा ले जाती है हमें ऐसे मुकाम पर जहाँ खामोश सूर्य समुद्र में समाधि ले रहा है और किनारों पर स्तब्धता छाई है। सांध्यपाखी लौट रहे हैं और अनगिनत मयूरपंखी स्मृतियाँ मन-आँगन में दस्तक दे रही हैं। यह वह अहसास है, जो तलत को गहराई से सुनने पर किसी भी संवेदनशील मन में उमड़ सकते हैं। भारतीय फिल्मोद्योग की अनंत रत्नराशियों का सबसे अनूठा और दमकता पुखराज थे-तलत महमूद। सुरों में गहनता, व्यक्तित्व में पवित्रता और व्यवहार में सहजता तलत की नाजुक परिभाषा है।
लखनऊ के खानदानी मुस्लिम परिवार में 24 फरवरी 1924 को गजल सम्राट तलत महमूद का जन्म हुआ। तीन बहन और दो भाइयों के बाद वे छठी संतान थे। घर में संगीत और कला का सुसंस्कृत परिवेश मिला। बुआ प्रोत्साहन पाकर गायन के प्रति आकर्षित होने लगे। इसी रुझान के चलते मोरिस संगीत विद्यालय (वर्तमान में भातखंडे संगीत विद्यालय) में दाखिला लिया। यहाँ तलत सैद्धांतिक विषयों में तो पिछड़ गए लेकिन प्रायोगिक विषयों में सबको पछाड़ दिया। 16 वर्ष की उम्र में आकाशवाणी लखनऊ पर मौका मिला। उसी दौरान ‘एचएमवी’ के अधिकारी नई आवाज की तलाश में आए और तलत के चर्चे सुन घर जा पहुँचे। मात्र छः रुपए की राशि पर उनका पहला गाना रिकॉर्ड हुआ। इस रिकॉर्ड की रिकॉर्ड तोड़ बिक्री हुई। दूसरे वर्ष चार गानों के एक और रिकॉर्ड से तलत की किस्मत चमक गई। यह वह दौर था जब सुरीले गायन और आकर्षक व्यक्तित्व वाले युवा हीरो बनने के ख्वाब सँजोया करते थे। बतौर नायक तलत ने भी कोलकाता से फिल्म करियर शुरू किया और लगभग 16 फिल्मों में अभिनय किया। जब लगा कि नायक की छवि में सच्चे गायक की प्रतिभा छटपटा रही है तब सिर्फ गायन को ही ध्येय बनाया। वास्तव में कैमरे के सामने तलत तनाव में आ जाते थे जबकि गायन में सहज महसूस करते थे। कोलकाता में बनी फिल्म स्वयंसिद्धा (1945) में पहली बार उन्होंने पार्श्वगायन किया। मुंबई में प्रदर्शित फिल्म ‘राखी’ (1949), ‘अनमोल रतन (1950) और ‘आरजू’ (1950) से उनके करियर को विशेष चमक मिली। फिल्म ‘आरजू’ की गजल ‘ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो…’ ने अपार लोकप्रियता अर्जित की। यहीं से तलत और दिलीपकुमार का अनूठा संयोग बना जो कई फिल्मों में दोहराया गया।
गजल गायकी को तलत ने सम्माननीय ऊँचाई प्रदान की। हमेशा उत्कृष्ट शब्दावली की गजलें ही चयनित कीं। सस्ते बोलों वाले गीतों से उन्हें हमेशा परहेज रहा। यहाँ तक कि गीतकार-संगीतकार उन्हें रचना देने से पहले इस बात को लेकर आशंकित रहते थे कि तलत उसे पसंद करेंगे या नहीं। गजल के आधुनिक स्वरूप से वे काफी निराश थे। विशेषकर बीच में सुनाए जाने वाले चुटकुलों पर उन्हें सख्त एतराज था। बकौल तलत, ‘गजल प्रेम का गीत होती है हम उसे बाजारू क्यों बना रहे हैं। उसकी पवित्रता को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।’ मदनमोहन, अनिल बिस्वास और खय्याम की धुनों पर सजे उनके तराने बरबस ही दिल मोह लेते हैं। मुश्किल से मुश्किल बंदिशों को सूक्ष्मता से तराश कर पेश करना उनकी खासियत थी। 9 मई 1988 को गहरी मीठी आवाज के धनी महमूद चल बसे और फिजाँ में बजता रहा यह गीत-ऐ मेरे दिल कहीं और चल गम की दुनिया से दिल भर गया…।
तलत महमूद के लोकप्रिय नगमें
ुजाएँ तो जाएँ कहाँ… (टैक्सी ड्राइवर) ुसब कुछ लुटा के होश…. (एक साल) ुफिर वही शाम, वही गम… (जहाँआरा) ुमेरा करार ले जा… (आशियाना) ुशामे गम की कसम… (फुटपाथ) ुहमसे आया न गया … (देख कबीरा रोया) ुप्यार पर बस तो नहीं… (सोने की चिडिया) ुजिंदगी देने वाले सुन… (दिल-ए-नादान) ुअंधे जहान के अंधे रास्ते… (पतिता) ुइतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा… (छाया) ुआहा रिमझिम के ये… (उसने कहा था) ुदिले नादाँ तुझे हुआ क्या है… (मिर्जा गालिब) ……(स्मृति जोशी)