जयंती पर विशेष-डा. फादर कामिल बुल्के (Dr. Father Kamil Bulcke) मृत्यु पर्यंत हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे । उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र मे भारत सरकार द्वारा 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
जन्म: 1 सितंबर 1909, बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले गांव में.
शिक्षा: यूरोप के यूवेन विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग पास की. 1930 में सन्यासी बनने का निर्णय लिया.
भारत: नवंबर 1935 में भारत, बंबई पहुंचे। वहां से रांची आ गए। गुमला जिले के इग्नासियुस स्कूल में गणित के अध्यापक बने। वहीं पर हिंदी, ब्रज व अवधी सीखी. 1939 में, सीतागढ/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखा। 1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। 1941 में पुरोहिताभिषेक हुआ, फादर बन गए. 1945 कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी व संस्कृत में बीए पास किया। 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया।
रामकथा: 1949 में डी. फिल उपाधि के लिये इलाहाबाद में ही उनके शोध रामकथा : उत्पत्ति और विकास को स्वीकृति मिली. 1950 में पुनः रांची आ गए। संत जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया।
1950 में ही बुल्के ने भारत की नागरिकता ग्रहण की. इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुये. 1972 से 1977 तक भारत सरकार की केन्द्रीय हिन्दी समिति के सदस्य बने रहे. 1973 में उन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया.
देहान्त : 17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान मृत्यु
वक्तब्य: – भारतीय संदर्भ में बुल्के कहते थे ‘संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है.’
1949 में रामकथा : उत्पत्ति और विकास,1955 में हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश,1968 में अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश,
1972 में मुक्तिदाता,1977 में नया विधान, 1978 में नीलपक्षी, बाइबिल का हिंदी अनुवाद.
पेशे से इंजीनियर रहे डा. फादर कामिल बुल्के का वह ब्योरेवार तार्किक वैज्ञानिकता पर आधारित शोध संकलन साबित करता है कि राम वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं, इतिहास पुरूष थे. तिथियों में थोडी बहुत चूक हो सकती है. डा. फादर कामिल बुल्के के इस शोधग्रंथ के उर्द्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतर्राष्ट्रीय कथा है. वियतनाम से इंडोनेशिया तक यह कथा फैली हुई है. इसी प्रसंग में फादर बुल्के अपने एक मित्र हॉलैन्ड के डाक्टर होयकास का हवाला देते थे. डा होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे. एक दिन वह केंद्रीय इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे. उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान है, इंडोनेशियाई रामायण पढ रहे थे.
डा होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं. उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- ’और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये!‘ रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय!
17 अगस्त 1982 को हिन्दी के अंतर्राष्ट्रीय आधार स्तंभ फादर कामिल बुल्के के देहांत के पश्चात प्रख्यात विद्वान (अब स्वर्गीय) शंकर दयाल सिंह ने कहा था, जब कभी अब हिन्दी के बारे में कोई संयत विचार होगा,चाहे वह विश्व हिन्दी सम्मेलन के मंच पर हो या केन्द्रीय समिति की बैठक में अथवा किसी विश्वविद्यालय में या कि किसी सभा-समिति में, रह-रहकर सभी को बस एक चेहरा याद आयेगा -फादर कामिल बुल्के का . -फादर कामिल बुल्के के लिये उद्गार में कहे गये तब के ये शब्द आज समूचे हिन्दी जगत पर करारा वयंग्य करते हुये से प्रतीत होते हैं. हिन्दी को इसका उचित सम्मान देने, दिलाने की हमारी प्रतिबद्धता अंग्रेजी रूपी पश्चिमी हवा के झोंकें में विलीन हो चुकी है. ऐसे में -फादर कामिल बुल्के की प्रासंगिकता को गंभीरता से महसूस किये जाने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है.
दरअसल एक विदेशी होने के बावजूद -फादर कामिल बुल्के ने हिन्दी की सम्मान वृद्धि,इसके विकास,प्रचार-प्रसार और शोध के लिये गहन कार्य कर हिन्दी के उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया,और हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने की जो कोशिशें कीं,वह हम भारतीयों के लिये प्रेरणा के साथ-साथ शर्म का विषय भी है. शर्म का विषय इसलिये क्योंकि एक विदेशी होने के बावजूद हिन्दी के लिये उन्होंने जो किया,हम एक भारतीय और एक हिन्दी भाषी होने के बावजूद उसका कुछ अंश भी नहीं कर पाये. इस शर्म को मिटाने के लिये हमारी ओर से और अधिक दृढ-प्रतिज्ञ और एकनिष्ठ होकर हिन्दी हित में कार्य किये जाने की जरूरत थी जो कि वर्तमान माहौल में फिलहाल संभव नहीं हो पा रहा है. हिन्दी जगत के लिये यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. इससे उबरकर हिन्दी के उत्थान के लिये हमें -फादर कामिल बुल्के के पद-चिन्हों पर चलने की जरूरत होगी. एजेंसी