जयंती पर विशेष
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थे। उनका जन्म हुगली जिले के देवानंदपुर में हुआ। वे अपने माता-पिता की नौ संतानों में से एक थे। अठारह साल की अवस्था में उन्होंने इंट्रेंस पास किया। इन्हीं दिनों उन्होंने “बासा” (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई। रवींद्रनाथ ठाकुर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। शरतचन्द्र ललित कला के छात्र थे लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वह इस विषय की पढ़ाई नहीं कर सके। रोजगार के तलाश में शरतचन्द्र बर्मा गए और लोक निर्माण विभाग में क्लर्क के रूप में काम किया। कुछ समय बर्मा रहकर कलकत्ता लौटने के बाद उन्होंने गंभीरता के साथ लेखन शुरू कर दिया। बर्मा से लौटने के बाद उन्होंने अपना प्रसिद्ध उपन्यास श्रीकांत लिखना शुरू किया।
प्रारंभिक जीवन:
जन्म 1876 के 15 सितंबर को हुगली जिले के एक छोटे से गाँव देवानंदपुर में हुआ। वे अपने माता पिता की नौ संतानों में एक थे। घर में बच्चों का ठीक-ठीक शासन नहीं हो पाता था। जब शरत भागने लायक उम्र के हुए तो जब तक पढ़ाई लिखाई छोड़कर भाग निकलते। इसपर कोई विशेष शोर नहीं मचता था, पर जब वह लौटकर आते तो उनपर मर पड़ती थी। रवींद्रनाथ का प्रभाव उनपर बहुत अधिक पड़ा पर बंकिमचंद्र का प्रभाव भी कम नहीं था। उनकी कालेज की पढ़ाई बीच में ही रह गई। वह तीस रुपए मासिक के क्लार्क होकर बर्मा पहुँच गए। इन दिनों उनका संपर्क बंगचंद्र से हुआ जो था तो बड़ा विद्वान् पर शराबी और उछंखल था। यहीं से चरित्रहीन का बीज पड़ा, जिसमें मेस जीवन के वर्णन के साथ मेस की नौकरानी से प्रेम की कहानी है।
पांच वर्ष की उम्र में ही देवानंदपुर के प्यारी पंडित की पाठशाला में दाखिल कराया। भागलपुर में शरतचन्द्र का ननिहाल था। नाना केदारनाथ गांगुली का आदमपुर में अपना मकान था और उनके परिवार की गिनती खाते पीते परिवार सभ्रांत बंगाली परिवार के रूप में होती थी, पिता मोती लाल वेफिक्र स्वभाव के थे और किसी नौकरी में टिक पाना उनके वश की बात की बात नहीं था परिणाम स्वरूप गरीबी के गर्त में चला गया और उन्हें बाल बच्चों के साथ देवानंदपुर छोड ़कर भागलपुर अपने ससुराल में रहना पड़ा। इस कारण उनका बचपन भागलपुर में गुजरा और पढ़ाई लिखाई भी यहीं हुई। गरीबी और अभाव में पलने के बावजूद शरत् दिल के आला और स्वभाव के नटखट थे। वे अपने हम उम्र मामाओं और बाल सरणाओं के साथ खूब शराराते किया करते थे। कथाशिल्पी शरत् ंके प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकांत, सत्यसाची, दुर्दान्त राम आदि के चरित्र को झांके तो उनके बचपन की शरारतें और सभी साथियों की सहज दिख जायगी।
1883 में शरत्चन्द्र का दाखिला भागलपुर दुर्गाचरण एम0ई0 स्कूल की छात्रवृति क्लास में कराया गया। नाना केदारनाथ गांगुली इस विद्यालय के मंत्री थे। अब तक उसने वोधोदय ही पढा था, लेकिन यहां पढ़ना पड़ा। सीता बनवास ‘चारू पाठ’, ‘सद्भाव सद्गुरू’ और ‘प्रकांड व्याकरण’, नाना कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे। इसलिए मामा तथा मौसियों की संख्या काफी थी। छोटे नाना अघोरनाथ गांगुली का बेटा मणिन्द्रनाथ उनका सहपाठी था। छात्रवृति की परीक्षा पास करने के बाद अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, उनकी प्रतिभा उत्तरोत्तर विकसित होती गयी।
शरत् नहीं जानते थे कि उनकी साधना पूरी हो चुकी है। जब वह एक बार बर्मा से कलकत्ता आए तो अपनी कुछ रचनाएँ कलकत्ते में एक मित्र के पास छोड़ गए। शरत् को बिना बताए उनमें से एक रचना “बड़ी दीदी” का 1907 में धारावाहिक प्रकाशन शुरु हो गया। दो एक किश्त निकलते ही लोगों में सनसनी फैल गई और वे कहने लगे कि शायद रवींद्रनाथ नाम बदलकर लिख रहे हैं। शरत् को इसकी खबर साढ़े पाँच साल बाद मिली। कुछ भी हो ख्याति तो हो ही गई, फिर भी “चरित्रहीन” के छपने में बड़ी दिक्कत हुई। भारतवर्ष के संपादक कविवर द्विजेंद्रलाल राय ने इसे यह कहकर छापने से इन्कार कर दिया किया कि यह सदाचार के विरुद्ध है।
शरत् ने अनेक उपन्यास लिखे जिनमें पंडित मोशाय, बैकुंठेर बिल, मेज दीदी, दर्पचूर्ण, श्रीकांत, अरक्षणीया, निष्कृति, मामलार फल, गृहदाह, शेष प्रश्न, दत्ता, देवदास, बाम्हन की लड़की, विप्रदास, देना पावना आदि प्रमुख हैं। बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर “पथेर दावी” उपन्यास लिखा गया। पहले यह “बंग वाणी” में धारावाहिक रूप से निकाला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया। शरत के उपन्यासों के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। कहा जाता है कि उनके पुरुष पात्रों से उनकी नायिकाएँ अधिक बलिष्ठ हैं।
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय वैसे तो स्वयं को बंकिमचंद्र चटर्जी और रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य से प्रेरित बताते थे लेकिन उनके साहित्य ने समाज के निचले तबके को पहचान दिलाई और यही नहीं उन्हें उनके इसी दुस्साहस के लिए समाज के रोष का पात्र भी बनना पड़ा. शायद यही वजह रही कि हिन्दी साहित्य के रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने उन्हें ‘आवारा मसीहा’ की संज्ञा दी. दिल्ली विश्विद्यालय में अध्यापन का कार्य करने वाले और हिन्दी साहित्य में लेखन के लिए ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित प्रभात रंजन कहते हैं, ‘‘शरतचंद्र ने अपनी रचनाओं में समाज के निचले तबके को उभारने का काम किया है, सुंदरता की जगह कुरूपता को अधिक प्रमुखता दी और इसी कारण उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक लगती हैं.’’ शरतचन्द्र की ‘देवदास’ पर तो 12 से अधिक भाषाओं में फिल्में बन चुकी हैं और सभी सफल रही हैं. उनकी ‘चरित्रहीन’ पर बना धारावाहिक भी दूरदर्शन पर सफल रहा. ‘चरित्रहीन’ को जब उन्होंने लिखा था तब उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा था क्योंकि उसमें उस समय की मान्यताओं और परंपराओं को चुनौती दी गयी थी.
गृहदाह शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय जी का 1919 में प्रकाशित उपन्यास था । ये उपन्यास कहानी है महिम ,सुरेश और अचला की । महिम एक गरीब घर का लड़का है और उसका घनिष्ट मित्र सुरेश एक धनी परिवार का है। वो महिम पर बहुत स्नेह रखता है। जब उसे पता लगता है की महिम एक ब्रह्मो समाजी लड़की से विवाह करना चाहता है तो महिम से नाराज हो जाता है और उससे इस विवाह को तोड़ने के लिए कहता है। इसी उद्देश्य से वो उस लड़की यानि अचला के घर भी जाता है ,ताकि महिम का रिश्ता तुड़वा सके लेकिन वहां जाकर कुछ ऐसी घटनायें होती हैं की सुरेश भी अचला पे मोहित हो जाता है। आगे की कहानी एक प्रेम त्रिकोण में तब्दील हो जाती है। शरत चन्द्र जी के उपन्यास अपने समाज का चित्र भी पाठकों के सामने दिखाते हैं. शरतचंद्र बाबू ने मनुष्य को अपने विपुल लेखन के माध्यम से उसकी मर्यादा सौंपी और समाज की उन तथाकथित परम्पराओं को ध्वस्त किया, जिनके अन्तर्गत नारी की आँखें अनिच्छित आँसुओं से हमेशा छलछलाई रहती हैं। शरत बाबू ने समाज द्वारा अनसुनी रह गई वंचितों की विलख-चीख और आर्तनाद को परख़ा और यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी से ही अपदस्थ किया जा रहा है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से इस षड्यन्त्र के अन्तर्गत पनप रही तथाकथित सामाजिक ‘आम सहमति’ पर रचनात्मक हस्तक्षेप किया, जिसके चलते वह लाखों करोड़ों पाठकों के चहेते शब्दकार बने। नारी और अन्य शोषित समाजों के धूसर जीवन का उन्होंने चित्रण ही नहीं किया, बल्कि उनके आम जीवन में आच्छादित इन्दधनुषी रंगों की छटा भी बिखेरी थी। शरत का प्रेम को आध्यात्मिकता तक ले जाने में विरल योगदान है। शरत-साहित्य आम आदमी के जीवन को जीवंत करने में सहायक जड़ी-बूटी सिद्ध हुआ है।
चट्टोपाध्यायजी के उपन्यास बिराज में बिराज एक स्वाभिमानी अतिसुन्दर स्त्री है जो अंत में पतिप्रेम को ही सबसे महत्व पूर्ण मानती है. इससे अधिक आनंद और समाधान हुआ बिराज के पति नीलाम्बर के शांतचित, दार्शनिक एवं स्नेहपूर्ण वृत्ति को जानकार. अपनी धर्मं पत्नी के प्रति नीलाम्बर के गहरे प्रेम और उन दोनों के बीच का अटूट रिश्ता इस संपूर्ण कहानी के दूखाद वृत्तान्त पर भारी हो गया और मेरे मन में एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ गया. बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर “पथेर दावी” उपन्यास लिखा गया। पहले यह “बंग वाणी” में धारावाहिक रूप से निकाला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया। शरत के उपन्यासों के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। कहा जाता है कि उनके पुरुष पात्रों से उनकी नायिकाएँ अधिक बलिष्ठ हैं। शरत्चंद्र की जनप्रियता उनकी कलात्मक रचना और नपे तुले शब्दों या जीवन से ओतप्रोत घटनावलियों के कारण नहीं है बल्कि उनके उपन्यासों में नारी जिस प्रकार परंपरागत बंधनों से छटपटाती दृष्टिगोचर होती है, जिस प्रकार पुरुष और स्त्री के संबंधों को एक नए आधार पर स्थापित करने के लिए पक्ष प्रस्तुत किया गया है, उसी से शरत् को जनप्रियता मिली। उनकी रचना हृदय को बहुत अधिक स्पर्श करती है। पर शरत्साहित्य में हृदय के सारे तत्व होने पर भी उसमें समाज के संघर्ष, शोषण आदि पर कम प्रकाश पड़ता है। पल्ली समाज में समाज का चित्र कुछ कुछ सामने आता है। महेश आदि कुछ कहानियों में शोषण का प्रश्न उभरकर आता है। उनके कुछ उपन्यासों पर आधारित हिन्दी फिल्में भी कई बार बनी हैं। इनके उपन्यास चरित्रहीन पर आधारित 1978 में इसी नाम से फिल्म बनी थी। उसके बाद देवदास को आधार बनाकर देवदास फ़िल्म का निर्माण तीन बार हो चुका है।
मृत्यु :
प्रसिद्ध उपन्यासकार शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की मृत्यु 16 जनवरी 1938 को हुयी थी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएँ हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती हैं। लोकप्रियता के मामले में बंकिम चंद्र चटर्जी और शरतचंद्र रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी आगे हैं। एजेंसी