बहुजन समाजपार्टी की मुखिया सुश्री मायावती गुजरात में भी अपना वोट बैंक सहेजने का प्रयास कर रही हैं। गत 6 दिसम्बर को वह अपने गृह प्रदेश इसलिए वापस आयीं क्योंकि बाबा भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर श्रद्धांजलि देना था। इससे पूर्व डा0 अंबेडकर के जन्म दिन और परिनिर्वाण दिवस पर बसपा के बड़े आयोजन हुआ करते थे। लखनऊ के अम्बेडकर पार्क में इस बार भी काफी गहमागहमी दिखी लेकिन सुश्री मायावती ने बसपा के प्रदेश कार्यालय पर बाबा साहेब को श्रद्धांजलि दी। वहां भी उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव की चर्चा की। इससे पूर्व उत्तर प्रदेश में हुए निकायों के चुनाव में बसपा को जिस तरह से सफलता मिली वह उसके लिए संजीवनी साबित हुई है और इसके साथ एक सबक भी मिला है कि अब एकला चलने का समय नहीं रह गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा को दो महापौर मिले और सहारनपुर में सिर्फ दो हजार मतों से बसपा प्रत्याशी पराजित हो जाना यही बताता है कि किसी राजनीतिक दल से यदि बसपा का समझौता हो गया होता तो बसपा के पास कम से कम चार महापौर होते। महापौर के अलावा नगर पंचायतों में भी बसपा को अच्छी सफलता मिली है। इस सफलता ने 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा की पराजय का गम कुछ हद तक तो दूर ही कर दिया है।
निकाय चुनावों के नतीजों पर मंथन करने की बजाय सुश्री मायावती गुजरात में भाजपा और कांग्रेस की गणित में उलझी हुई हैं। उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव के बहाने ईवीएम का मुद्दा उठाने का प्रयास किया तो इससे भी उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। लखनऊ में बसपा के प्रदेश कार्यालय में डा0 भीमराव अंबेडकर को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि भाजपा की नैया इस बार अपने गृह राज्य गुजरात में भी मंझधार में है। अगर वहां भी ईवीएम में गड़बड़ी करके चुनावी धांधली नहीं की गयी तो निश्चित तौर पर भाजपा को करारी हाल का सामना करना पड़ सकता है। इस प्रकार सुश्री मायावती ने जिस तरह 2017 के विधानसभा चुनाव और अभी हाल के निकाय चुनाव में ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है उसे पुख्ता रूप देने का प्रयास कर रही हैं। ईवीएम को लेकर चुनाव आयोग ने जिस तरह खुली चुनौती दी थी और अब ईवीएम के साथ वीवी पैट का प्रयोग भी होने जा रहा है इससे सुश्री मायावती के इस आरोप का जनता पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ने वाला है। इसलिए सुश्री मायावती के लिए बेहतर होगा कि ईवीएम के मामले को छोड़कर अन्य विकल्पों पर ध्यान केन्द्रित करें।इन विकल्पों में बसपा के वोट बैंक को बढ़ाना सबसे प्रमुख है। उन्होंने गुजरात को लेकर भी कहा कि वहां सर्वसमाज के लोगों में भाजपा सरकार की अहंकार और निरंकुशता के बारे में नाराजगी है। खासकर किसान वर्ग काफी परेशान है, जबकि पटेल समुदाय आरक्षण की मांग को लेकर काफी गंभीर है। इस प्रकार सुश्री मायावती ने गुजरात की 22 करोड़ जनता का दर्द तो बताया लेकिन उनकी राजनीतिक रणनीति क्या है, इस बारे में नहीं कहा। गुजरात के एक चुनाव में बसपा पर यह आरोप भी लगा था कि उसने भाजपा प्रत्याशियों के समर्थन की अपील की थी। भाजपा ने उस कैसेट को भी चुनाव प्रचार में प्रयोग किया। गुजरात में भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस है और सुश्री मायावती कांग्रेस के बारे में खामोशी अख्तियार कर लेती हैं। कांग्रेस ने गुजरात में अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी को अपने साथ जोड़कर दलित और ओवीसी वोट बैंक को एक साथ करने का प्रयास किया है और सुश्री मायावती भी इसी वोट बैंक को अपने साथ लाना चाहती हैं। दलित और पिछड़े वर्ग के नेताओं का साथ सुश्री मायावती अगर नहीं दंेगी तो इस वर्ग के मतदाता उनको समर्थन कैसे दे सकते हैं।
जातिगत समीकरण अब बदल गये हैं और सिर्फ एक ही राज्य तक नहीं सीमित रहे। यह बात अलग है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जाति-धर्म की राजनीति ज्यादा चल रही है। बसपा प्रमुख मायावती भी सर्वसमाज की बात करती हैं लेकिन उनका दलितों के प्रति झुकाव किसी से छिपा नहीं रहता। चुनाव जीतने के लिए वे नये-नये समीकरण बनाती हैं। इस तरह के समीकरण कभी-कभी उन्हें चुनावी सफलता भी दे देते हैं। उदाहरण के लिए 2007 में उन्होंने ब्राह्मण और दलितों का समीकरण बनाया। उत्तर प्रदेश की सामाजिक व्यवस्था में समाजवादी पार्टी ने जब पिछड़े वर्ग की एक जाति विशेष को महत्व देकर सरकारी पदों पर उन्हें बैठा दिया तो दलितों को सबसे ज्यादा परेशान किया गया। दलितों ने जब सवर्णों और पिछड़े वर्ग के बीच तुलना की तो उन्हें सवर्ण ब्राह्मण-दलित गठजोड़ ने उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती की पार्टी बसपा की पहली बार सरकार बनवा दी। इस समीकरण को संतुलित रखने में सुश्री मायावती सफल नहीं रह पायीं और 2012 में सपा के युवा नेता अखिलेश यादव ने बसपा से सत्ता छीन ली थी। इसी प्रकार 2017 में जब विधानसभा के चुनाव हुए तब सुश्री मायावती ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ का प्रयास किया। यह गठजोड़ विधानसभा चुनाव में तो बसपा की मदद नहीं कर पाया था लेकिन 2017 के निकाय चुनाव में उन्हें दो महापौर दिलवाने में सफल रहा। इस प्रकार बसपा प्रमुख के पास राजनीतिक अनुभव भी अब पर्याप्त हो गया है। उनकी पार्टी के कई दिग्गज नेता साथ छोड़ गये। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चैधरी और नसीमुद्दीन सिद्धकी के बसपा छोड़ने का कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन इस बात से मायूस होने की भी जरूरत नहीं है। निकाय चुनाव के नतीजे बताते हैं कि अभी बसपा के साथ जनाधार है। दो स्थानों मेरठ और अलीगढ़ में बसपा को महापौर बनवाने में सफलता मिली और सहारनपुर में उसका प्रत्याशी सिर्फ 2000 मतों से पराजित हुआ। दो अन्य महानगरों में बसपा प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहा है। इस प्रकार बसपा की पकड़ जहां ग्रामीण क्षेत्र तक थी वहीं शहरी क्षेत्र में भी उसका जनाधार बढ़ रहा है। निकाय चुनाव में मत प्रतिशत देखें तो सबसे ज्यादा भाजपा को वोट मिले लेकिन बसपा ने समाजवादी पार्टी के लगभग बराबर वोट पाये हैं और सपा, बसपा और कांग्रेस अगर मिल गयी होती तो निकाय चुनाव का नक्शा ही बदल गया होता। बसपा प्रमुख सुश्री मायावती ने गुजरात से आने के बाद डा0 अम्बेडकर को श्रद्धांजलि देते हुए इस तरह संकेत भी दिया था सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी गठबंधन के पक्ष में हैं और यूपी में कांग्रेस की जैसी हालत है निकाय चुनाव में परफार्मेंस देखते हुए उससे वह इस गठबंधन में खुशी-खुशी शामिल हो जाएगी। सुश्री मायावती को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता को नये नेता तलाशने से अब नहीं रोका जा सकता। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम सेना का उभरना कोई आश्चर्य नहीं है। गुजरात में जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर को भी इस बार के चुनाव से पहले कोई नहीं जानता था। सुश्री मायावती ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में समझौते का एक बेहतरीन अवसर गवां दिया है। इन दोनों राज्योें में उनका समझौता करने से कोई नुकसान नहीं होता बल्कि जो भी होता वह फायदा ही माना जाता। कांग्रेस ने भी बिहार में महागठबंधन के साथ समझौता करके इसी प्रकार का लाभ पाया है। इसलिए सुश्री मायावती का यह कहना तो ठीक है कि समझौते में सम्मानजनक सीटें मिलनी चाहिए लेकिन समझौते में जिद दिखाकर भी उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है। देश में लगभग पांच दशक के राजनीतिक इतिहास को देखें तो राजनीतिक पार्टी के साम्राज्य को एकजुट होकर ही समाप्त किया जा सका है। भाजपा भी कभी इसी प्रकार के साम्राज्य को तोड़ने में सिपाही की तरह लड़ी है और आज उसका देश भर में राजनीतिक साम्राज्य कायम है। बसपा और उसकी नेता सुश्री मायावती को इससे भी सबक लेना चाहिए। (हिफी)