वैशाख शुक्ल पंचमी यानि 20 अप्रैल को हिंदू धर्म की ध्वजा को देश के चारों कोनों में फहराने वाले और भगवान शिव के अवतार आदि शंकराचार्य(788 ई. -820 ई.) ने जन्म लिया।हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है।सात साल की उम्र में उन्हें वेदों का पूरा ज्ञान हो गया था और 12 वर्ष की उम्र में शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। 16 वर्ष की अवस्था में 100 से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर चुके थे। बाद में माता की आज्ञा से वैराग्य धारण कर लिया था। मात्र 32 साल की उम्र में केदाननाथ में उनकी मृत्यु हो गई। शंकराचार्य अद्वैत के महान द्रष्टा थे। अद्वैत अनुभव में किस तरह आएगा? तुम और मैं एक हैं। जीवमात्र और परमेश्वर एक हैं-यह तो एकता की सीमा हो गई। यदि हम ईश्वर के साथ अपनी एकता का दावा करते हैं, तो भूतदया यानी प्राणियों के प्रति दया भाव का विस्तार ही साधना बन जाती है। यदि मानव मात्र से प्रेम हो यानी प्रेम का विस्तार होता जाए, तो वहां अद्वैत की अनुभूति होती है। शंकराचार्य इस जगत को मिथ्या, तुच्छ समझते थे। दुनिया में किसी भी प्रकार का रस नहीं।
वे ऐसे मायावादी अद्वैती थे। फिर भी उनकी लिखी प्रश्नोत्तरावली में एक प्रश्न है-क: फली? अर्थात फलवाला कौन? किसका जीवन सफल गिना जाता है? उत्तर में लिखा है-कृषिकार का, जो खेती करता है। वह फलवान, उसका जीवन सफल मानना चाहिए। जगत को मिथ्या मानने वाले शंकराचार्य ऐसा लिख रहे हैं। वे फिर आगे लिखते हैं- कुत्र विधेयो यत्न:? किस विषय में मनुष्य को यत्न करना चाहिए? उत्तर देते हैं- विद्याभ्या से सदौषधे दाने। तीन विषयों में मनुष्य को यत्न करना चाहिए। विद्याभ्यास, उत्तम औषधि योजना अर्थात स्वास्थ्य योजना, दान की प्रक्रिया सर्वत्र जोरदार चलानी चाहिए। अज्ञान दूर करने के लिए विद्याभ्यास, रोग निकालने के लिए अच्छी औषधि की योजना और गरीबी दूर करने के लिए दान करना पड़ता है। शंकराचार्य कहते हैं-दानं संविभाग:। अपना काट कर दूसरों को देना। यह बहुत बारीक विचार है। जो आपके अपने लिए है, उसमें कटौती करके दान देना चाहिए।
उनके जीवन की अलौकिक घटनाओं में उल्लेख्य है: माता से जीवन रक्षार्थ संन्यास की आज्ञा, नर्मदातट पर दीक्षार्थ गोविन्द भगवत्पाद के दर्शन, काशी में चाण्डाल रूप में भगवान् विश्वनाथ के दर्शन तथा विप्ररूप में भगवान् वेद व्यास के दर्शन पूर्णानदी में स्नान करते हुए मगरमच्छ ने पैर पकड़ लिए। इकलौते पुत्र के मृत्यु मुख में देख माता हाहाकार करने लगी। शंकरचार्य ने कहा कि आप मुझे संन्यास की आज्ञा दे दो, मगरमच्छ मुझे छोड़ देगा। मगर से मुक्त हो गए। उन्होंने कहा कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं उपस्थित हो जाऊंगा।
केरल से चलकर नर्मदा तट पर उन्हें गुरुचरण के दर्शन हुए। गोविन्द भगवत्पाद से दीक्षा और उपदिष्ट मार्ग से साधना कर थोड़े ही समय में शंकराचार्य योगसिद्ध महात्मा के रूप में गुरुदेव के आदेश से काशी चल दिए। वहाँ उनकी ख्याति के साथ ही लोग उनके शिष्य बनने लगे। प्रथम शिष्य बने सनन्दन (पद्मपादाचार्य) वहीं शंकराचार्य जी को चांडाल रूप में दर्शन देकर भगवान् शंकर ने उन्हें एकात्मवाद का मर्म समझाया और ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखने का आदेश दिया।