अब हमारे नेताओं को एक नया शौक पैदा हुआ है – दलितों के घर भोजन करने का। अभी कुछ दिन पहले इस बात पर विवाद हुआ कि अमुक नेता ने दलित के घर जो खाना खाया, उसे बाहर से बनवाया गया था। इस पूरे मामले पर गौर करते हुए मुझे मशहूर लेखक देवदत्त पटनायक की गीता की याद आ गयी। श्री पटनायक का विभिन्न चीजों को देखने का नजरिया कुछ और होता है। वे हर बात को व्यापक दृष्टिकोण से देखते हैं। हो सकता है कुछ लोगों को उनका यह नजरिया पसंद न आता हो लेकिन उससे असहमति के कारण ढूंढ़ने में दिक्कत जरूर होगी। दलितों के घर भोजन करने पर भी मेरा दृष्टिकोण कुछ इसी तरह का है और जो लोग इसमें सामाजिक समरसता और सद्भाव देखते हैं, उनसे मैं सहमत नहीं हूं।
भोजन आदमी की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है। आदमी पैदा हुआ तो उसे भूख लगी और इसी तरह खाने-पीने की वस्तुओं, पदार्थों की तलाश निरंतर जारी है। आज से दो दशक पहले तक पिज्जा-बर्गर का नाम भी हमारे देश में कोई नहीं जानता था लेकिन अब बच्चों की पहली पसंद यही बन गये हैं। भोजन साथ-साथ करने का मजा भी कुछ और ही होता है। हममें से बहुत से लोग, जो गांवों में रहते थे, उन्हें पता होगा कि रसोई के सामने बैठकर सभी बच्चे एक-एक रोटी के कैसे टुकड़े करवाकर खाते थे और इस तरह कितनी रोटियां खा जाते थे, यह पता ही नहीं चलता था। इसी तरह शादी-व्याह और अन्य आयोजनों में भी जातिगत भेदभाव गांवों से लेकर शहरों तक अब भी देखा जा सकता है। सामाजिक स्तर ऊँचा उठने पर यह मिट भी जाता है। निम्न जाति के लोग इसीलिए गांवों में उच्च जाति के लोगों को खाने का निमंत्रण नहीं देते लेकिन राम विलास पासवान और सुश्री मायावती यदि कोई दावत करें तो उसमें कथित उच्च जाति के लोग भी बहुत ही गौरवान्वित होकर पहुंच जाते हैं। हालांकि मूलरूप से दोनों ही आयोजनों में कोई अंतर नहीं होता है क्योंकि वहां भी कैटरिंग का खाना खिलाया जाता है और यहां भी। अंतर सिर्फ सामाजिक स्तर का है, आर्थिक सम्पन्नता का है। इस लिए दलितों के साथ सद्भाव के लिए उनके घर भोजन करने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण उनका सामाजिक और आर्थिक स्तर ऊँचा करना होना चाहिए।
दलितों के घर नेताओं के भोजन की चर्चा राहुल गांधी से शुरू हुई थी। लगभग 6 साल पहले जब कांग्रेस ने मिशन 2012 की जोर शोर से तैयारी की और उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव हुए। राहुल गांधी का मिशन तो फ्लाप हुआ ही, साथ ही दलितों के घर भोजन की कहानी भी कुछ वर्षो के लिए बंद हो गयी। उस समय भी राहुल गांधी का दलितों के घर भोजन वोट बैंक का एक हिस्सा था और आज भी है। दलितों के साथ हमदर्दी का यह नया फार्मूला तलाशा गया है। बिहार में भाजपा के एक नेता का दलित के घर भोजन इसलिए चर्चा का विषय बन गया कि उसे गांव के पंचायत घर में बनाया गया था। इस पर विवाद हुआ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता अहलू वालिया ने बहुत ही व्यावहारिक बात कही। उन्होंने कहाकि भाजपा नेता के साथ कई लोग थे और उन सभी को भोजन करना था। यह तो व्यावहारिक नहीं है कि अकेले नेता जी भोजन कर लेते और बाकी सब कहीं और खाना खाने जाते। इसलिए इतने लोगों का भोजन किसी भी दलित के यहां बनाना तो दूर कथित सम्पन्न लोगों के घर में भी बनाना कठिनाई भरा हो जाता है। सम्पन्न घरों में भी किसी कैटरर को ही ज्यादा लोगों के लिए खाना बनाने के लिए बुलाना पड़ता है। इसलिए पंचायत घर में खाना बनवाकर दलित के घर में उसके साथ भोजन किया गया।
यह भी हालांकि समस्या का आंशिक समाधान है लेकिन व्यावहारिक ज्यादा है। दलितों के नाम पर हमने पहले ही सामाजिक स्तर की बात कही है और जिन लोगों के साथ बैठकर भोजन करने में हिचक होती है, उनको समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए इस तरह के प्रयास एक अच्छी परम्परा बन सकते हैं। राजनीतिक इसकी पहल कर रहे हैं तो यह अच्छी बात है और मीडिया इसको प्रचार भी दे रहा है। औद्योगीकरण और शहरी करण ने इस भेद भाव को दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई है। शहर में होटल में भोजन करते समय हम यह नहीं पूछते हैं कि बगल में किस जाति का व्यक्ति बैठकर खाना खा रहा है। होटल में थाली और प्लेट – गिलास भी वही होते हैं, जिनमें दलित भी भोजन करते हैं और उच्च जाति के लोग भी। इसके बावजूद घर में हमारे माप दण्ड बदल जाते हैं। उस समय जाति व्यवस्था के प्रभाव से हम निश्चित रूप से प्रभावित होते हैं।
जाति व्यवस्था को समाप्त करने की वकालत तो बहुत लोग करते हैं लेकिन यह और मजबूत होती जा रही है। आरक्षण ने तो इसे संजीवनी बूटी दे दी है। कौन नहीं चाहेगा कि उसके बच्चे शिक्षा से लेकर नौकरी तक आरक्षण का लाभ उठाएं। आप कह सकते हैं कि इसी से तो सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधरेगी, तब उस दलित के घर पर आयोजन में कोई भी सवर्ण जाने पर अपना सौभाग्य मानेगा लेकिन एक सवाल उठता है। अभी हाल में कांग्रेस नेता शशि थरूर की एक पुस्तक आयी है जिसमें उन्होंने कहा कि मैं हिन्दू क्यों हूं। इस पुस्तक में उन्होंने हिन्दुओं की समरसता, धैर्य और सज्जनता के जो माप दण्ड बताये हैं, वैसा हिन्दू तो खोजना ही मुश्किल होगा और विभिन्न जातियों में एक-दूसरे के प्रति जो कटुता भरी है, उसे कैसे निकाला जाएगा। यही राजनेता उसे बार-बार उभारते भी है। बताया जाता है कि डा.आम्बेडकर को किस तरह सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी। यह भी कहा जाता है कि कथित हिन्दू सम्राटों के शासन काल में शूद्र जब संकरीगलियों से निकलते थे तो उनके गले में घंटी बंधी होती थी ताकि दूर से ही कोई समझ जाए कि रास्ते में शूद्र आ रहा है। यह भी बताया जाता है कि शूद्रों को अपने हाथ में कोई बर्तन लेकर चलना पड़ता था और वे रास्ते में थूक नहीं सकते थे।
हालांकि रास्ते में थूकना किसी के लिए भी अच्छी बात नहीं है। इससे ऐसी गंदगी फैलती है जो संक्रामक बीमारी दे सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान चला रखा है तो स्वच्छता के तहत इन सब बातों पर ध्यान देना चाहिए। भोजन के मामले में स्वच्छता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है और एक-दूसरे के यहां भोजन न करने के पीछे यही स्वच्छता बहुत बड़ा कारण रहा है। जातिगत भंेदभाव कर्म और रहन-सहन के चलते ही ज्यादा बढ़े हैं। संस्कृत में नाटक मृच्छकटिकम राजा शूद्रक ने ही लिखा है जो स्वयं दलित जाति के थे और महर्षि बाल्मीकि जिन्हें दलित अपना मसीहा कहते हैं, उन्होंने राजा रामचन्द्र की पत्नी सीता और उनके दो बेटों को न सिर्फ भोजन कराया बल्कि पाल-पोष कर बड़ा भी किया था। बाल्मीकि जी का सामाजिक स्तर काफी बड़ा था। भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण और सीता के साथ जब बनवास के लिए जा रहे थे तब वाल्मीकि जी के आश्रम में भी गये और उन्हें प्रणाम किया था।
इसलिए दलितों के घर राजनेताओं के भोजन को एक अखबारी खबर बनाने के बजाय सामाजिक समरसता को बढ़ाने का अभियान बनाना होगा। (हिफी)