मस्तान का मन लगने लगा।दरअसल, चालीस के दशक में विदेश से जो लोग इलेक्ट्रॉनिक सामान, महंगी घड़ियां या सोना, चांदी और गहने लेकर आते थे। उन्हें उस सामान पर टैक्स की शक्ल में बड़ी रकम अदा करनी पड़ती थी। यही वजह थी कि डॉक पर तस्करी करना फायदे का सौदा था। गालिब की बात मस्तान की समझ में आ चुकी थी। उसने इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया,और गुपचुप तरीके से वह तस्करों की मदद करने लगा। तस्कर विदेशों से सोने के बिस्किट और अन्य सामान लाकर मस्तान को देते थे और वह उसे अपने कपड़ों और थैले में छिपाकर डॉक से बाहर ले जाता था। कुली होने के नाते कोई उस पर शक भी नहीं करता था। इस काम की एवज में मस्तान को अच्छा पैसा मिलने लगा था.डॉक पर काम काम करते करते मस्तान की जिंदगी बेहतर होने लगी थी। तस्करों की मदद करने से उसे खासा फायदा हो रहा था। 1950 का दशक मस्तान मिर्जा के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।
1956 में दमन और गुजरात का कुख्यात तस्कर सुकुर नारायण बखिया उसके संपर्क में आ गया। दोनों के बीच दोस्ती हो गई. दोनों साथ मिलकर काम करने लगे। उस वक्त सोने के बिस्किट, फिलिप्स के ट्रांजिस्टर और ब्रांडेड घड़ियों की बहुत मांग थी। मगर टैक्स की वजह से भारत में इस तरह का सामान लाना बहुत महंगा पड़ता था. लिहाजा दोनों ने मिलकर दुबई और एडेन इस सामान की तस्करी शुरू की। जिसमें दोनों को खासा मुनाफा हो रहा था. दोनों का काम बढ़ता गया और मस्तान की जिंदगी भी अब बदल चुकी थी। मामूली सा कुली मस्तान अब बाहुबली माफिया मस्तान भाई बन चुका था.ये धंधा अभी तेजी पकड़ने ही वाला था कि 50 के दशक में दो बड़े बदलाव हुए, जिन्होंने मस्तान मिर्जा को बड़ा खिलाड़ी बनने में मदद दी. 1950 में मोरारजी देसाई मुंबई प्रेसिडेंसी के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने शराब के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया।इसका नतीजा हुआ कि स्मगलर्स को इन चीजों की तस्करी का भी मौका मिला, जिसमें काफी मुनाफा था।यह समय पूरे भारत में इमरजेंसी लगने के पहले का था, जब हाजी मस्तान का नाम और कारोबार ऊंचाई पर पहुंच गया था। मुंबई में मस्तान के कद को बढ़ता देख तत्कालीन प्रधानमंत्री (स्वर्गीय) इंदिरा गांधी ने उसे जेल भेजने के आदेश दिए थे, लेकिन मस्तान की मुंबई पर पकड़ होने के कारण वह पुलिस की रेड में बच निकला। इस घटना के कुछ दिन बाद ही पूरे भारत में इमरजेंसी लग गई और इंदिरा गांधी ने मस्तान को कई आपराधिक मामलों के तहत जेल भेज दिया ।
जेल में 18 महीने रहने के बाद जब मस्तान बाहर निकला, तो अब वह केवल मस्तान मिर्जा नहीं रहा, बल्कि हाजी मस्तान बन चुक था। नाम के साथ अब उसकी जिंदगी के सपने और मंजिलें भी बदल चुकीं थीं । आखिरकार, 1980 में हाजी मस्तान ने जरायम की दुनिया को अलविदा कहकर राजनीति का रुख कर लिया। 1984 में महाराष्ट्र के दलित नेता जोगिन्दर कावड़े के साथ मिलकर खुद की पार्टी दलित-मुस्लिम सुरक्षा महासंघ बनाई। आगे चलकर 1990 में इसका नाम बदल कर भारतीय अल्पसंख्यक महासंघ कर दिया गया था। बॉलीवुड के सुपर स्टॉर दिलीप कुमार ने इस सियासी पार्टी का खूब प्रचार किया। वे पार्टी के कई कार्यक्रमों में दिखाई देते थे। हाजी मस्तान की इस पार्टी ने बाद में मुंबई, कोलकाता और मद्रास के निकाय चुनाव में भागीदारी की। बताया जाता है कि चुनाव में भले ही पार्टी को कामयाबी नहीं मिली लेकिन इस चुनाव में काले धन का जमकर इस्तेमाल हुआ था। वहीं से चुनाव में भारी पैसा खर्च करने का शगल शुरू हुआ था।
अंडरवर्ल्ड और बॉलीवुड का काफी पुराना नाता रहा है। मुंबई के पहले डॉन हाजी मस्तान की भी बॉलीवुड में काफी रुचि थी। हाजी मस्तान ने फिल्म निर्माण में भी अपने हाथ आजमाए। शुरुआत में हाजी मस्तान फिल्म निर्माण के लिए सिर्फ स्टूडियो और निर्माताओं को पैसे दिया करता था, लेकिन अभिनेत्री सोना से शादी के बाद हाजी मस्तान ने कई फिल्मों का निर्माण किया।
हाजी मस्तान ने सुंदर शेखर को गोद लिया था। सुंदर हिंदू ही रहे। हालांकि मस्तान उनको सुलेमान मिर्जा कहता था। सुंदर आज भी बंबई में रहते हैं। भारतीय माइनॉरिटीज सुरक्षा महासंघ नाम से पार्टी चलाते हैं। हाजी मस्तान की तीन बेटियां हैं- कमरुनिसा, मेहरूनिसा और शमशाद। दो बंबई में और एक लंदन में रहती है। 25 जून 1994 में हार्ट अटैक से हाजी मस्तान की मौत हो गई थी।