सुल्ताना डाकू के नाम से कुख्यात सुलतान सिंह का ताल्लुक संयुक्त प्रान्त अब उत्तर प्रदेश के बिजनौर-मुरादाबाद इलाके में रहने वाले घुमन्तू और बंजारे भांतू समुदाय से था. भांतू अपने आपको मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप का वंशज मानते हैं. वे मानते हैं कि मुगल सम्राट अकबर के हाथों हुई राजा महाराणा प्रताप की पराजय के बाद भांतू समुदाय के लोग भागकर देश के अलग-अलग हिस्सों में चले गए. अंग्रेज सरकार ने भांतू समुदाय को अपराधी जाति घोषित किया हुआ था और वह उनकी गतिविधियों पर लगातार नज़र बनाए रखती थी. यह बात सच भी थी क्योंकि इस समुदाय के लोगों को लेकर सामाजिक धारणा भी यही थी. इस बात को ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित करने के लिए भांतुओं के अतिप्रसिद्ध पुरखे गुल्फी का नाम लिया जाता था जो कुख्यात लेकिन बेहद कुशल चोर था. खुद सुल्ताना का दादा गुल्फी का अवतार माना जाता था.
सुल्ताना का जन्म मुरादाबाद जिले के हरथला गाँव में हुआ बताया जाता है अलबत्ता अन्य स्थानों पर उसका जन्मस्थान बिलारी और बिजनौर भी बताया गया है. सुल्ताना की माँ कांठ की रहनेवाली थी. अंग्रेजों ने कांठ के भांतू समुदाय को नवादा में साल्वेशन आर्मी के कैम्प में पुनर्वासित कर दिया था और सुल्ताना का बचपन वहीं बीता. अंग्रेज सरकार का मानना था कि कैम्प में रहने से इस समुदाय के बच्चे भले नागरिक बन सकेंगे.
सुल्ताना अपने जीवनकाल में ही एक मिथक बन गया था. उसके बारे में यह जनधारणा थी कि वह केवल अमीरों को लूटता था और लूटे हुए माल को गरीबों में बाँट देता था. यह एक तरह से सामाजिक न्याय करने का उसका तरीका था. जनधारणा इस तथ्य को लेकर भी निश्चित है कि उसने कभी किसी की हत्या नहीं की. यह अलग बात है कि उसे एक गाँव के प्रधान की हत्या करने के आरोप में फांसी दे दी गयी. बेहद साहसी और दबंग सुल्ताना ने अपने अपराधों के चलते उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब और मध्यप्रदेश में अपना आतंक फैलाया. सुल्ताना का मुख्य कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश के पूर्व में गोंडा से लेकर पश्चिम में सहारनपुर तक पसरा हुआ था. पुलिस उसे खोजती रहती थी लेकिन वह अपनी चालाकी से हर बार बच जाता था. कहते हैं कि वह डकैती डालने से पहले लूटे जाने वाले परिवार को बाकायदा चिठ्ठी भेजकर अपने आने की सूचना दिया करता था.
जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माई इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इण्डियाज़ रोबिन हुड’ में सुल्ताना के चरित्र का आकलन करते हुए एक जगह लिखा है: “एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी निर्धन आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी. सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी. जब जब उससे चंदा माँगा गया उसने कभी इनकार नहीं किया, और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दो गुना दाम चुकाया.” अपने अंतिम वर्षों में वह अपने कार्यक्षेत्र को मुख्यतः कुमाऊँ के तराई-भाबर से लेकर नजीबाबाद तक सीमित कर चुका था. जिम कॉर्बेट के सुल्ताना-संस्मरणों में बार-बार कालाढूंगी, रामनगर और काशीपुर का ज़िक्र आता है. बताया जाता है कि सुल्ताना ने नजीबाबाद में एक वीरान पड़े किले को अपना गुप्त ठिकाना बना लिया था. चार सौ वर्ष पहले नवाब नजीबुद्दौला के द्वारा बनाए गए इस किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं और यह एक दिलचस्प तथ्य है कि आज उसे नजीबुद्दौला का नहीं बल्कि सुल्ताना का किला कहा जाता है. हालांकि सुल्ताना खुद को महाराणा प्रताप का वंशज मानता था उसका डीलडौल उसके इस दावे को खारिज करता था. वह छोटे कद का सांवली रंगत वाला एक मामूली आदमी था जिसके ढंग की दाढ़ी-मूंछें भी नहीं थीं. फिलहाल उसके मन में ठाकुरों के लिए अदब और सम्मान था जबकि व्यापारी वर्ग से वह नफ़रत करता था और उसी को अपना शिकार बनाता था. उसके गर्व और विद्वेष के दो उदाहरण इस तथ्य में देखे जा सकते हैं कि उसने अपने घोड़े का नाम चेतक रखा हुआ था और कुत्ते का नाम राय बहादुर.
तीन सौ सदस्यों के सुल्ताना के गिरोह के पास आधुनिक हथियार तो थे ही वह बेहद वफादार और अनुशासित भी था. ऐसे संगठित गिरोह के सामने पुलिस भी भयभीत रहती थी. चूंकि सुल्ताना अपने इलाके के ग़रीबों के बीच एक मसीहा माना जाता था, चप्पे-चप्पे में लोग उसके जासूस बन जाने को तैयार रहते थे. अनेक ब्रिटिश अफसर उसे दबोचने के काम में लगाए गए लेकिन कोई भी सफल न हो सका. अंततः टेहरी रियासत के राजा के अनुरोध पर ब्रिटिश सरकार ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए एक कुशल और दुस्साहसी अफसर फ्रेडी यंग को बुलाया. आगे जाकर फ्रेडी यंग का नाम इतिहास में सुल्ताना के साथ अमिट रूप से दर्ज हो गया क्योंकि लम्बे संघर्ष के बाद फ्रेडी ने न केवल सुल्ताना को धर दबोचा, उसने सुल्ताना की मौत के बाद उसके बेटे और उसकी पत्नी की जैसी सहायता की वह अपने आप में एक मिसाल है.
तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और अंततः 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद जिले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया. सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे. इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी. नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुकदमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया. उसे फांसी की सजा सुनाई गयी. हल्द्वानी की जेल में 7 जुलाई 1924 को जब सुल्ताना को फांसी पर लटकाया गया उसे अपने जीवन के तीस साल पूरे करने बाकी थे.
यूपी में बिजनौर की है पुख्ता बुनियाद, उसी जिले में एक शहर नजीबाबाद/ वहीं का है मशहूर फसाना, दिल दिलेर मानिंद शेर एक डाकू था सुल्ताना [नथाराम शर्मा की किताब ‘सुल्ताना डाकू उर्फ़ गरीबों का प्यारा’]
2009 में पेंग्विन इण्डिया से छपी किताब ‘कन्फेशन ऑफ़ सुल्ताना डाकू’ की शुरुआत में लेखक सुजीत सराफ ने उसे फांसी दिए जाने से ठीक पिछली रात का ज़िक्र किया है. सुल्ताना को एक अँगरेज़ अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल सैमुअल पीयर्स के सम्मुख स्वीकारोक्ति करता हुआ दिखाया गया है. सुल्ताना बताता है कि चूंकि उसका ताल्लुक एक गरीब परिवार से था, उसकी माँ और उसके दादा ने उसे नजीबाबाद के किले में भेज दिया जहां मुक्ति फ़ौज यानी साल्वेशन आर्मी का कैम्प चलता था. इस कैम्प में सुल्ताना और अन्य भांतुओं को धर्मांतरण कर ईसाई बनाने के अनेक प्रयास किये गए लेकिन वह वहां से भाग निकला. यहीं से उसके आपराधिक जीवन का आरम्भ हुआ. अपराध में निपुण सुल्ताना अपने मुंह में चाकू भी छिपा सकता था और समय आने पर उसे इस्तेमाल भी कर सकता था.
इस बात के प्रमाण हैं कि फ्रेडी यंग ने सुल्ताना की पत्नी और उसके बेटे को भोपाल के नज़दीक पुनर्वासित किया. बाद में उसने उसके बेटे को अपना नाम दिया और उसे पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेजा. कहते हैं फ्रेडी यंग ने ऐसा करने का सुल्ताना से वादा भी किया था. जहाँ तक सुल्ताना डाकू के व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है उसके साथ जोड़ कर देखी जाने वाली स्त्रियों में फूल कुंवर और डकैत पुतलीबाई के नाम सामने आते हैं लेकिन प्रामाणिक रूप से कुछ भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं. यह उचित भी है कि ऐसे आकर्षक और विरोधाभासी जीवन के स्वामी का इतिहास फंतासियों, कल्पनाओं और मिथकों के आवरणों में ढंका हुआ रहे.
1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया. उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म ‘सुल्ताना डाकू बनाई जिसमें मुख्य किरदार दारासिंह ने निभाया था. अजीत और हेलेन ने फिल्म में दूसरे किरदार निभाये थे. सुल्ताना के जीवन पर हाथरस के रहने वाले नथाराम शर्मा गौड़ ने ‘सुल्ताना डाकू उर्फ़ गरीबों का प्यारा’ नाम से किताब लिखी. लखनऊ जिले के रहने वाले लेखक अकील पेंटर ने ‘शेर-ए-बिजनौर: सुल्ताना डाकू’ शीर्षक किताब लिखी जिस पर आधारित नाटकों पर अनेक नौटंकियां खेली जाती रहीं और उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों-शहरों में दशकों तक इनका डंका बजता रहा. इस नौटंकी में एक जगह सुल्ताना और उसकी काल्पनिक प्रेमिका नीलकंवल के बीच चलने वाले वार्तालाप की बानगी देखिये:
सुल्ताना: प्यारी कंगाल किस को समझती है तू? कोई मुझ सा दबंगर न रश्क-ए-कमर जब हो ख़्वाहिश मुझे लाऊँ दम-भर में तब क्योंकि मेरी दौलत जमा है अमीरों के घर नील कँवल: आफ़रीन, आफ़रीन, उस ख़ुदा के लिए जिसने ऐसे बहादुर बनाए हो तुम मेरी क़िस्मत को भी आफ़रीन, आफ़रीन जिस से सरताज मेरे कहाए हो तुम सुल्ताना: पा के ज़र जो न ख़ैरात कौड़ी करे उन का दुश्मन ख़ुदा ने बनाया हूँ मैं जिन ग़रीबों का ग़मख़्वार कोई नहीं उन का ग़मख़्वार पैदा हो आया हूँ मैं सुल्ताना: प्यारी कंगाल किस को समझती है तू? कोई मुझ-सा दबंग नहीं जब मेरी मर्ज़ी हो एक सांस में ला सकता हूँ क्योंकि अमीरों की दौलत पर मेरा ही हक़ है नील कँवल: वाह, वाह, उस ख़ुदा के लिए जिसने ऐसे बहादुर बनाए हो तुम मेरी क़िस्मत को भी वाह, वाह जिस से सरताज मेरे कहाए हो तुम सुल्ताना: पा के सोना जो कौड़ी भी न दान करे ख़ुदा ने मुझे उनका दुश्मन बनाया है जिन ग़रीबों का दर्द बांटने वाला कोई नहीं उन का दर्द हटाने वाला बनकर मैं पैदा हुआ हूँ
सुल्ताना की मौत के बाद उसे याद करते हुए जिम कॉर्बेट ने ‘माई इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इण्डियाज़ रोबिन हुड’ में यह भी लिखा है – “समाज मांग करता है कि उसे अपराधियों से बचाया जाय, और सुल्ताना एक अपराधी था. उस पर देस के कानून के मुताबिक़ मुकदमा चला, उसे दोषी पाया गया और उसे फांसी दे दी गयी. जो भी हो, इस छोटे से आदमी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है जिसने तीन साल तक सरकार की ताकत का मुकाबला किया और जेल की कोठरी में अपने व्यवहार से पहरेदारों का दिल जीता.”
“मैं चाह सकता था कि न्याय कि यह मांग न हो कि उसे बेड़ियाँ पहनाए हुए सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाए और उन लोगों के मखौल का पात्र बनाया जाए जो उसके जीते जी उसके नाम से थर्राते थे. मैं यह भी चाह सकता था कि सिर्फ इस बिनाह पर उसे थोड़ी कम कठोर सज़ा दी जाती कि उस पर पैदा होते ही अपराधी का ठप्पा लग गया था और उसे पूरा मौका नहीं दिया गया और यह कि जब उसके हाथ में ताकत थी उसने गरीबों को कभी नहीं सताया और यह कि जब बरगद के एक पेड़ के पास मेरी उससे मुलाक़ात हुई उसने मेरी और मेरे साथियों की जान बख्श दी थी. और आखिर में इस बात के लिए कि जब वह फ्रेडी से मुलाक़ात करने गया तो उसके हाथों चाकू या रिवॉल्वर नहीं बल्कि एक तरबूज था.साभार