राकेश अचल-भले ही देश आजादी की 75 वीं सालगिरह मना रहा हो किन्तु दुर्भाग्य ये है कि इस देश ने अभी तक राजनीति में सक्रिय महिलाओं की इज्जत करना नहीं सीखा है। लोकसभा में बीते रोज जो हुआ वो सदन को जख्मी और शर्मसार करने वाला था। इस एपिसोड से लोकतंत्र का वकार भी जाता रहा। राजनीति के ताश में शामिल इक्के से लेकर जोकर तक ने अपनी जहालत का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। इस आलेख को पढ़ने से पहले आपको ये भरोसा करना होगा कि लेखक की किसी दल या व्यक्ति के प्रति कोई आशक्ति नहीं है। सदन में कांग्रेस के अधीररंजन चौधरी ने नव निर्वाचित राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कहकर अपनी जहालत का परिचय दिया तो समूचे सत्ता पक्ष ने इस जहालत के बदले अपनी घोर जहालत को उड़ेलकर दिखा दिया। सदन में शायद अब कोई इस कद का नेता नहीं बचा है जो इस बेहूदगी को खड़ा होकर रोक सके। आसंदी के बारे में कुछ कहना सदन के विशेषाधिकार का हनन करना होगा। अंग्रेजी शब्दों के अनुवाद में विसंगतियां और उन्हें लेकर हास-परिहास,व्यंग्य कोई नया विषय नहीं है। सावरकर के वंशज आज भी मोहनदास करम चंद गांधी को राष्ट्रपिता कहने पर आपत्ति कहते हैं। कुछ को भारत को माता कहने पर आपत्ति है,क्योंकि भारत पुलिंग है । आपत्ति करने वालों के अपने तर्क और कुतर्क हैं,लेकिन राष्ट्र में जो पिता है,जो पति है सो पचहत्तर साल से है। मुमकिन है कि देश के तमाम शहरों ,रेलवे स्टेशनों के नाम बदलने वाली सरकार अब ताजा हंगामे के बाद इन शीर्ष सम्बोधनों को भी बदल दे ,ताकि’ न रहे बांस और न बजे बांसुरी ‘ बांसुरी यदि बेसुरी हो तो न ही बजे । लोकसभा में जिस तरह से अतीत की अभिनेत्री और वर्तमान में केंद्र सरकार की मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने अपनी बात रखी उसे देखकर लगा की उनकी डायलॉग डिलेवरी अब पहले जैसी सुचितापूर्ण नहीं रही, वे अपनी बारबाला बेटी की जालसाजी उजागर होने के बाद कांग्रेस के प्रति न सिर्फ आक्रामक हुईं हैं बल्कि उन्होंने तमाम मर्यादाओं को भी भुला दिया है । बहरहाल ये उनका अपना मामला है, मै इस मामले में कुछ नहीं कहना चाहता, उन्होंने श्रीमती सोनिया गाँधी के प्रति किस भाषा का इस्तेमाल किया इसे पूरे देश ने देखा है, वैसे भी गोस्वामी तुलसी दास कह गए हैं कि -‘ नारी न मोहे ,नारी के रूपा,पन्नगारि यह नीति अनूपा ‘.
बात सदन की गरिमा की है, वे लोग सौभाग्यशाली हैं जो इस समय संसद में नहीं हैं,जिन्हें मौजूदा नेतृत्व ने घर बैठा दिया है यानि मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया है। वे यदि सदन में होते तो उन्हें मुंह छिपाने की भी जगह न मिलती। हमारा सौभाग्य है कि हम लोग संसद की कार्रवाई में रूचि रखते हैं और एक जमाने में संसद की कार्रवाई के बारे में जानने के लिए रात ग्यारह बजे के बाद आने वाले रेडियो कार्यक्रम के लिए जागते रहते थे | तब कार्रवाई का सीधा प्रसारण नहीं होता था,लेकिन जो पढ़कर सुनाया जाता था उसी से तृप्ति हो जाती थी, अब जो सजीव देखते हैं उससे विरक्ति और कोफ़्त होने लगी है। भरोसा नहीं होता कि ये वो ही संसद है जिसमें कांग्रेस,समाजवादी पार्टी,जनसंघ और वामपंथी दलों के दिग्गज भी हुआ करते थे। मुझे हैरानी हुई जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में प्रशिक्षण के बाद अपनी साधना से आईएएस बने एक सेवानिवृत्त मित्र ने लोकसभा में अधीर रंजन की टिप्पणी पर अपना रोष जताते हुए कहा कि ‘आपको याद है कि इंदिरा गाँधी ने किस तरह अपनी भटियारिन प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाया था ?’ मैंने प्रतिप्रश्न किया – ‘तो क्या इसी तरह मोदी जी ने मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया है ?’ वे चुप हो गए,बगलें झाँकने लगे। कहने का असहय ये है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज का दृष्टिकोण आज भी नहीं बदला है, हम सोनिया गाँधी को ‘बारबाला’ कहने में नहीं हिचकते, कांग्रेस के ही लोग इंदिरा गाँधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहते रहे, स्मृति ईरानी हों या रेणुका ,सबके बारे में कुछ न कुछ अभद्र कहा गया, यहां तक कि कहने वाले देश के भाग्यविधाता भी इसमें शामिल हैं।
जब मुझे याद है तो आपको भी याद होगा कि आज के पंत प्रधान ने सत्तारूढ़ होने के पहले और बाद में किस महिला को ‘जर्सी गाय’ कहा था,किस महिला को ‘ करोड़ों की गर्लफ्रेंड ‘ कहा था,किस महिला को ‘कांग्रेस की विधवा’ कहा था ,किस महिला की हंसी को ‘सूर्पणखा की हंसी’ बताया था, कहने के मामले में सब एक से बढ़कर एक हैं,जो दुस्साहसी हैं वे सदन के भीतर निर्लज्ज होकर बोलते हैं और जो सदन का मान रखना जानते हैं वे सदन के बाहर निर्लज्ज होकर बोलते हैं, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर हों या भाजपा के कोई विद्वान नेता । भाषा कि दरिद्रता अब किस एक राजनीतिक दल संकट नहीं है,ये संकट चौरफा है,और इस संकट को राष्ट्रीय संकट मानकर इसके निवारण की दिशा में काम कारणे की आवश्यकता है । दुनिया ने बीते रोज भारत की उस निर्लज्ज संसद को सजीव देखा जो विश्व गुरु बनने का ख्वाब देखता है, भारत की गरिमा को बचाये रखने के लिए बेहतर है कि संसद की कार्रवाई का सजीव प्रसारण बंद कर दिया जाये ,क्योंकि आशंका इस बात कि है कि ये निर्लज्जता अब कम होने के बजाय बढ़ती होई जाएगी, मुमकिन है कि मेरा सुझाव सभी को रास न आये,लेकिन मुझे ऐसा लगता है, सदन की कार्रवाई के पारदर्शी होने का मै भी पक्षधर हूँ किन्तु जब परिदृश्य शर्मनाक हो,खौफनाक हो तब पारदर्शिता का क्या अर्थ ? देश पर भाजपा ने बड़ी कृपा की है कि जो गा-बजाकर आदिवासी समाज की श्रीमती द्रोपदी मुर्मू जी को राष्ट्रपति [ विवादास्पद शब्द ] पद पर बैठा दिया है,लेकिन राजनीति में सक्रिय द्रौपदियों का चीरहरण आज भी जारी है,हर राजनीतिक दल में जारी है हर सदन में जारी है, इसे जब तक नहीं रोका जाता तब तक श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने का कोई लाभ नहीं। महिला होना और महिला होकर राजनीति में सक्रिय होना कोई पाप नहीं है, पाप तो राजनीति में जड़ें जमाये बैठे पुरुष प्रधान चरित्र के मन में है। पुरुष प्रधान राजनीति में महिलाओं को स्वतंत्र हैसियत देना ही नहीं चाहती। कोई उसे पटरानी बनाना चाहता है तो कोई गूंगी गुड़िया,राजनीति में सक्रिय महिलाओं को कोई सती-सावित्री मानने के लिए तैयार ही नहीं है,जबकि वे सावित्री हैं, भले ही वे विवाहित हों या न हों । देश में लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संस्थाओं की गरिमा को बचाये रखने का दायित्व सभी दलों और व्यक्तियों का है, एक अकेले मोदी जी या एक अकेली सोनिया गाँधी ये नहीं कर सकतीं । एक अधीर या एक स्मृति को सदन की गरिमा से खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, यदि अब भी सब न जगे तो फिर क्या होगा इसकी कल्पना मात्र से सिहरन होने लगती है.जय श्रीराम ।
