– वीर विनोद छाबड़ा-महबूब ख़ान की ‘औरत’ (1940) की शूटिंग चल रही थी। उसमें एक किरदार था सुखी लाला। कंजूस, साज़िशी और लालची सूदखोर। इसके लिए जिस आर्टिस्ट का चयन हुआ था उसका नाम था कन्हैयालाल चतुर्वेदी। राइटर वजाहत मिर्ज़ा की सिफारिश पर उन्हें लिया गया था। लेकिन यूनिट के ज़्यादातर लोग खुश नहीं थे। कन्हैयालाल को वे लोग किसी भी सूरत से एक्टर ही नहीं मानते थे। दरअसल, कन्हैया लाल की अपनी एक गंवई स्टाईल थी जिसे वो ओवरप्ले करते थे। देखने वालों को तो मज़ा मिलता ही था। एक तरह से वो कॉमिक आर्टिस्ट थे। बहरहाल, आलम ये था कि सेट पर कन्हैयालाल मारे-मारे इधर से उधर घूम रहे थे, कोई भी उनका मेकअप करने को तैयार नहीं हुआ। सिर्फ़ एक अदद मूंछ ही मेकअप के नाम पर लगी थी। बिना मेकअप के कैमरा भी अच्छी-भली सूरत बिगाड़ दे। उन्होंने परेशां होकर फोटोग्राफर फरदून ईरानी से बात की। फरदून ने उन्हें यक़ीन दिलाया कि मेकअप के बिना भी आपका चेहरा अपनी छाप छोड़ेगा। और बाकी तो हिस्ट्री है। कन्हैया लाल हिट हो गए। इसका क्रेडिट उन्होंने वजाहत मिर्ज़ा को दिया जिन्होंने उनके किरदार के लिए असरदार डायलॉग लिखे। अब वो बात दूसरी है कि कन्हैयालाल ने अपने अंदाज़ से उन्हें अदा किया। क़रीब सत्रह साल बाद महबूब ने ‘औरत’ का रीमेक बनाया, मदर इंडिया। सब कुछ बदल डाला उन्होंने, बस एक सुखी लाला के कन्हैयालाल को छोड़ कर। इस बार वो ज़्यादा ही क्रूर दिखे और वक़्त गवाह है कि सुखी लाला के किरदार में कन्हैयालाल ने जान फूँक कर ‘मदर इंडिया’ को क्लासिक बनाने में भरपूर मदद की थी।
15 दिसम्बर 1910 को बनारस में जन्मे कन्हैयालाल के पिता पंडित भैरोंदत्त चौबे की अपनी सनातन धर्म नाटक मंडली थी। कन्हैया उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। उनका मजबूत पक्ष था, स्क्रिप्ट और गाने लिखना। पिता की मृत्यु के बाद नाटक मंडली का भट्टा बैठ गया। कन्हैया के बड़े भाई संकटा प्रसाद चतुर्वेदी ने बंबई का रुख किया। पीछे-पीछे कन्हैया भी चल पड़े, ये सोच कर कि स्क्रिप्ट लिखूंगा, डायरेक्टर बनूँगा। लेकिन सपनों की नगरी का अंदाज़ अलग है। बंदा जो बनने आया वो नहीं बन पाया। कन्हैयालाल बन गए एक्स्ट्रा। एक फिल्म की शूटिंग पर हीरो मोतीलाल के पिता का किरदार करने वाला आर्टिस्ट नहीं आया। उनकी जगह कन्हैयालाल को खड़ा कर दिया गया। फुलस्केप पन्ने की स्क्रिप्ट दी गयी। कन्हैयालाल ने अपनी गंवई स्टाइल से पढ़ डाला। सब लोग हंसने लगे। लेकिन डायरेक्टर के दिल को वो भा गए। उनकी पगार 35 से बढ़ा कर 45 रूपए माहवार कर दी गयी। और अगली फ़िल्म में भी उनका प्रमोशन हो गया। पिता से दादा बन गए।
‘औरत’ की कामयाबी के बाद कन्हैयालाल की छवि भले ही कपटी मुनीम और सूदखोर की बन गयी, लेकिन उन्हें हर तरह के किरदार मिले। किरदारों की लंबाई भी बढ़ती गयी। ‘बहन’ (1941) में उनके लिए चार सीन तय थे। लेकिन अंत हुआ चौदह सीन पर। गृहस्थी (1963) में वो स्टेशन मास्टर रामस्वरूप हैं। एक दिन धनी सेठ अशोक कुमार उनके घर आ गए। वो भोजन बना रहे थे। हैरान हो गए, आज फ्लैग स्टेशन पर मेल ट्रेन कैसे रुक गयी? ‘ऊंचे लोग’ बहुत गंभीर थी। ऑडियंस को राहत देने गुणीचंद बने कन्हैयालाल चले आते हैं। एक सीन में वो राजकुमार की गाड़ी के सामने आत्महत्या के लिए खड़े हो जाते हैं, क्योंकि उनकी पत्नी को कुत्ता पालने का नहीं उनके पीछे कुत्ता छोड़ने का शौक है। राजकुमार उनसे कहते हैं, अगर आप आत्महत्या के लिए रेलवे लाईन पर लेटे होते तो पुलिस आपको पकड़ कर जेल में बंद कर देती। वो कहते हैं, बेटा मुझे रेलवे लाइन पर डाल कर पुलिस को फोन कर दो। जेल में बंद रहूंगा तो कुत्ते से तो बचा रहूँगा। ‘धरती कहे पुकार के’ में वो सहृदय कृषक हैं, जो छोटे भाईयों को पढ़ाने के लिए खेत गिरवी रख कर रुपया उधार लेते हैं। ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ में वो ज़ीनत अमान के ग़रीब और बीमार पिता पंडित श्याम सुंदर हैं जो बेटी का जन्मदिन इसलिए नहीं मना सकते क्योंकि उस दिन उनकी पत्नी का भी देहांत हुआ था। वास्तव में उन्होंने भांति भांति के किरदार किये, हां अंदाज़ उनका अपना ही रहा, गंवई सा।
कन्हैयालाल की कुछ अन्य मशहूर फ़िल्में हैं, गंगा जमुना, गोपी, उपहार, अपना देश, जनता हवालदार, दुश्मन, बंधन, भरोसा, हम पांच, दादी मां, हत्यारा, पलकों की छांव में, राम और श्याम, हीरा, तीन बहुरानियां, दोस्त आदि। पचास और साठ के सालों में गांव की पृष्ठभूमि पर बनी हर दूसरी-तीसरी फिल्म में वो नज़र आते रहे। उनके जिस खांटी गंवई अंदाज़ को जहां बहुत पसंद किया गया, वही बाद में उनके लिए मुसीबत भी बना। सत्तर और अस्सी के सालों में फिल्मों की कहानियां बदलने लगीं, स्टीरियोटाइप्ड किसान, लालची और तिकड़मी मुनीम गायब हो गए और इसके साथ ही धीरे-धीरे कन्हैयालाल भी दिखने बंद हो गए। वो बीमार हो गए, लेकिन कोई पूछने नहीं आया। पैसा-कौड़ी भी ख़त्म हो गया तो वो बनारस लौट आये। उनको बहुत शिक़ायत रही कि बंबई वालों ने उन्हें भुला दिया। सौ से ज़्यादा फिल्मों में तहलका मचा चुके 72 साल के कन्हैयालाल 14 अगस्त 1982 को परलोक सिधार गए, लगभग अनाम। पुराने दौर के लोगों को उनका विरल और नेचुरल अंदाज़ याद आता है तो गुदगुदी होती है।