– वीर विनोद छाबड़ा-तीस के दशक का दकियानूस भारतीय समाज और सिनेमा। स्त्री होने का मतलब चारदीवारी के भीतर था और बिस्तर की शोभा। पुरुष के अहंकार से लबरेज़ समाज। पुरुष कितना भी क्रूर हो, पत्नी की दृष्टि में वो परमेश्वर है। स्त्रियों का सिनेमा में काम करना भी हेय दृष्टि से देखा जाता था। ऐसे माहौल में अचानक एक बम फूटा। चेहरे पर मास्क, एक हाथ में हंटर, पैरों में पंप शू, घुटनों तक की ड्रेस, कमर में मोटी काली बेल्ट। पापियों और दुर्जनों का नाश करती एक गोरी मेम ने ‘हे हे’ के नाद के साथ प्रवेश किया। वो छतों पर इधर से उधर बेफिक्र हो कर छलांगे लगाती थी। उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था। ठीक आज के रजनीकांत की तरह। वो रॉबिनहुड का स्त्री संस्करण थी। एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। एंग्री यंग वूमेन पहले आ गयी। उसने वस्तुतः संपूर्ण भारतीय महिला समाज का प्रतिनिधित्व किया। उसका नाम था नाडिया, फीयरलैस नाडिया और फिल्म थी हंटरवाली (1935)।
नाडिया उनका असली नाम नहीं था। वो मैरी इवांस थी। ब्रिटिश पिता और ग्रीक मां की संतान। जन्म हुआ था 08 जनवरी 1908 को ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में। पिता फौज में थे। उनकी तैनाती भारत में हो गयी। पिता की जल्दी मौत ने उसे मजबूर किया कि वो कहीं नौकरी तलाश करे। कभी सेल्स गर्ल तो कभी स्टेनो-टाईपिस्ट। लेकिन मज़ा नहीं आया। पेशावर चली गयी। वहां उसकी मुलाक़ात एक रूसी बैले डांसर मैडम एस्त्रोवा से हुई। उनका ग्रुप पूरे भारत में फैले ब्रिटिश फौजियों के मनोरंजन के लिए डांस शो करता था। पैसे के लिए छोटे-मोटे कस्बों में भी जाने से परहेज़ नहीं था। पेशावर में ही मैरी रूसी सर्कस के संपर्क में आयी।
इस बीच मैरी की भेंट एक नज़ूमी से हुई। उसने कहा – बहुत शानदार ज़िंदगी तुम्हारा इंतज़ार कर रही है, लेकिन शर्त ये है कि तुम्हारा नाम अंग्रेज़ी के ‘एन’ अक्षर से शुरू होना चाहिए। और मैरी ने नाम बदल डाला। वो नाडिया हो गयी। सचमुच उसकी ज़िंदगी में बहार आ गयी। किसी ने उसे जेबीएच वाडिया से मिला दिया। वो खूबसूरत थी। ऊंचे कद की और गठा हुआ बदन। वाडिया असमंजस्य में पड़ गए कि एक अंग्रेज़ लड़की का हिंदी फिल्मों में क्या रोल हो सकता है? उन्होंने पूछा – तुम्हीं बताओ, क्या कर सकती हो? नाडिया ने कहा – कुछ भी। वाडिया ने उसे ‘लाल-ए-यमन’ (1933) में एक ब्रिटिश शहज़ादी का रोल दिया और उसकी सर्कस पृष्ठभूमि के दृष्टिगत कुछ स्टंट सीन कराये। इन्हें नाडिया ने पूरे परफेक्शन के साथ किया।
वाडिया हॉलीवुड के रॉबिनहुड की छवि वाले मशहूर एक्शन हीरो डगलस फ़ैयरबैंक्स के दीवाने थे। नाडिया का कद-बुत को देख कर उन्हें बार-बार ख्याल आता था कि क्यों न डगलस का लेडी संस्करण तैयार किया जाए। मित्रों ने समझाया कि पुरुष प्रधान भारतीय समाज लेडी रॉबिनहुड को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन वाडिया को यकीन था कि किसी इंग्लिश मूल की लेडी पर समाज को आपत्ति नहीं हो सकती। और इस तरह उन्होंने बना डाली ‘हंटरवाली’. लगा जैसे अंग्रेज़ी महिला में दुर्गावतार हुआ है, जो पापियों का संहार करती है और मजलूमो का सहारा है। हिंदी सिनेमा की तो धारा ही बदल गयी। दि गेम चेंजर कहा जाने लगा नाडिया को। वो दौर उसे ‘हंटरवाली’ के नाम से ही जानता रहा।
इधर वाडिया की तो लाटरी निकल आयी। उसके बाद मिस फ्रंटीयर मेल, हरिकेन हंसा, पंजाब मेल, डायमंड क्वीन, जंगल प्रिंसेस, तूफ़ान क्वीन, अलीबाबा 40 चोर, शेरे बगदाद आदि दर्जनों फ़िल्में बना डालीं। और इधर जनता खुश। 1943 में उन्होंने हंटरवाली का सीक्वल भी बनाया – हंटर वाली की बेटी। और ये फिल्म भी उतनी ही सफल रही। नाडिया की समस्त फिल्मों को स्वयं वाडिया ही लिखते थे और उनके छोटे भाई होमी वाडिया डायरेक्टर होते थे। साथ-साथ काम करते करते होमी और नाडिया एक-दूसरे को दिल दे बैठे। लेकिन औपचारिक विवाह बहुत बाद (1961) में किया। नाडिया की ज्यादातर फिल्मों के हीरो जान कावस हुआ करते थे। और जादुई दृश्यों को जीवंत बनाते थे बाबू भाई मिस्त्री, जिन्होंने आगे चल कर अनेक बी श्रेणी की स्टंट और धार्मिक फिल्मों का निर्देशन किया। नाडिया ने करीब पचास फिल्मों में काम किया। उनकी अंतिम फिल्म ‘खिलाड़ी’ 1968 में रिलीज़ हुई थी, जो जेम्स बांड का स्त्री संस्करण था। लेकिन फिल्म फ्लॉप हो गयी। बूढ़ी हो चुकी हंटरवाली को पब्लिक ने स्वीकार नहीं किया।
समय की धूल और आर्काइव की लापरवाही से नाडिया की अनेक फिल्मों के प्रिंट गुम हैं। कुछ नष्ट भी हो चुके हैं। लेकिन इसके बावज़ूद 1993 में जेबीएच के पड़पौत्र रियाद विंसी वाडिया ने टुकड़े-टुकड़े जोड़ कर और बहुत मेहनत से एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई – फीयरलैस, दि हंटरवाली स्टोरी। इसे बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। एक जर्मन क्यूरेटर डोरोथी वेन्नर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने एक किताब ही लिख डाली – फीयरलैस नाडिया, दि ट्रू स्टोरी ऑफ़ बॉलीवुडस ओरीजिनल स्टंट क्वीन। ये बहुत बड़ी त्रासदी ही है कि हिंदी सिनेमा की ‘गेम चेंजर’ निडर हंटरवाली ने बिना किसी शोर-शराबे के इस फानी दुनिया से 09 जनवरी 1996 को विदा ली थी। हम उन्हें भले याद न करें। लेकिन सिनेमा का जब जब इतिहास लिखा जाएगा, फीयरलेस हंटरवाली का ज़िक्र ज़रूर होगा।