स्मृति शेष। नितिन बोस प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक, छायाकार और लेखक थे। वे कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के प्रसिद्ध ‘न्यू थियेटर्स’ की ताकत थे। 1935 में उनकी बंगाली फ़िल्म ‘भाग्य चक्र’ में उन्होंने फ़िल्मों का पार्श्वगायन से परिचय करवाया था। बाद में यह फ़िल्म हिन्दी में ‘धूप छाँव’ नाम से बनाई गई। नितिन बोस ने सिने कैरियर में 6 मूक फ़िल्मों सहित 50 से भी अधिक फ़िल्मों का निर्देशन और छायांकन किया। के. एल. सहगल और उत्तम कुमार के कैरियर को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। बाद में नितिन जी बम्बई अब मुंबई आ गये थे।
‘गंगा जमुना’ हिन्दी सिनेमा की सबसे बड़ी फ़िल्मों में है। नितिन बोस की फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ का प्रसिद्ध गीत “इंसाफ की डगर पे, बच्चो दिखाओ चलके” ऐसा ही गीत था, जिसने नई पीढ़ी को उसके दायित्वों का अहसास कराया। उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें 1977 में ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था।
स्टूडियो युग के महान् निर्देशक नितिन बोस का जन्म 26 अप्रैल, 1897 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘हेमेन्द्र मोहन बोस’ तथा माता ‘मृणालिनी’ थीं। नितिन बोस की माताजी मशहूर लेखक उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी की बहन थीं। उपेन्द्रकिशोर प्रसिद्ध कवि सुकुमार राय के पिता और ख्याति प्राप्त फ़िल्म निर्माता-निर्देशक सत्यजीत राय के दादा थे। नितिन बोस के भाई मुकुल बोस का भी फ़िल्मी दुनिया से बहुत गहरा रिश्ता रहा, वे साउंड रिकॉर्डिस्ट के रूप में मशहूर थे। नितिन बोस का विवाह शांति बोस से हुआ था। वे दो पुत्रियों रीना और नीता के पिता भी बने।
नितिन बोस अपनी किशोरावस्था से ही अपने दोस्तों और घर परिवार के लोगों के बीच बेहद प्रतिभाशाली गिने जाते थे। शुरू में वह सिनेमैटोग्राफ़र थे, 1934 में उन्होंने जब एक बार फ़िल्म निर्देशन पर अपना हाथ आजमाया तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनके मन में निर्देशन की पहली बार इच्छा उस समय जोर मारने लगी, जब उन्होंने देवकी बोस के मुँह से ‘चंडीदास’ फ़िल्म की पटकथा सुनी। उन्होंने सही मायनों में देवकी बोस के साथ मिल कर भारतीय रोमांटिक सिने युग की नींव डाली। जब उन्होंने ‘चंडीदास’ की पटकथा सुनी तो अपने आपको ‘न्यू थियेटर्स’ के मालिक बीरेंद्रनाथ सरकार से यह कहने से नहीं रोक पाए कि मैं भी फ़िल्म निर्देशन करूँगा। उन्हें हिन्दी में ‘चंडीदास’ को निर्देशित करने का दायित्व सौंपा गया, इस पर वह पूरी तरह से खरे उतरे। उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर फ़िल्म ‘चंडीदास’ को भावनात्मक और तकनीकी दृष्टि से महान् शाहकार बना दिया था।
हिन्दी सिनेमा की कालजयी फ़िल्मों की सूची जब भी बनायी जायेगी, उसमें ‘गंगा जमुना’ को ज़रूर रखा जाएगा। फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ न सिर्फ़ भारतीय समाज का महाकाव्यीय चित्रण करती है बल्कि समाज के भौतिकवादी विचारबोध को भी सुसंगत क्रम देती है। ‘गंगा-जमुना’ का ही शहरी रीमेक बाद में फ़िल्म ‘दीवार’ के रूप में सामने आया। क्योंकि वक्त बदलने से जीवन शैली का ढंग भले बदल गया हो, उपभोग में आने वाली वस्तुओं की गुणवत्ता और उपभोग का ढंग भले नफासत से परिपूर्ण हो गया हो, मगर नतीजा वही रहता है। इसीलिए दौर कोई भी हो ‘गंगा-जमुना’ भव्य ही लगती है और आकर्षक भी। दिलीप कुमार और वैजयंती माला ने इस फ़िल्म में अद्भुत अभिनय किया है, लेकिन असली श्रेय तो निर्देशक नितिन बोस को ही जायेगा, क्योंकि ‘गंगा-जमुना’ को प्रस्तुत करने की कल्पनाशीलता तो उन्हीं की थी।
नितिन बोस वह शख्सियत थे, जिन्होंने सिनेमा के माध्यम से इंसान की सूक्ष्मतम अनुभूतियों को पकड़ने और उनको उभारने का काम किया। ‘चंडीदास’ फ़िल्म की अपनी सफलता के बाद उन्होंने 1934 में अपनी अगली फ़िल्म ‘डाकू मंसूर’ का निर्देशन किया। यह सामाजिक फ़िल्म थी और अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे पर आधारित थी, लेकिन तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने इस पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया था।
1936 में नितिन बोस द्वारा निर्देशित ‘धूपछाँव’, जिसमें के.सी. डे., उमाशीश तथा पहाड़ी सान्याल गायक-अभिनेताओं ने काम किया था और उनके द्वारा गाए गए इस फ़िल्म के सभी गीत लोकप्रिय हुए थे, किंतु दो गीत, ‘अंधे की लाठी तू ही है, तू ही जीवन-उजियारा है’ तथा ‘जीवन का सुख आज प्रभु मोहे’ ख़ासतौर पर चर्चित हुए। फ़िल्म में ये गीत के.सी. डे द्वारा गाये गए थे और उन्हीं पर इनका फ़िल्मांकन भी हुआ था। मगर बाद में ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड पर जारी करने के लिए इन्हें कुंदनलाल सहगल से गवाया गया और यही इन गीतों की विशेष चर्चा का कारण बना। इन पर कुंदनलाल सहगल की छाप लग गई। फ़िल्म में सहगल की कोई भूमिका नहीं थी और न ही कोई गाना उन पर फ़िल्माया गया था, फिर भी उनके स्वर में इन गानों की लोकप्रियता के चलते लोगों ने उनका संबंध इस फ़िल्म के साथ जोड़ लिया और सहगल द्वारा अभिनीत फ़िल्मों की सूची में इस फ़िल्म का नाम शुमार किया जाने लगा।
फ़िल्म ‘धूपछाँव’ की एक और ख़ास बात यह थी कि इसमें निर्देशक नितिन बोस ने संगीतकार आर.सी. बोराल व पंकज मलिक तथा साउंड रिकॉर्डिस्ट मुकुल बोस की सहायता से पारुल घोष, सुप्रभा सरकार एवं हरिमती के स्वरों में एक गीत रिकॉर्ड करके पार्श्वगायन का पहला प्रयोग किया था। मगर नितिन बोस के मन में यह कल्पना कैसे उत्पन्न हुई, इसकी भी एक कहानी है-
एक दिन नितिन बोस सुबह के वक्त पंकज मलिक से मिलने उनके घर गए, तो पंकज बाबू नहा रहे थे। नितिन बोस बाहर कमरे में बैठकर उनका इंतज़ार करने लगे। वहाँ रेडियो चालू था और उस पर एक गीत प्रसारित हो रहा था। उधर बाथरूम से पंकज बाबू के गाने के स्वर आ रहे थे। अचानक नितिन बोस ने लक्ष्य किया कि पंकज बाबू वही गाना गा रहे हैं, जो रेडियो पर प्रसारित हो रहा था। वे रेडियो के स्वर में स्वर मिलाकर गा रहे थे। बस फिर क्या था, नितिन बोस के मानस पटल पर पलक झपकते ही एक तकनीकी क्रांति का ख़ाका स्पष्ट हो गया। जैसे ही पंकज बाबू नहाकर बाहर निकले, नितिन बोस एक बच्चे की तरह अधीर होकर बोले- “दादा, आप रेडियो के स्वर में स्वर मिलाकर गा रहे थे?” पंकज मलिक ने कहा- “हाँ, मैं गा रहा था”।
“क्या वह प्रयोग फ़िल्मों में नहीं किया जा सकता?” उत्साह के अतिरेक में उत्तेजित होकर नितिन बोस ने सवाल किया।
पंकज बाबू एकदम समझ नहीं पाए कि नितिन बोस क्या कहना चाहते हैं। उन्होंने कहा- “मतलब”?
इस पर नितिन बोस ने उनसे कहा कि “मतलब यह कि गाने की रिकॉर्डिंग पहले कर ली जाए और फ़िल्मांकन के समय अभिनेता उस रिकॉर्डिंग को सुनकर उसके अनुसार होंठ हिलाते हुए अभिनय करे।”
पंकज बाबू ने कहा- “अद्भुत कल्पना है नितिन। इसे साकार करने के लिए हम प्रयोग करेंगे… हर कीमत पर करेंगे।”
और इस तरह फ़िल्मों में पार्श्वगायन की पद्धति का सूत्रपात हुआ, जिसने विश्व सिनेमा का चेहरा ही बदल दिया।
मार्क्सवाद से प्रभावित होकर नितिन बोस ने 1936 में फ़िल्म ‘प्रेसीडेंट’ बनायी। यह पहली ठोस वैचारिक फ़िल्म थी, जिसमें मज़दूर हितों को तरजीह दी गयी थी। फ़िल्म समीक्षकों से तो इस फ़िल्म के लिए नितिन बोस को वाहवाही मिली ही, दर्शकों ने भी इसका जबरदस्त स्वागत किया। जिससे उत्साहित होकर नितिन बोस ने मार्क्सवादी विचारधारा पर एक और फ़िल्म बनायी ‘धरतीमाता’। यह फ़िल्म सामूहिक कृषि के सिद्धांत पर आधारित थी। इसे उन्होंने बड़े पैमाने पर आउटडोर शूटिंग करके बनाया था। इसके फ़िल्मांकन को देख कर लगता है कि वह हॉलीवुड की तकनीकी श्रेष्ठता से काफ़ी प्रभावित थे। नितिन बोस ऐसे फ़िल्मकार थे, जो अपनी कल्पनाशीलता से नीरस से नीरस विषय में भी जान डाल देते थे। अंग्रेज़ सरकार ने उनसे क्षय रोग उन्मूलन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनवायी थी, इसे उन्होंने इतना शानदार बना दिया कि लोगों ने इसे देख कर सजगता हासिल की और साथ इससे मनोरंजन भी पाया। इस वृतचित्र को नितिन जी ने फीचर फ़िल्म की तरह बनाया और नाम दिया “दुश्मन”। 1940 में उन्होंने इसका बंगाली रीमेक ‘लगन’ भी बनाया और वह भी खूब पसंद की गई। 1940 में ‘न्यू थियेटर्स’ में भयानक आग लग गई, जिससे काफ़ी क्षति हुई। जिस कारण नितिन बोस का कैरियर भी थोड़े बहुत प्रभावित हुआ, लेकिन जहाँ 1940 आते-आते ‘न्यू थियेटर्स’ के तमाम नामचीन निर्देशक, देवकी बोस, प्रमथेश बरुआ और फणी मजूमदार इसे छोड़ कर चले गये, वहीं उस दौरान भी नितिन बोस ने फ़िल्म ‘काशीनाथ’ बनायी, जिसके फ़िल्मांकन पर उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा।
फ़िल्म ‘काशीनाथ’ के बाद नितिन बोस ‘न्यू थियेटर्स’ और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) छोड़ कर ‘बंबई’ (वर्तमान मुम्बई) चले आये, जहाँ उन्होंने 1944-1945 के बीच तीन फ़िल्में ‘पराया धन’, ‘मुजरिम’ व ‘मज़दूर’ बनायी। 1946 में बंबई टॉकीज के भागीदारों ने नितिन बोस से अपने लिए फ़िल्म बनाने का अनुरोध किया और नितिन बोस ने बंबई टॉकीज के लिए पहली फ़िल्म रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी पर बनायी, जिसका नाम ‘मिलन’ था। फ़िल्म ‘मिलन’ के नायक दिलीप कुमार थे और इस फ़िल्म के छायाकार बॉलीवुड के महान् छायाकार राधू कर्मकार थे।
1949 में नितिन बोस ने ‘मशाल’ और 1950 में अशोक कुमार और दिलीप कुमार के अभिनय से सजी फ़िल्म ‘दीदार’ का निर्देशन किया। तीन वर्षों बाद उन्होंने ‘वारिस’ का भी निर्देशन किया, मगर शायद अभी उनकी क्लासिकी का नमूना आना बाकी था। इसलिए उन्होंने 1961 में ‘गंगा-जमुना’ बनायी, जो न सिर्फ़ सर्वकालिक महान् बॉलीवुड फ़िल्मों में है, बल्कि सर्वकालिक सुपरहिट फ़िल्मों में है।
नितिन बोस का निधन 14 अप्रैल, 1986 को कलकत्ता अब कोलकाता में हुआ। इस महान् हस्ती को भारतीय सिनेकारों की उच्च श्रेणी में गिना जाता है। उन्होंने अपनी मेहनत, लगन, प्रतिभा और जिज्ञासा व प्रयोगों से बॉलीवुड को समृद्ध किया।साभार