स्मृति शेष। सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां जिंदगी गर रही तो ये जवानी फिर कहां-ये ख्वाजा मीर ‘दर्द’ का शेर है और अगर किसी व्यक्ति पर यह पूरी तरह फिट बैठता है, तो वो हैं महापंडित राहुल सांकृत्यायन.वे संयुक्त प्रान्त अब उत्तर प्रदेश के पूरब के छोटे से गांव में पैदा होकर बिना किसी औपचारिक डिग्री के महापंडित की उपाधि से विभूषित हुए थे. वे लगभग 30 भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने 140 किताबें लिखी थीं जिनके विषय इतिहास से लगाकर दर्शन तक फैले थे, उन्होंने दुनिया की निरंतर यात्राएं की थीं या कि वे अंततः मार्क्सवाद के ग्रहण तक पहुंचे थे और जनता के अपने लेखक के रूप में प्रसिद्धि पाई थी.उन दिनों बाल विवाह का चलन था और इनकी भी शादी बचपन में ही करा दी गई. यह बात उन्हें जमी नहीं. वो घर छोड़ कर भागे और साधु हो गए. और दयानंद सरस्वती के अनुयायी यानी आर्य समाजी बन गए. साधु बन गए और उनका नाम केदारननाथ पाण्डेय से ‘रामोदर साधु’ हो गया. फिर 1930 में श्रीलंका पहुंचे और वहां बौद्ध धर्म की दीक्षा ली.जो घर से निकले तो पूरी दुनिया को घर बना लिया. कोलकाता, काशी, दार्जिलिंग, तिब्बत, नेपाल, चीन, श्रीलंका, सोवियत संघ… कदमों से उन्होंने दुनिया नाप दी. जहां गए, वहां की जुबान सीखी और फिर से कुछ लेकर और कुछ देकर निकले.राहुल जी की औपचारिक शिक्षा केवल मिडिल स्कूल तक ही हुई थी. इसमें सामान्य भारतीय परिवारों की तरह परिवार की आर्थिक तंगहाली कारण नहीं थी बल्कि शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं की औपचारिकताओं के प्रति उनके मन में पनपता विद्रोह था जिसके लिए उन्होंने बचपन से बार-बार घर से पलायन किया.हालांकि इसका खामियाजा उन्हें किसी उच्च शिक्षण संस्थान में औपचारिक पद से वंचित रहकर भुगतना पड़ा, सिवाय रूसी विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी पढ़ाने के निमंत्रण के. यह अच्छा ही हुआ कि विश्व संस्कृति को ऐसी बहुमुखी प्रतिभा मिली जिसके योगदान को एक योग्य अध्यापक की सीमा में रखकर शायद ही देखा जाय.राहुल सांकृत्यायन की तीन शादियां हुईं. पहली शादी बचपन में हो गई. उनकी पत्नी का नाम संतोषी देवी था. लेकिन उनसे उनकी मुलाकात नहीं हुई. उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है कि 40 साल की उम्र में उन्हें बस एक बार देखा था.
1937-38 में लेनिनग्राद यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के दौरान उनकी मुलाकात लोला येलेना से हुई. दोनों में प्रेम हुआ और शादी हुई. वहीं उनके बड़े बेटे इगोर का जन्म हुआ. जब वो भारत लौटे, तो उनकी पत्नी और बेटा वहीं रह गए.जीवन के आखिरी दौर में उनकी शादी डॉ. कमला से हुई. उनकी तीन संतान हुईं. एक बेटी और दो बेटे.राहुल जी की जीवन यात्रा के अध्याय इस प्रकार हैं- पहली उड़ान वाराणसी तक दूसरी उड़ान कलकत्ता तक तीसरी उड़ान पुन: कलकत्ता तक-इसके बाद पुन: वापस आने पर हिमालय की यात्रा पर गये,1990 से 1914 तक वैराग्य से प्रभावित रहे और हिमालय पर यायावर जीवन जिया। वाराणसी में संस्कृत का अध्ययन किया। परसा महन्त का सहचर्य मिला, आगरा में पढ़ाई की, लाहौर में मिशनरी कार्य किया, इसके बाद पुन: ‘घुमक्कड़ी का भूत’ हावी रहा। कुर्ग में भी चार मास तक रहे।
राहुल सांकृत्यायन ने छपरा के लिए प्रस्थान किया, बाढ़ पीड़ितों की सेवा की, स्वतंत्रता आंदोलन में सत्याग्रह में भाग लिया और उसमें जेल की सज़ा मिली, बक्सर जेल में छ: मास तक रहे, ज़िला कांग्रेस के मंत्री रहे, इसके बाद नेपाल में डेढ़ मास तक रहे, हज़ारी बाग़ जेल में रहे। राजनीतिक शिथिलता आने पर पुन: हिमालय की ओर गये, कौंसिल का चुनाव भी लड़ा। राहुल सांकृत्यायन ने लंका में 19 मास प्रवास किया, नेपाल में अज्ञातवास किया, तिब्बत में सवा बरस तक रहे, लंका में दूसरी बार गये, इसके बाद सत्याग्रह के लिए भारत में लौटकर आये। कुछ समय बाद लंका के लिए तीसरी बार प्रस्थान किया। राहुल सांकृत्यायन ने इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्रा की। दो बार लद्दाख यात्रा, दो बार तिब्बत यात्रा, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि 1935, ईरान में पहली बार, तिब्बत में तीसरी बार 1936. में, सोवियत भूमि में दूसरी बार 1937 में, तिब्बत में चौथी बार 1938 में यात्रा की।
किसान मज़दूरों के आन्दोलन में 1938-44 तक भाग लिया, किसान संघर्ष में 1936 में भाग लिया और सत्याग्रह भूख हड़ताल किया। राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। जेल में 29 मास (1940-42 ) रहे। इसके बाद सोवियत रूस के लिए पुन: प्रस्थान किया। रूस से लौटने के बाद राहुल जी भारत में रहे और कुछ समय के पश्चात् चीन चले गये, फिर लंका चले गये।
राहुल जी की प्रारम्भिक यात्राओं ने उनके चिंतन को दो दिशाएँ दीं। एक तो प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का अध्ययन तथा दूसरे देश-देशान्तरों की अधिक से अधिक प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करना। इन दो प्रवृत्तियों से अभिभूत होकर राहुल जी महान् पर्यटक और महान् अध्येता बने। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को 1958 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और सन् 1963 भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया।
राहुल सांकृत्यायन को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को ले जाया गया। मार्च, 1963 में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और 14 अप्रैल, 1963 को सत्तर वर्ष की आयु में सन्न्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया।एजेन्सी।