स्मृति शेष। जब भी ‘ब्लैक डेथ‘ के बारे में बात करते हैं तो सबसे पहले जवाब आता है ‘प्लेग। ‘ब्लू डेथ‘ यानी कि कॉलेरा, जिसे आम भाषा में हैजा कहा जाता है। 1817 से अस्तित्व में आई इस बीमारी से उस समय लगभग 180 लाख लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद भी अलग-अलग समय पर इसका प्रकोप भारत और अन्य देशों को झेलना पड़ा।
1884 में रॉबर्ट कॉख ( वैज्ञानिक) ने उस जीवाणु का पता लगाया जिसकी वजह से हैजा होता है- वाइब्रियो कॉलेरी। लेकिन इस बीमारी का इलाज ढूंढने में इसके बाद और 75 साल लगे और इलाज ढूंढ पाना संभव हुआ भारतीय वैज्ञानिक के करण। यह कहानी है भारतीय वैज्ञानिक शंभूनाथ डे की, जिन्होंने हैजे की सही वजह को ढूंढ़कर लाखों लोगों की जान बचाई। पर विडंबना की बात यह है कि आज उनके अपने ही देश में शायद ही कोई उनके बारे में जानता हो।
शंभूनाथ डे का जन्म 1 फरवरी 1915 को बंगाल के हुगली जिले में हुआ। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर थी लेकिन उन्हें पढ़ने का काफी शौक था। बताया जाता है कि उनके किसी रिश्तेदार ने उनकी पढ़ाई का खर्च उठाया और फिर उन्हें कलकत्ता अब कोलकाता मेडिकल कॉलेज से स्कॉलरशिप मिल गई। साल 1939 में उन्होंने अपनी मेडिकल प्रैक्टिस भी शुरू की लेकिन उनकी दिलचस्पी हमेशा से रिसर्च में ही थी। इसलिए 1947 में उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के कैमरोन लैब में पीएचडी में दाखिला लिया।
शंभूनाथ डे को शुरूआती दिनों में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। लेकिन फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपना ध्यान सिर्फ अपनी रिसर्च में लगाया। यहां पर मशहूर पैथोलोजिस्ट सर रॉय कैमरोन उनके मेंटर थे। शंभूनाथ डे वैसे तो आधिकारिक तौर पर दिल की बीमारी से संबंधित एक विषय पर शोध कर रहे थे। लेकिन जिस तरह से हैजे की वजह से भारत में लोगों की मौतें हो रहीं थीं, उसे देखकर उन्होंने इस पर काम करने की ठानी। 1949 में वह भारत लौटकर आए और उन्हें कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के पैथोलॉजी विभाग का निदेशक नियुक्त किया गया।
यह विभाजन के बाद का समय था और बंगाल में हैजे ‘ब्लू प्लेग’ का कहर टूटा हुआ था। उस समय, शंभूनाथ अपनी ड्यूटी खत्म होने के बाद लैब में इस बीमारी पर रिसर्च करते थे। उस समय अस्पताल हैजे के मरीज़ों से भरे पड़े थे, जिसके चलते उन्हें अपनी शोध के लिए काफी जानकारी हासिल हो रही थी।
रॉबर्ट कॉख ने हैजे के कारण का तो पता लगा लिया था लेकिन उनके मुताबिक यह जीवाणु व्यक्ति के सर्कुलेटरी सिस्टम यानी कि खून में जाकर उसे प्रभावित करता है। दरअसल यहीं पर रॉबर्ट कॉख ने गलती की, उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि यह जीवाणु व्यक्ति के किसी और अंग के ज़रिए शरीर में जहर फैला सकता है। लेकिन इस खोज को संभव किया शंभूनाथ डे ने। उन्होंने पता लगाया कि वाइब्रियो कॉलेरी खून के रास्ते नहीं बल्कि छोटी आंत में जाकर टोक्सिन/जहरीला पदार्थ छोड़ता है। इसकी वजह से इंसान के शरीर में खून गाढ़ा होने लगता है और पानी की कमी होने लगती है।
1953 में उन्होंने अपने शोध को प्रकाशित किया और यह ऐतिहासिक शोध था। उनकी इस खोज के बाद ही ऑरल डिहाइड्रेशन सॉल्यूशन इजाद हुआ जिसे कोई भी घर पर बना सकता है। इससे बंगाल और अफ्रीका में मुंह के ज़रिए पर्याप्त मात्रा में पाने देकर हजारों मरीज़ों की जान बचाई गई। एक समय था जब महामारी माने जाने वाले हैजा का खौफ इतना ज्यादा था कि गाँव-के-गाँव इसकी चपेट में आकर खत्म हो जाते थे, लेकिन अब यह सामान्य बीमारी मानी जाती है। यह सब शंभुनाथ डे की खोज के कारण ही मुमकिन हो सका।
A picture from Calcutta, 1894 during Cholera epidemic
1959 में उन्होंने यह भी पता लगाया कि इस जीवाणु द्वारा उत्पन्न टोक्सिन, एक्सोटोक्सिन है। शंभूनाथ आगे इस टोक्सिन पर और शोध करना चाहते थे लेकिन भारत में साधनों की कमी के चलते वह नहीं कर पाए। साथ ही, इतनी बड़ी खोज करने के बाद भी अपने देश में उन्हें गुमनामी ही मिली। 1973 में वह रिटायर हो गए। इसके बाद, 1978 में उन्होंने नोबेल फाउंडेशन ने गेस्ट स्पीकर के तौर पर उन्हें बुलाया, यहाँ पर उन्होंने अपने शोध और खोज के बारे में बात की। यहाँ दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने उन्हें सराहा।
उनका नाम एक से अधिक बार नोबेल पुरस्कार के लिए भी दिया गया। इसके अलावा, उन्हें दुनिया भर में सम्मानों से नवाज़ा गया। लेकिन उनके अपने देश से उन्हें कोई खास सम्मान नहीं मिला।
1985 में 15 अप्रैल को शंभूनाथ डे ने इस दुनिया को अलविदा कहा। उनकी मृत्यु के पांच साल बाद 1990 में करंट साइंस पत्रिका ने उनके ऊपर विशेष प्रति छापी थी। लेकिन हम शायद आज तक उन्हें वह सम्मान नहीं दे पाए, जिसके वह हक़दार हैं। द बेटर इंडिया से