विनोद उपाध्याय। लखनऊ। राजनेताओं ने चुनाव जीतने के लिए बाहुबलियों और सरकार चलाने के लिए नौकरशाहों का निजी हित में उपयोग शुरू किया था तब उन्हें इस बात का इलहाम नहीं रहा होगा कि सियासत के सपोर्टिंग ये एक्टर-बाहुबली और नौकरशाह खुद राजनेताओं को बेदखल कर राजनीति की रपटीली डगर पर कुलांचे भरने लगेंगे। 1990 के दौरान बूथ लूटने और बूथ कैप्चरिंग के मार्फत अपने चहेते नेता के सिर विजय मुकुट बांधने का काम करने वाले बाहुबलियोंने भी माननीय बनने के अपने सपनों को पंख देना शुरू कर दिया। तकरीबन दो-ढाई दशकों में यह चलन कहां तक पहुंचा है उसे इसी से समझा जा सकता है हर राजनीतिक दल बाहुबलियों से किनारा करने को लेकर स्यापा तो पीटता है पर किसी में इनसे छुट्टी पाने की ताकत नहीं है। कुछ इसी तर्ज पर कभी राजनेताओं के सपोर्टिंग ग्रुप के रूप में काम करने वाले नौकरशाहों ने भी अपनी स्थिति तैयार करनी शुरू कर दी। सरकार चलाने में नेताओं की मदद करने वाले नौकरशाहों ने राजनेताओं से पहले निजी ताल्लुक बनाए फिर इस टाइम टेस्टेड नौकरशाही ने खुद सियासत की डगर पकड़ ली। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि सूबे की नौकरशाही पूरी तरह राजनीतिक खेमों में बंट गई है।
कहा जाता है कि एक समय अयोध्या आंदोलन के दौरान वीएचपी अध्यक्ष अशोक सिंघल को अयोध्या तक पहुंच पाने में श्रीश चंद्र दीक्षित (सूबे के पुलिस महानिदेशक रहे) की मदद के इनाम के तौर पर ही उन्हें भाजपा ने टिकट दिया और बनारस की जनता ने भी उन्हें दो बार इनाम देते हुए संसद तक पहुंचाया। राम मंदिर आंदोलन की अगुवाई करने वाले प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक और वाराणसी के सांसद रह चुके श्रीश चन्द्र दीक्षित का निधन लखनऊ के एसजीपीजीआई में 8 अप्रैल 2014 को हुआ था। इससे पहले पथरी के इलाज के लिए वे एसजीपीजीआई में डायलिसिस पर थे। 2014 नरेंद्र मोदी को चुनाव जिताने के जोड़-तोड़ में लगे भाजपाई इतने व्यस्त थे कि कभी अपने सिपाही रहे दिग्गज नेता को ही भूल गए। तब जीवन-मौत से संघर्ष कर रहे अस्पताल में भर्ती हिंदूवादी नेता का हाल-चाल पूछने की भी उन्हें जरूरत भी महसूस नहीं हुई। उनके डॉक्टर बेटे विजय दीक्षित और परिवार के अन्य सदस्य ही तीमारदारी में जुटे रहे रहे । भाजपा में बुजुर्गों की बेकदरी बरकरार है। लालकृष्ण आडवाणी की गत तो सभी देख-सुन चुके हैं लेकिन वाराणसी के इस योद्धा को भी भूल गए। फोटो सोशल मिडिया से