हिन्दी के प्रथम तिलिस्मी लेखक बाबू देवकी नन्दन खत्री को हिंदी का पहला मौलिक उपन्यासकार होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने ‘चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता संतति’, ‘काजर की कोठरी’, ‘नरेंद्र-मोहिनी’, ‘कुसुम कुमारी’, ‘वीरेंद्र वीर’, ‘गुप्त गोंडा’, ‘कटोरा भर’ और ‘भूतनाथ’ रचनाएँ कीं। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में उनके उपन्यास ‘चंद्रकांता’ का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया था। इस किताब का रसास्वादन करने के लिए कई गैर-हिन्दीभाषियों ने हिन्दी भाषा सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने ‘तिलिस्म’, ‘ऐय्यार’ और ‘ऐय्यारी’ जैसे शब्दों को हिन्दी भाषियों के बीच लोकप्रिय बना दिया।
अठारहवीं सदी के अंत में जब उन्होंने चंद्रकांता रची थी, उस वक्त राजा-रजवाड़ों के पास मनोरंजन के लिए खूब वक्त था। समाज में रोजगार की आज वाली आपाधापी नहीं थी। सब के पास पर्याप्त वक्त था। रोचक कथाएं थीं, रोचक चर्चाएं थीं। ऐसे में इस वक्त को देवकी नंदन खत्री ने पकड़ा। वक्त की सलवटें देखीं, करवट बदलती मनोवृत्तियां समझीं। सत्ता का असर देखा। राजाओं की लिप्सा देखी, सभासदों के बीच सत्तासुख पाने की होड़ देखी। इस उठापटक की खाद ले खत्रीजी ने ऐयारों के साथ तिलिस्म की नगरी हमारे बीच रच डाली। नाम दिया-चंद्रकांता।हिंदी साहित्य में बाद में चलकर उपन्यास विधा का खूब विकास हुआ और उत्कृष्ट विषय-वस्तु, भाषा, शैली, चरित्र चित्रण, वातावरण और संदेश के मूल्यों पर श्रेष्ठ उपन्यासों की रचना की गई। इन परवर्ती उपन्यासों की तुलना करने पर खत्री जी की कृतियां ठहर नहीं पाती हैं किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि खत्री जी के उपन्यास एक विधा के प्रारंभ के सूचक हैं। देवकीनन्दन खत्री ने अपने उपन्यासों की रचना करके जन-साधारण के बीच हिंदी की प्रतिष्ठा स्थापित करने का बहुत बड़ा कार्य पूरा किया था। ये उपन्यास नैतिक दृष्टिकोण से सर्वथा हीन नहीं है। नायक का निष्ठावान, भाग्यवादी, वीर और न्यायप्रिय होना; ऐयारों-का वीर, स्वामिभक्त, अहिंसक और बात का धनी होना; प्रेम-चित्रों में वासना का अभाव होना; नायिकाओं में प्रेम की अनन्यता का दिखाया जाना और अन्त:क्रूर-कुविचारी पात्रों का सर्वनाश दिखाना आदि ऐसे तत्व इनमें मिलते हैं, जिनसे एक तो भारतीय नैतिक आदर्शवादी दृष्टिकोण की रक्षा हुई है, दूसरे सामान्य जातीय चरित्र की स्थूल रेखाओं का अंकन भी हो गया है। लेखक जिस ढंग से घटनाओं को बिखेर देता है, उलझा देता है और फिर समेट लेता है, सुलझा देता है, उससे उसकी उर्वर कल्पना-शक्ति और अद्भुत स्मरण-शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है।
बाबू देवकीनन्दन खत्री के पिता लाला ईश्वरदास उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में मुलतान से आकर काशी में बस गये थे। 1861 में समस्तीपुर (बिहार) में जन्मे देवकीनन्दन माँ-बाप के इकलौते पुत्र थे। बचपन का इनका अधिकांश समय अपनी ननिहाल पूसा (बिहार) में बीता। बाद में यहीं टिकारी रियासत में इन्होंने व्यापार आरंभ कर दिया। टिकारी नरेश इनके अच्छे मित्र थे। उनकी असमय मृत्यु के बाद खत्री जी ने टिकारी छोड़ दिया और काशी आ गये। काशी नरेश भी अपने बहनोई (टिकारी नरेश) के मित्र को बहुत मानते थे और उन्हीं के प्रभाव से खत्री जी ने चकिया-नौगढ़ के जंगलों का ठेका प्राप्त कर लिया।ठेकेदारी के अपने काम के कारण उनका अधिकांश समय प्रकृति की गोद में बीतता था। इस दौरान ये इधर-उधर घूम कर जंगल की शोभा देखते रहते। पुराने किलों और खंडहरों में भी इनकी खासी रूचि थी। बहुभाषाविद और सुपठित युवा देवकीनन्दन ने इस समय का सदुपयोग करने के लिये “चन्द्रकान्ता” लिखना आरंभ किया। अपनी रूचि और बचपन से ही राज-परिवारों से संपर्क के कारण आपको इनके कार्य-व्यवहारों का तो अच्छा ज्ञान था ही; अत: इन्हीं को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। “चन्द्रकान्ता” और उसके बाद “चन्द्रकान्ता-संतति” की लोकप्रियता ने आपको अभूतपूर्व ख्याति प्रदान की। इस बीच जंगल का ठेका किसी कारणवश इन्हें छोड़ना पड़ा और वे वापस आकर काशी के लाहौरी टोले के अपने पैतृक निवास में रहने लगे परंतु इससे इनके रचनाकर्म में कोई व्यवधान नहीं आया। अपने आखिरी समय तक भी खत्री जी लिखते रहे और अंत में “चन्द्रकान्ता-संतति” की कड़ी में से ही “भूतनाथ” के अतिरिक्त “वीरेन्द्रवीर और एक कटोरा खून” तथा “गुप्त-गोदना” उपन्यास अधूरे छोड़ 1 अगस्त, 1913 को स्वर्गवासी हुये। “भूतनाथ” के छ: खंड वे लिख चुके थे जिसे बाद में 21 खंडों में उनके पुत्र बाबू दुर्गाप्रसाद खत्री ने पूरा किया।एजेन्सी।