स्मृति शेष। डाक्टर प्रफुल्लचन्द्र राय भारत के महान रसायनज्ञ, उद्यमी तथा महान शिक्षक थे। आचार्य राय केवल आधुनिक रसायन शास्त्र के प्रथम भारतीय प्रवक्ता (प्रोफेसर) ही नहीं थे बल्कि उन्होंने ही इस देश में रसायन उद्योग की नींव भी डाली थी। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वाले उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था, “शुद्ध भारतीय परिधान में आवेष्टित इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वह एक महान वैज्ञानिक हो सकता है।” आचार्य राय की प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि उनकी आत्मकथा “लाइफ एण्ड एक्सपीरियेंसेस ऑफ बंगाली केमिस्ट” (एक बंगाली रसायनज्ञ का जीवन एवं अनुभव) के प्रकाशित होने पर अतिप्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका “नेचर” ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखा था कि “लिपिबद्ध करने के लिए संभवत: प्रफुल्ल चन्द्र राय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता।”
डॉ॰ राय को ‘नाइट्राइट्स का मास्टर’ कहा जाता है। उन्हें रसायन के साथ इतिहास से बड़ा प्रेम था। फलस्वरूप, इन्होंने 10-12 वर्षो तक गहरा अध्ययन कर हिंदू रसायन का इतिहास नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा, जिससे आपकी बड़ी प्रसिद्धि हुई। इस पुस्तक द्वारा प्राचीन भारत के अज्ञात, विशिष्ट रसायन विज्ञान का बोध देश और विदेश के वैज्ञानिकों को हुआ, जिन्होंने डॉ॰ राय की बहुत प्रशंसा की। यूरोप की कई भाषाओं में इस पुस्तक के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं तथा इसी पुस्तक के उपलक्ष्य में डरहम विश्वविद्यालय ने आपको डी. एस-सी. की सम्मानित उपाधि प्रदान की।
प्रफुल्लचंद्र राय का जन्म बंगाल के खुलना जिले के ररूली कतिपरा ग्राम में 2 अगस्त 1861 को कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता, श्रीहरिश्चंद्र राय, मध्यवृत्ति के संपन्न गृहस्थ तथा फारसी के विद्वान् थे। अंग्रेजी शिक्षा की ओर इनका आकर्षण था, इसलिये इन्होंने अपने गाँव में एक “मॉडल” स्कूल स्थापित किया था, जिसमें प्रफुल्लचंद्र ने प्राथमिक शिक्षा पाई। तदुपरांत इनका परिवार कलकत्ता चला आया, जहाँ ये उस समय के सुप्रसिद्ध हेयर स्कूल में प्रथम, तथा बाद में ऐल्बर्ट स्कूल में भरती हुए। 1879 में एंट्रेंस परीक्षा पास करके इन्होंने कालेज की पढ़ाई मेट्रॉपालिटन इंस्टिट्यूट में आरम्भ की, पर विज्ञान के विषयों का अध्ययन करने के लिये इन्हें प्रेसिडेंसी कालेज जाना पड़ता था। यहाँ इन्होंने भौतिकी और रसायन के सुप्रसिद्ध विद्वान् सर जॉन इलियट और सर ऐलेक्जैंडर पेडलर से शिक्षा पाई, जिनके संपर्क से इनके विज्ञानप्रेम में वृद्धि हुई।
1882 में गिल्क्राइस्ट छात्रवृत्ति प्रतियोगिता की परीक्षा में सफल होने के कारण विदेश जाकर पढ़ने की आपकी इच्छा पूरी हुई। इसी वर्ष आप एडिनबरा विश्वविद्यालय में दाखिल हुए, जहाँ अपने छह वर्ष तक अध्ययन किया। इनके सहपाठियों में रसायन के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर जेम्स वाकर एफ. आर. एस., ऐलेक्जैंडर स्मिथ तथा हफ मार्शल आदि थे, जिनके संपर्क से रसायनशास्त्र की ओर आपका विशेष झुकाव हुआ। इस विश्वविद्यालय की केमिकल सोसायटी के ये उपसभापति भी चुने गए। 1887 में आप डी. एस.सी. की परीक्षा में सम्मानपूर्वक उत्तीर्ण हुए। तत्पश्चात् आपने इंडियन एडुकेशनल सर्विस में स्थान पाने की चेष्टा की, पर अंग्रेजों की तत्कालीन रंगभेद की नीति के कारण इन्हें सफलता न मिली। भारत वापस आने के पश्चात् प्रांतीय शिक्षा विभाग में भी नौकरी पाने के लिये इन्हें एक वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। अंतत: प्रेसिडेंसी कालेज में आप असिस्टेंट प्राफेसर के सामान्य पद पर नियुक्त किए गए, जबकि इनसे कम योग्यता के अंग्रेज ऊँचे पदों और कहीं अधिक वेतनों पर उसी कालेज में नियुक्त थे। आपने जब इस अन्याय का शिक्षा विभाग के तत्कालीन अंग्रेज-डाइरेक्टर से विरोध किया, तो उसने व्यंग किया कि “यदि आप इतने योग्य कैमिस्ट हैं तो कोई व्यवसाय क्यों नहीं चलाते?” इन तीखे शब्दों का ही प्रभाव था कि राय महोदय ने आगे चलकर 1892 में 800 रूपए की अल्प पूँजी से, अपने रहने के कमरे में ही, विलायती ढंग की ओषधियाँ तैयार करने के लिये बंगाल कैमिकल ऐंड फार्मास्युटिकल वक्र्स का कार्य आरंभ किया, जो प्रगति कर आज करोड़ों रूपयों के मूल्य का कारखाना हो गया है और जिससे देश में इस प्रकार के अन्य उद्योगों का सूत्रपात हुआ है।
दुर्बल और क्षीणकाय होते हुए भी, संयमित तथा कर्मण्य जीवन के कारण, आपने 83 वर्ष की दीर्घ आयु पाई। 16 जून 1944, को आपका निधन हुआ। एजेन्सी।