स्मृति शेष। –ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर मशहूर ध्रुपद गायक थे। भारत की शास्त्रीय ध्रुपद गायन परंपरा के गायक ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर ‘डागर परिवार’ की समृद्ध संगीत परंपरा की 19 वीं पीढ़ी के प्रतिनिधि थे.सुर ताल और उसकी लय पर उनकी पकड़ गज़ब की थी. अलाप, विलंबित, मध्य और द्रुत लय पर उनका गायन सुनने लायक होता था. कहा जाता है कि 20 पीढ़ियों से ध्रुपद गायन की विरासत डागर परिवार ही संजो रहा है. शानदार ध्रुपदिया गायक उस्ताद ज़ियाउददीन डागर के बेटे फ़रीदुद्दीन ने अपने दिवंगत भाई ज़िया मोहिउद्दीन डागर (मशहूर रुद्र वीणा वादक) के साथ मिलकर ध्रुपद शैली के गायन को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई ।
फ़रीदुद्दीन का जन्म 15 जून 1932 को उदयपुर में हुआ था, जहां उनके पिता उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह के दरबार में संगीतज्ञ थे। फ़रीदुद्दीन ने देश विदेश के कई बड़े उत्सवों में अपनी कला का प्रदर्शन किया था। उन्होंने संगीत की शिक्षा अपने पिता उस्ताद ज़ियाउद्दीन खान साहब से ली थी। पिता ने उन्हें ध्रुपद गायन और वीणा वादन में प्रशिक्षित किया। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई से संगीत की शिक्षा ली। उस्ताद ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर उस परिवार से हैं जिसने 19 पीढिय़ों तक ध्रुपद गायकी को आगे बढ़ाया। उस्ताद ने ध्रुपद को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक प्रयास किए। उन्होंने बड़ी संख्या में देश-विदेश में कॉन्सर्ट किए, वर्कशॉप कीं। वे 1980 में आस्ट्रिया में निवास करने लगे इस दौरान उन्होंने फ्रांस और आस्ट्रिया में ध्रुपद की तालीम देना शुरू किया। तभी कुछ समय के लिए वे भोपाल आए। उस समय संस्कृति सचिव अशोक वाजपेयी ने उस्ताद के सामने ध्रुपद गुरुकुल शुरू करने का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने मान लिया और फिर उन्होंने यहां ध्रुपद की तालीम देना शुरू की। और भारत वापस आ गए। उन्होंने ध्रुपद केंद्र में 25 साल तक ध्रुपद की तालीम दी। वे आईआईटी बॉम्बे के ध्रुपद संसार में 5 साल तक अतिथि अध्यापक (गैस्ट फ़ैकल्टी) भी रहे।
वे डागर घराने के अन्य कलाकारों के भाँति ही फ़कीरी प्रकृति के कलाकार थे। मन में आया तो दो मीठे बोल पर और लड्डुओं में रात भर गा दिया, अन्यथा लाख रुपए को भी ठुकरा दिए। भोपाल ध्रुपद केंद्र में संगीत साधना कर रहे बिहार निवासी मनोज कुमार को दो वर्षों तक उस्ताद का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा सिखाने का अद्भुत तरीका था उनका। बहुत प्यार से सिखाते थे। मुझे तो उस वक्त कुछ आता नहीं था बस उनको सिखाते हुए देखता था। वे सबसे पहले स्वर की तैयारी करवाते थे। गायकी में स्वर स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। स्वर स्थान की तैयारी के बाद सामवेद की ऋचाएं जो ध्रुपद में गाई जाती है, उसे सिखाते थे। भोपाल ध्रुपद केंद्र में ही दीक्षा ले रहे मनीष कुमार कहते हैं वे हमारे दादा गुरु थे, उस्ताद के बारे में, उनके सिखाने की शैली के बारे में अपने गुरु उमाकांत गुंदेचा और रमाकांत गुंदेचा से अक्सर सुना करता था। लगभग वही चीजें, उसी शैली में हमारे गुरु भी सिखाते हैं। इसलिए हम ये नहीं कह सकते कि वे अब नहीं रहे। उनका शरीर भले ना रहा हो, शरीर तो नश्वर है लेकिन उनकी कृति तो हमेशा रहेगी और हमारा मार्गदर्शन करेगी।
वे हर साल मुहर्रम के अवसर पर जयपुर जाया करते थे। वे अपने घराने के कलाकारों के साथ रामगंज की घोड़ा निकास रोड स्थित बाबा बहराम ख़ाँ की चौखट पर रहकर मोहर्रम के नियम कायदों का निर्वहन किया करते थे। जयपुर की सुनीता अमीन ने भी उनसे ध्रुपद गायन की गहन शिक्षा ली। अपनी इसी शिष्या के साथ मिलकर यहां वे खो नागोरियान में ध्रुपद पीठ की स्थापना में लगे थे। जयपुर ध्रुपद के इस योगी की साधना का केंद्र बनने से तो रह गया, लेकिन उनकी कला और उनके द्वारा स्थापित की गई परंपराओं का यह शहर हमेशा गवाह रहेगा।
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें तानसेन सम्मान दिया गया। 1994 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से वे सम्मानित किए गए। उन्हें भारत सरकार द्वारा 2012 में पद्म श्री से सम्मानित करने की घोषणा की गई पर उन्होंने सम्मान लेने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि सरकार ने सीनियरिटी को नजरअंदाज़ करते हुए उनसे जूनियर ध्रुपद गायकों यह सम्मान पहले ही दे दिया था। 8 मई, 2013 को उनका निधन मुम्बई, में हो गया था। सोशल मिडिया से