दिलीप कुमार का जन्म ब्रिटिश हुकूमत वाले पेशावर में 11 दिसंबर, 1922 को हुआ था। उनका जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ था और शुरुआत में उनका नाम मोहम्मद युसूफ खान था। युसूफ खान की शुरुआती शिक्षा नासिक में हुई थी और वहीं पर पढाई के दौरान ही उनकी दोस्ती राज कपूर से हुई थी। इस दोस्ती ने उन्हें बॉलीवुड तक खींच लिया। दिलीप कुमार ने अपनी पहली फिल्म 22 साल की उम्र में की थी। जिसके बाद यह सिलसिला लगातार चलता गया। दिलीप कुमार ने बॉलीवुड को शहीद, मेला, नदिया के पार, बाबुल, फुटपाथ, देवदास, नया दौर, मुगल-ए-आजम, गंगा-जमुना, राम और श्याम, करमा जैसी फिल्में दी हैं। उनकी आखिरी फिल्म ‘किला’ थी जो 1998 में आई थी।
अभिनेता दिलीप कुमार को भारत सरकार ने कई अवार्ड से नवाजा था। उन्हें पद्म विभूषण, पद्म भूषण और दादा साहेब फाल्के सम्मानित अवार्ड्स से नवाजा गया था। उन्हें राजनीति में भी अपनी किस्मत आजमाई थी। 2000 से 2006 तक दिलीप कुमार राज्यसभा के सांसद भी रहे थे।
दिलीपकुमार साहब अच्छे पटकथा लेखक भी थे। अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन उन्होंने फि़ल्म लीडर में किया था। हालांकि लीडर कामयाब फि़ल्म नहीं थी, लेकिन उसकी कहानी ऐसी थी, जिसमें भविष्य के संकेत छिपे थे। उसमें वोट और राजनीति के सही चेहरे को दिखाया गया था। दिलीप कुमार ने फि़ल्मालय स्टूडियो में एक पेड़ के नीचे बैठकर लीडर की पटकथा लिखी थी। पूरी कहानी वोट की राजनीति और उद्योगपति-राजनीतिज्ञों के संबंधों की थी। यह तब की बात है, जब देश को आजाद हुए डेढ़ दशक हुए थे। वह #पंडितनेहरू का स्वप्न-काल था। राजनीति का आज जो स्वरूप है, वह उसी समय से गंदा होने लगा था। फि़ल्म में आचार्य जी (मोतीलाल) वैसे ही राजनीतिक किरदार थे, जो जनता के प्रति समर्पित थे। ईमानदारी और सेवा की राजनीति करते थे और जनता को भी उसी रास्ते पर ले जाना चाहते थे। चुनाव में वोट को बेचने को अपनी जमीर बेचने के बराबर समझते थे, लेकिन दूसरी तरफ काला करने वाले उद्योगपति दीवान महेंद्रनाथ (जयंत) थे, जो आचार्य जी के विचारों को खतरनाक मानते थे। उन्हें रुपये की ताकत पर भरोसा था और वे वोटों को खऱीदने के हिमायती थे। कहानी में एक अखबार था #यंगलीडर, जिसके संपादक थे विजय खन्ना यानी दिलीप कुमार। यह फि़ल्म छोटे बजट से शुरू हुई थी और ब्लैक एंड व्हाइट में बनाने का फैसला किया गया था। बाद में विचार बदलकर बजट को बड़ा कर दिया गया। फिर भी फि़ल्म ज्यादा चल नहीं पाई। काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन फि़ल्म की चर्चा खूब हुई। इसी फि़ल्म से अमजद खान ने बतौर सहायक निर्देशक फि़ल्मों में प्रवेश किया था। दिलीप कुमार ने इस फि़ल्म में अभिनय के कई रंग दिखाए। कॉमेडी, ट्रैजिडी, चुलबुली, गंभीर, प्यार करने वाला आदि। आश्चर्य की बात तो यह है कि फि़ल्म न चलने के बावजूद उन्हें इस रोल के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का फि़ल्म फेअर अवार्ड मिला था। इसमें #शकीलबदायूंनी का एक गाना था, जिसके बोल थे अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं..। इस गीत को #मोहम्मदरफी ने पंडित नेहरू के समक्ष गाया था। जिस समय #लीडर बननी शुरू हुई, उस समय भारत-चीन युद्ध चल रहा था। युद्ध को ध्यान में रखते हुए ही शकील बदायूंनी से यह गीत लिखने के लिए कहा गया था।
अभिनेता दिलीप कुमार की तबियत पिछले काफी दिनों से ठीक नहीं चल रही थी। मुंबई के हिंदुजा हॉस्पिटल में उनकी सेहत बिगड़ने के बाद उन्हें भर्ती कराया गया था। दिलीप कुमार के हेल्थ की अपडेट उनकी पत्नी सायरा बानू लगातार सोशल मीडिया पर देती रहती थी। बताया जा रहा है कि उनके फेफड़ों में फ्लूइड इकट्ठा था जिसके इलाज के बाद उन्हें घर भेज दिया गया था। लेकिन बीते 29 जून को दोबारा सांस लेने में दिक्कत महसूस होने पर उन्हें दोबारा अस्पताल में भर्ती कराया गया। 5 जुलाई 2021 को उनके ट्विटर अकाउंट के जरिये यह कहा गया था कि अब दिलीप कुमार की सेहत में सुधार हो रहा है। लेकिन सांस लेने में तकलीफ के चलते उन्होनें 7 जुलाई 2021 को सुबह करीब 7:30 बजे अंतिम सांस ली।एजेन्सी।