फ़िल्मी परदे पर नज़र आने वाले कई कलाकार, ख़ासतौर से चरित्र अभिनेता-अभिनेत्रियां ऐसे थे और आज भी हैं, जिन्होंने अपने अभिनय के दम पर हमें इस हद तक प्रभावित किया कि हमारे ज़हन में उनका चेहरा हमेशा के लिए दर्ज हो गया। लेकिन अफ़सोस की बात है कि उनमें से ज़्यादातर के बारे में फ़िल्मों से हटकर कोई और जानकारी होना तो दूर, हमें उनके नाम तक का भी कभी पता नहीं चल पाया। ऐसी ही कलाकार थीं ललिता कुमारी, जो परदे पर तो लगातार नज़र आती रहीं, पहचान उन्हें बीस सालों के संघर्ष के बाद मिली 1971 की फ़िल्म ‘गुड्डी’ से। इस फ़िल्म में उन्होंने स्कूल प्रिंसिपल का रोल किया था और फ़िल्म का मशहूर प्रार्थना गीत ‘हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें’ मुख्यत: उन्हीं पर फ़िल्माया गया था।
ललिता जी कौन थीं, कहां की रहने वाली थीं, वो फ़िल्मों में कैसे आयीं जैसे स्वाभाविक से प्रश्न मेरे मन में थे। लेकिन सिवाय उनकी फिल्मों के,उनके बारे में कोई भी अतिरिक्त जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं थी। न पत्र-पत्रिकाओं-पुस्तकों में,और न ही इन्टरनेट पर। हाल ही में मुझे ‘सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन’ से ललिता कुमारी जी का मोबाइल नंबर मिला। साथ ही ये भी पता चला कि उनका निधन हुए दस साल से भी ज़्यादा का समय बीत चुका है। अब सवाल ये, कि इतने सालों बाद क्या ये नंबर उन्हीं के नाम पर होगा? ट्रू कॉलर से पता चला कि वो नंबर किन्हीं नीता श्रीवास्तव के नाम पर है। मन में विचार उठा, कोशिश करने में क्या हर्ज़ है? ? सुखद आश्चर्य, कि फ़ोन पर जिन महिला नीता श्रीवास्तव जी से बात हुई, पता चला वो और उनके पति सुभाष श्रीवास्तव जी ‘बीते हुए दिन’ के प्रशंसक और नियमित दर्शक हैं। नीता जी ने बताया, ललिताकुमारी जी मोबाइल फ़ोन नहीं रखती थीं और तमाम लोगों से उनके संपर्क का ज़रिया नीता जी का ही नंबर था। नीता जी ने पूरा सहयोग करते हुए ललिता कुमारी जी के बारे में तमाम ज़रुरी जानकारी और उनकी कुछ दुर्लभ तस्वीरें उपलब्ध कराईं, जिसके लिए ‘बीते हुए दिन’ नीता जी का आभारी है।
ललिता कुमारी जी का जन्म 6 जुलाई 1938 को पेशावर में हुआ था। उनके पिता का नाम गोपीराम भाटिया और मां का नाम जानकीदेवी था। 5 भाई-बहनों में ललिता जी तीसरे नंबर पर थीं। सबसे बड़ा भाई प्रकाश, उनसे छोटी बहन कृष्णा, फिर ललिता जी, उनसे छोटा भाई गोपाल और सबसे छोटी बहन कमला थी। बंटवारे के बाद भाटिया परिवार मुम्बई आकर चेम्बूर में बस गया था।
ललिता जी दिखने में ख़ूबसूरत थीं इसलिए जल्द ही उन्हें फ़िल्मों के ऑफ़र मिलने लगे। भाटिया परिवार अपना सबकुछ पेशावर में ही छोड़कर ख़ाली हाथ भारत आया था, घर के आर्थिक हालात ठीक नहीं थे, इसलिए घर में भी इन ऑफ़र्स को लेकर किसी भी तरह का कोई विरोध नहीं हुआ। अभिनय की व्यस्तताओं की वजह से ही ललिता जी ज़्यादा पढ़ लिख नहीं पाईं। इसके बावजूद वो पंजाबी के साथ ही बहुत जल्द हिन्दी, बांग्ला, गुजराती, मारवाड़ी और अंग्रेज़ी में भी पारंगत हो गयी थीं।
ललिता कुमारी जी ने जिस फ़िल्म से डेब्यू किया, वो थी नवकेतन के बैनर की, चेतन आनंद के निर्देशन में बनी 1952 की ‘आंधियां’। इस फ़िल्म में ललिता जी सुरिंदर कौर के गाये गीत ‘मैं मुबारकबाद देने आई हूं, शहनाई हूं, मैं बेख़ुदी हूं प्यार की’ पर सोलो डांस करती नज़र आई थीं। आने वाले क़रीब दो दशकों में ललिता जी ने ‘तीन बत्ती चार रास्ता’, ‘अलीबाबा और चालीस चोर’, ‘फ़िफ्टी फ़िफ्टी’, ‘बंजारिन’, ‘बंबई का बाबू’, ‘सेहरा’, ‘हम सब उस्ताद हैं’, ‘देवर’, ‘दो बदन’, ‘आराधना’, ‘दो भाई’ और ‘कटी पतंग’ समेत तीन दर्जन फ़िल्मों में काम किया। 1971 की हिट फ़िल्म ‘गुड्डी’, जिसमें प्रिन्सिपल के रोल और फ़िल्म की सुपरहिट प्रार्थना ‘हमको मन की शक्ति देना’ ने उन्हें दर्शकों के बीच अमिट पहचान दी।
1950 के दशक के आख़िर में ललिता जी की शादी हुई। उनके पति बासुदेव प्रसाद सिन्हा मूलतः पटना – के रहने वाले थे और दादर – मुम्बई के श्रीसाउंड स्टूडियो के मैनेजर थे। वो बी.पी. सिन्हा के नाम से जाने जाते थे। सिन्हा जी से किसी शूटिंग के दौरान हुई ललिता कुमारी जी की मुलाक़ात दोस्ती में, दोस्ती से प्रेम में और प्रेम से प्रेम विवाह में बदल गयी थी। और इस तरह शादी के बाद वो ललिता कुमारी भाटिया से ललिता कुमारी सिन्हा हो गयी थीं।
कहते हैं कि 1940 के दशक में बी.पी. सिन्हा जी ने कुछ फ़िल्मों का निर्माण भी किया था, हालांकि काफ़ी कोशिशों के बावजूद उन फिल्मों की जानकारी हमें मिल नहीं पायी। ‘गुड्डी’ के बाद ललिता जी के करियर ने रफ़्तार पकड़ी और अगले क़रीब ढाई दशकों में उन्होंने ‘आनंद’, ‘अमर प्रेम’, ‘जवानी दीवानी’, ‘अभिमान’, ‘नया दिन नयी रात’, ‘चुपके चुपके’, ‘तपस्या’, ड्रीमगर्ल’, ‘दिल्लगी’, ‘थोड़ी से बेवफ़ाई’, ‘क्रांति’, ‘नगीना’ और ‘रामलखन’ कई हिट फ़िल्में कीं। क़रीब 4 दशकों के अपने करियर में उन्होंने डेढ़ सौ फ़िल्मों में काम किया और फिर 1994 की ‘गोपीकिशन’ के बाद रिटायरमेंट ले लिया।
ललिता जी मारवाड़ी बोली के नाटकों में भी नियमित तौर पर हिस्सा लेती थीं। उन्होंने रेडियो पर चित्रलेखा के नाम से कुछ गीत भी गाये थे। 1980 के दशक में दूरदर्शन धारावाहिक ‘श्रीकांत’ में उनका किरदार बहुत पसंद किया गया था। ‘श्रीकांत’ उनके करियर का इकलौता धारावाहिक था।
सिन्हा दंपत्ति के हमेशा ही वी.शांताराम, हृषिकेश मुकर्जी, बासु चटर्जी, शक्ति सामंत, दुलाल गुहा, दारा सिंह और सुनील दत्त जुड़े तमाम दिग्गज निर्माता-निर्देशकों और साथी अभिनेताओं के साथ दोस्ताना रिश्ते बने रहे। उन सभी ने ललिता जी की प्रतिभा को सराहा और इसीलिये ललिता जी को कभी भी काम की कमी नहीं रही।
ललिता जी से सम्बंधित तमाम जानकारी उपलब्ध कराने वाली नीता श्रीवास्तव जी का ललिता जी से खून का रिश्ता तो नहीं था, लेकिन वो बचपन से ही ललिता जी के साथ परिवार का हिस्सा बनकर रहीं। नीता जी के पिता जे.पी. (जनार्दन प्रसाद) सिन्हा चित्रकार थे। वो भी पटना के रहने वाले थे और फ़िल्मों में आर्ट डायरेक्टर बनने का सपना लिए 1960 के दशक के शुरूआती सालों में मुम्बई आए थे। वो बी.पी. सिन्हा जी के नाम पटना से किसी का सिफ़ारिशी पत्र लेकर आए थे। बी.पी.सिन्हा श्री साउंड स्टूडियो में ही रहते थे। उन्होंने और ललिता जी ने जे.पी.सिन्हा की भरपूर मदद की, उन्हें अपने घर में पनाह दी और तमाम फ़िल्मी लोगों से उनका परिचय कराया।
नीता जी बताती हैं, ‘मैं ललिता जी को नानी और उनके पति को दद्दा कहकर बुलाती थी। मेरी मां भी बिहार से ही थीं। शादी के बाद पिताजी मां को मुम्बई लेकर आए तो नानी और दद्दा ने उन्हें भी अपने परिवार का हिस्सा बना लिया। मेरे जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का समय श्रीसाउंड स्टूडियो में ही बीता। नानी की अपनी कोई संतान नहीं थी। दुर्भाग्य से उनके दोनों भाई 1979 में 6 महीने के अन्दर ही गुज़र गए थे। भाईयों के पत्नी-बच्चे चेम्बूर में रहते थे।”
नीता श्रीवास्तव के पिता जे.पी. सिन्हा ने संजीव कुमार और रेहाना सुलतान की फिल्म ‘दस्तक’ में असिस्टेंट आर्ट डायरेक्टर से लेकर ‘एक नज़र’, ‘अनहोनी’, ‘बेनाम’, ‘दो चट्टानें’, ‘डाक बंगला’ और ‘गंगाधाम’ फ़िल्में बतौर आर्ट डायरेक्टर कीं। 1981 में , 38 साल की उम्र में हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। नीता जी की उम्र उस वक़्त 7 साल थी।
वो कहती हैं, “ऐसे में दद्दा और नानी ने मुझे और मां को सम्भाला और वोही हमारा सहारा बने|।नानी के मन में लड़कियों के प्रति ख़ास स्नेह था। मुझे उनसे बहुत प्यार मिला। 1991 में दद्दा गुज़रे तो नानी श्रीसाउंड का अपना रिहायशी हिस्सा ख़ाली करके, मुझे और मेरी मां को साथ लेकर चेम्बूर में, नानी के पिता के ख़ाली पड़े मकान में शिफ्ट हो गयीं। मेरी शादी 1999 में हुई। 2005 में जब सायन के प्रतीक्षानगर में महाराष्ट्र हाउसिंग डेवलपमेंट अथॉरिटी की लाटरी में मेरे नाम से फ्लैट निकला तो हम चेम्बूर से सायन चले आए, जहां मेरी मां के निधन के महज़ 6 महीनों के भीतर, 5 जुलाई 2012 को 74 साल की उम्र में नानी यानि ललिता कुमारी जी भी दुनिया को अलविदा कह गयीं। आज न तो दद्दा और नानी हैं और न ही मेरे माता-पिता। नानी के भाई-भाभी-बहनें बहुत पहले ही दुनिया से जा चुके थे। आज सायन के फ्लैट में मैं अपने पति और दो बेटों के साथ रहती हूं। अब अगर कुछ शेष है, तो वो हैं सिर्फ़ यादें!”-शिशिर कृष्ण शर्मा