महाश्वेता देवी का नाम ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। उन्होंने मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा। उन्होंने अपने को पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया। उन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी 1926 को ढाका में हुआ था। उनके पिता मनीष घटक कवि और एक उपन्यासकार थे और उनकी माता धारीत्री देवी भी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उनकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय किशोरवस्था में ही उनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में उन्होने विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से स्नातक (प्रतिष्ठा) अंग्रेजी में किया और फिर कोलकाता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में आपने अपना जीवन शुरू किया। तदुपरांत आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। तदपश्चात 1984 में लेखन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आपने सेवानिवृत्त ले ली।
महाश्वेता जी ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपकी पहली उपन्यास, “नाती”, 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम गद्य रचना है। जो 1956 में प्रकाशन में आया। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, “इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।” इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पुणे, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। आप बताती हैं कि “पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है।” उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में ‘नटी’, ‘मातृछवि ‘, ‘अग्निगर्भ’ ‘जंगल के दावेदार’ और ‘1084 की मां’, माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में,उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है।
इनकी कई रचनाओं पर फ़िल्म भी बनाई गई। इनके उपन्यास ‘रुदाली ‘ पर कल्पना लाज़मी ने ‘रुदाली’ तथा ‘हजार चौरासी की माँ’ पर इसी नाम से 1998 में फिल्मकार गोविन्द निहलानी ने फ़िल्म बनाई। इन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मश्री ,1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें नेल्सन मंडेला के हाथों प्रदान किया गया था। इस पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपये इन्होंने बंगाल के पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत इनके उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की गाथा है। उपन्यास ‘अग्निगर्भ’ में नक्सलबाड़ी आदिवासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में लिखी गई चार लंबी कहानिया है।
(सभी बंग्ला से हिन्दी में रुपांतरण) अक्लांत कौरव, अग्निगर्भ, अमृत संचय, आदिवासी कथा, ईंट के ऊपर ईंट, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, उम्रकैद, कृष्ण द्वादशी, ग्राम बांग्ला, घहराती घटाएँ, चोट्टि मुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, जकड़न, जली थी अग्निशिखा, झाँसी की रानी, टेरोडैक्टिल, दौलति, नटी, बनिया बहू, मर्डरर की माँ, मातृछवि, मास्टर साब, मीलू के लिए, रिपोर्टर, रिपोर्टर, श्री श्री गणेश महिमा, स्त्री पर्व, स्वाहा और हीरो-एक ब्लू प्रिंट आदि । 28 जुलाई 2016 को कोलकाता में उनका देहावसान हो गया।एजेंसी।