शायर-नग़मा निगार राजा मेहदी अली ख़ान ने बीसवीं सदी की चौथी दहाई से अपना अदबी सफ़र शुरू किया जो तीन दहाइयों तक जारी रहा। वे इस दरमियान न सिर्फ मज़ाहिया शायरी का बड़ा नाम रहे, बल्कि फिल्मों में उन्होंने जो गीत-ग़ज़ल लिखीं, वे बेमिसाल हैं। दोनों ही काम साथ-साथ चलते रहे। एक तरफ मज़ाहिया शायरी थी, जिसमें उन्हें तंज़-ओ-मिज़ाह से काम लेना पड़ता था, तो दूसरी ओर फिल्मी गीत थे, जिसमें रूमानी शायरी लिखना पड़ती थी। (राजा मेहदी अली खान का जन्म अविभाजित भारत के झेलम में 23 सितम्बर 1915 को हुआ था ) फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से हीरो-हीरोईन के जज़्बात को नग़मों में ढालना पड़ता था। दोनों ही काम वे इस हुनरमंदी से करते कि मालूम ही नहीं चलता था यह तख़्लीक़, एक ही शख़्स की है। राजा मेहदी अली ख़ान ने मज़ाहिया शायरी में काफी नाम-शोहरत हासिल की।
उनका क़लम से तआल्लुक एक सहाफ़ी (पत्रकार) के तौर पर शुरू हुआ। अपने मामू के अख़बार ‘ज़मींदार’ के अलावा बच्चों की एक पत्रिका ‘फ़ूल’ में उन्होंने जर्नलिस्ट की हैसियत से काम किया। राजा मेहदी अली ख़ान की पहली मज़ाहिया नज़्म, उस दौर के मशहूर रिसाले ‘अदबी दुनिया’ में शाया हुई। जो ख़ूब पसंद की गई। इसके बाद वे पाबंदगी से मज़ाहिया शायरी करने लगे। साल 1942 में राजा मेहदी अली ख़ान दिल्ली चले आए और वहां ऑल इंडिया रेडियो में स्टाफ आर्टिस्ट के तौर पर जुड़ गए। वहीं उनकी मुलाक़ात हुई, मशहूर उर्दू अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो से। मंटो से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई, जो आख़िरी वक़्त तक क़ाइम रही। ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी में न तो मंटो ज़्यादा दिन तक टिके और न ही राजा मेहदी अली ख़ान। पहले मंटो, यह नौकरी और शहर छोड़कर मुंबई चले गए, फिर उसके बाद उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को भी वहां बुला लिया। मंटो फिल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़े हुए थे और अदाकार अशोक कुमार उनके गहरे दोस्त थे। अशोक कुमार से कहकर, उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को भी काम दिलवा दिया।
‘आठ दिन’ वह फिल्म थी, जिससे राजा मेहदी अली ख़ान ने फिल्मों में शुरुआत की। ‘आठ दिन’ की स्क्रिप्ट लिखने के साथ-साथ उन्होंने और मंटो ने इस फिल्म में अदाकारी भी की। राजा मेहदी अली ख़ान बुनियादी तौर पर शायर थे और ज़ल्द ही उन्हें अपना मनचाहा काम मिल गया। फिल्मिस्तान स्टूडियो के मालिक एस. मुखर्जी ने जब फिल्म ‘दो भाई’ बनाना शुरू की, तो इस फिल्म के गीत लिखने के लिए, उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को साइन कर लिया। इस तरह फिल्मों में गीतकार के तौर पर उनकी नई शुरुआत हुई, जिसे उन्होंने आख़िरी दम तक नहीं छोड़ा। साल 1946 में रिलीज हुई ‘दो भाई’ में राजा मेहदी अली ख़ान ने मौसिकार एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में दो गाने ’मेरा सुंदर सपना बीत गया’ और ‘याद करोगे, याद करोगे इक दिन हमको..’ लिखे। इन गीतों को आवाज़ दी गीता राय (दत्त) ने। दोनों ही गाने सुपर हिट साबित हुए और इसके बाद राजा मेहदी अली ख़ान ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
फिल्म ‘दो भाई’ की रिलीज के एक साल बाद ही, साल 1947 में मुल्क आज़ाद हो गया, लेकिन हमें यह आज़ादी बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क में हिंदू-मुस्लिम फ़साद भड़क उठे। नफ़रत और हिंसा के माहौल के बीच मुल्क हिंदुस्तान और पाकिस्तान के नाम से तक़सीम हो गया। लाखों हिंदू और मुसलमान एक इलाके से दूसरे इलाके में हिज़रत करने लगे। ज़ाहिर है, राजा मेहदी अली ख़ान के सामने भी अपना मादरे-वतन चुनने का मुश्किल वक़्त आ गया। उनके पुश्तैनी घर-द्वार, रिश्तेदार-नातेदार, दोस्त अहबाब सब पाकिस्तान में थे। लेकिन उन्होंने वहां न जाते हुए, हिंदुस्तान में ही रहने का फ़ैसला किया। ऐसे माहौल में जब चारों और मार-काट मची हुई थी और एक-दूसरे को शक, अविश्वास की नज़रों से देखा जा रहा था, राजा मेहदी अली ख़ान का हिंदुस्तान में ही रहने का फ़ैसला, वाक़ई काबिले तारीफ़ था। खैर, यह संगीन दिन भी गुज़रे।
साल 1948 में राजा मेहदी अली ख़ान को फिल्मिस्तान की ही एक और फिल्म ‘शहीद’ में संगीतकार ग़ुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में गीत लिखने का मौका मिला। इस फिल्म में उन्होंने चार गीत लिखे, जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ और ‘आजा बेदर्दी बालमा’ की खूब धूम रही। जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ ऐसा गीत है, जो आज भी राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि के मौके पर हर जगह बजाया जाता है।
राजा मेहदी अली ख़ान का फिल्मों में कामयाबी का सिलसिला एक बार जो शुरू हुआ, तो यह फिर नहीं थमा। उस दौर का शायद ही कोई बड़ा मौसिकार और सिंगर था, जिसके साथ उन्होंने काम नहीं किया हो। लेकिन उनकी सबसे अच्छी जोड़ी मौसिकार मदन मोहन और ओ.पी. नैयर के साथ बनी। राजा मेहदी अली ख़ान ने साल 1951 से लेकर 1966 तक यानी पूरे डेढ़ दशक, मदन मोहन के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे। इस जोड़ी के सदाबहार गानों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिसमें से कुछ गाने ऐसे हैं, जो आज भी उसी शिद्दत से याद किए जाते हैं। इन गानों को सुनते ही श्रोता, खुद भी इनके साथ गुनगुनाने लगते हैं।
‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे’, ‘है इसी में प्यार की आबरू, वह जफ़ा करें मैं वफ़ा करूं’ (फिल्म अनपढ़, 1962), ‘मैं निग़ाहें तेरे चेहरे से हटाऊं कैसे’, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है मुझे सब अपने ग़म दे दो’ (फिल्म आपकी परछाइयां, 1964), ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनाई, आप क्यों रोए’, ‘लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो’ (फिल्म वो कौन थी, 1964), ‘आख़िरी गीत मुहब्बत का सुना लूं तो चलूं’ (फिल्म नीला आकाश, 1965), ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’, ‘नैनो में बदरा छाए, बिजली-सी चमकी हाय’, ‘झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में’ (फिल्म मेरा साया, 1966)। इन गीतों में से ज्यादातर गीत सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गाए हैं। यह गीत न सिर्फ राजा मेहदी अली ख़ान और मदन मोहन के सर्वश्रेष्ठ गीत हैं, बल्कि लता मंगेशकर के भी सर्वश्रेष्ठ गीतों में शुमार किए जाते हैं।
साल 1960 से लेकर 1966 तक का दौर राजा मेहदी अली ख़ान का फिल्मों में सुनहरा दौर था, जिसमें उन्होंने अपने चाहने वालों को शानदार नग़मों की सौगात दी। ‘मेरा साया’ उनकी आख़िरी फिल्म थी, जिसके सारे के सारे गाने सुपर हिट साबित हुए।
राजा मेहदी अली ख़ान एक हरफ़नमौला अदीब थे, जिन्होंने अदब के अलग-अलग हलकों में एक जैसी महारत से काम किया। ख़ास तौर से मज़ाहिया शायरी में उनकी, दूसरी मिसाल नहीं मिलती। ‘ज़मींदार’ अख़बार में उनकी मज़ाहिया नज़्में लगातार छपीं। मज़ाहिया नज़्मों में राजा मेहदी अली ख़ान कमाल करते थे। उनमें हास्य बोध ग़ज़ब का था। अदबी एतबार से भी उन्होंने कभी इन नज़्मों का मेयार नहीं गिरने दिया। अपनी एक लंबी नज़्म में तो उन्होंने उर्दू अदब के तमाम बड़े अदीबों के नाम का इस्तेमाल कर, एक ऐसी नज़्म रची कि ये अदीब भी इसे पढ़कर मुस्कराए बिना नहीं रहे। नज़्म इस तरह से है, ‘तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ/बहत्तर इन में छुपे हैं नश्तर जो सब के सब आज़मा रहा हूँ/लिहाफ़ ‘इस्मत’ का ओढ़ कर तुम फ़साने ‘मंटो’ के पढ़ रही हो/पहन के ‘बेदी’ का गर्म कोट आज तुम से आँखें मिला रहा हूँ/फ़साना-ए-इश्क़ मुख़्तसर है क़सम ख़ुदा की न बोर होना/’फ़िराक़-गोरखपुरी’ की ग़ज़लें नहीं मैं तुम को सुना रहा हूँ/तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ।’
राजा मेहदी अली ख़ान का पहला शे’री मजमूआ ‘मिज़राब’ था, तो वहीं साल 1962 में उनकी मज़ाहिया शायरी की दूसरी और आख़िरी किताब ‘अंदाज़-ए-बयां और’ प्रकाशित हुई। ‘चांद का ग़ुनाह’ उनकी एक दीगर किताब है। फिल्मी नग़मों, मज़ाहिया शायरी के अलावा राजा मेहदी अली ख़ान ने अफ़साने भी लिखे, जो उस दौर के मशहूर रिसाले ‘बीसवीं सदी’, ‘ख़िलौना’ और ‘शमा’ में शाया हुए। राजा मेहदी अली ख़ान की नज़्मों में तंज़ो मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) तो था ही, उन्होंने तंज़ो मिज़ाह के मज़ामीन भी लिखे, जो कि उस वक्त ‘बीसवीं सदी’ पत्रिका में नियमित प्रकाशित होते थे।
अपने दोस्तों को उन्होंने जो ख़ुतूत लिखे, वे भी त़ंज़ो मिज़ाह के शानदार नमूने हैं। इन ख़तों में भी उनका हास्य-व्यंग्य देखते ही बनता है।
शायर-नग़मा निगार राजा मेहदी अली ख़ान ने अपने बीस साल के फिल्मी करियर में तकरीबन 72 फिल्मों के लिए 300 से ज्यादा गीत लिखे, जिसमें ज़्यादातर गीत अपनी बेहतरीन शायरी की बदौलत देश-दुनिया में मक़बूल हुए। उन्हें बहुत छोटी उम्र मिली। फिल्मी दुनिया में जब वे अपने उरूज पर थे, तभी क़ुदरत ने उन्हें हमसे छीन लिया। यदि उन्हें ज़िंदगी के कुछ साल और मिलते, तो वे अपने नग़मों से हमें और भी मालामाल करते। 29 जुलाई 1966 को महज 38 साल की उम्र में यह बेमिसाल शायर-नग़मा निगार इस जहाने फ़ानी से हमेशा के लिए रुख़सत हो गया।
मशहूर अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने राजा मेहदी अली ख़ान की मौत पर उन्हें याद करते हुए क्या ख़ूब लिखा था,‘‘राजा मेहदी अली ख़ान एक बच्चा था और जब भी किसी बच्चे को मौत हमारे बीच से उठाकर ले जाती है, तो इस कायनात की मासूमियत में कहीं न कहीं कोई कमी ज़रूर रह जाती है।’’जाहिद ख़ान