अहमद फऱाज़ पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तानी के उन उर्दू कवियों में थे जिन्हें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली।अहमद फऱाज़ का असली नाम ‘सैयद अहमद शाह अली था। भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया, पलकों पर बिठाया और उनकी गज़़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा।अहमद फऱाज़ की पैदाइश 12 जनवरी 1931 (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का 1934 भी बताया है) को पाकिस्तान के सरहदी इलाक़े में हुआ। उनके वालिद शिक्षक थे। वे अहमद फऱाज़ को प्यार तो बहुत करते थे लेकिन यह मुमकिन नहीं था कि उनकी हर जिद वे पूरी कर पाते। बचपन का वाकय़ा है कि एक बार अहमद फऱाज़ के पिता कुछ कपड़े लाए। कपड़े अहमद फऱाज़ को पसन्द नहीं आए। उन्होंने ख़ूब शोर मचाया कि ‘हम कम्बल के बने कपड़े नहीं पहनेंगे। बात यहाँ तक बढ़ी कि ‘फऱाज़ घर छोड़कर फऱार हो गए। वह फऱारी तबियत में जज़्ब हो गई। आज तक अहमद फऱाज़ फऱारी जी रहे हैं। कभी लन्दन, कभी न्यूयार्क, कभी रियाद तो कभी मुम्बई और हैदराबाद। पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू तथा फ़ारसी में एम. ए. करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर, पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज ऑफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे।शायरी का शौक़ बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक़क़ी पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और फ़ैज़ अहमद फैज़़ के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारने पड़े। फऱाज़ को क्रिकेट खेलने का भी शौक़ था। लेकिन शायरी का शौक़ उन पर ऐसा ग़ालिब हुआ कि वो दौरे हाजिऱ के ग़ालिब बन गए। उनकी शायरी की कई किताबें क्षय हो चुकी हैं। गज़़लों के साथ ही फऱाज़ ने नज़्में भी लिखी हैं। लेकिन लोग उनकी गज़़लों के दीवाने हैं। इन गज़़लों के अशआर न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि वो उन्हें याद हैं और महफिलों में उन्हें सुनाकर, उन्हें गुनगुनाकर फऱाज़ को अपनी दाद से नवाजते रहते हैं।
25 अगस्त 2008 को आसमाने-गज़़ल का ये रोशन सितारा हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया। साथ ही गज़़लों, मुशायरों और महफिलों को भी बेनूर कर गया। फऱाज़ की ही गज़़ल का मिसरा है – सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते जब बात उर्दू गज़़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें मीर तक़ी मीर, ग़ालिब आदि की चर्चा जरूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में गज़़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू गज़़ल का जि़क्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फऱाज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फऱाज़ गज़़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने गज़़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले तारीफ़ काम किया। गज़़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फऱाज़ तक आते-आते उर्दू गज़़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फऱाज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फऱाज़ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो गज़़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फऱाज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फिऱाक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फऱाज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रख रखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा। अहमद फऱाज़ की शायरी के आलोचकों का यह भी मानना है कि अहमद फऱाज़ की शायरी की शोहरत आम होने की वजह उनकी शायरी की बाहरी सजावट और अहमद फऱाज़ का अपना सजीला व्यक्तित्व है। लेकिन पाठक को इससे कोई फ़कऱ् नहीं पड़ता कि उनकी शोहरत में उनके व्यक्तित्व का कितना हाथ है, क्योंकि शायरी की दुनिया में बाहरी चमक-दमक अधिक समय तक नहीं टिकती, जबकि अहमद फऱाज़ की शायरी दशकों बाद आज भी अपनी महत्ता बरकऱार रखे हुए है। यह सही हो सकता है कि अहमद फऱाज़ को ख्याति मुशायरों से मिली, पर मुशायरों पर छाए रहने वाले कितनी ही शायर अपनी लहक और चमक खोने के बाद अतीत का हिस्सा बन गए हैं, जबकि अहमद फऱाज़ का पहले से ज़्यादा आज मौजूद होना उनकी शायरी के दमख़म का पता देता है। हिजरत यानी देश से दूर रहने की पीड़ा और अपने देश की यादें अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साथ उनके यहाँ मिलती हैं।कुछ शेर देंखें : वो पास नहीं अहसास तो है, इक याद तो है, इक आस तो है दरिया-ए-जुदाई में देखो तिनके का सहारा कैसा है।मुल्कों मुल्कों घूमे हैं बहुत, जागे हैं बहुत, रोए हैं बहुत अब तुमको बताएँ क्या यारो दुनिया का नज़ारा कैसा है।ऐ देश से आने वाले मगर तुमने तो न इतना भी पूछा वो कवि कि जिसे बनवास मिला वो दर्द का मारा कैसा है।फऱाज़ की शायरी पर हिन्दुस्तान अनेक समकालीन रचनाकारों ने अपनी राय ज़ाहिर की है। मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बार लिखा कि-”फऱाज़ अपने वतन के मज़लूमों के साथी हैं। उन्हीं की तरह तड़पते हैं, मगर रोते नहीं। बल्कि उन जंजीरों को तोड़ते और बिखेरते नजर आते हैं जो उनके माशरे के जिस्म को जकड़े हुए हैं। उनका कलाम न केवल ऊँचे दर्जे का है बल्कि एक शोला है, जो दिल से ज़बान तक लपकता हुआ मालूम होता है। एजेन्सी।