स्मृति शेष-राजेन्द्र कृष्ण हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध गीतकार थे। राजेंद्र कृष्ण का जन्म 6 जून, 1919 को गुजरात के जलालपुर जट्टन गांव में (अब पाकिस्तान ) दुग्गल परिवार में हुआ था। जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे तब उन्हें कविता की ओर आकर्षित किया गया था। उन्होंने शिमला में नगर पालिका में 1942 तक क्लर्क के रूप में काम किया था। उस अवधि के दौरान, उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी लेखकों को बड़े पैमाने पर पढ़ा और कविता लिखी उन्होंने फ़िराक़ गोरखपुरी और अहसान डैनीज के उर्दू कविता, पेंट और निरला की हिंदी कविताओं के लिए अपनी ऋणी व्यक्त की। उन दिनों दिल्ली-पंजाब के समाचार पत्रों ने विशेष पूरक कार्यक्रमों को जन्म दिया और कृष्ण जन्माष्टमी को चिह्नित करने के लिए कविता प्रतियोगिता आयोजित की, जिसमें उन्होंने नियमित रूप से भाग लिया।
1940 के दशक के मध्य में, कृष्णन पटकथा लेखक बनने के लिए मुंबई (अब बम्बई) गए। 1947 में पहली बार जनता फ़िल्म की पटकथा लिखी और उसी वर्ष एक और फ़िल्म जंजीर में गीत लिखने का मौका मिल गया। जंजीर का कोई गीत नेट पर उपलब्ध नहीं है। उसके संगीत निर्देशक कृष्ण दयाल थे और गीत पंडित फानी, पंडित गाफिल, लालचंद बिस्मिल और राजेंद्र कृष्ण ने लिखे। 1948 के शुरू होते ही महात्मा गांधी की हत्या के बाद ‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी’ से उनका नाम घर-आंगन में गूंजने लगा। यह गीत मोहम्मद रफ़ी ने गाया था और इसकी धुन उस जमाने के प्रख्यात संगीत निर्देशक हुस्नलाल भगतराम ने बनाई थी। उसी वर्ष आज की रात के गीतों से मशहूर हुए। आज की रात में उन्होंने सामाजिक यथार्थ को अपने गीत का विषय बनाते हुए लिखा ‘क्या जाने अमीरी जो ग़रीबी का मजा है दौलत उन्हें दी है तो हमें सब्र दिया है’। स्वर मीना कपूर का है और इसकी धुन हुस्नलाल भगतराम ने बनाई है। यह किसी गजल का मतला भी हो सकता है और किसी गीत का मुखड़ा भी लेकिन अपने गर्भ में यह कबीर के इस दोहे का रौशन बीज छुपाए हुए है ‘गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान जब आए संतोषधन सब धन धूरि समान’। इसी फ़िल्म में सुरैया की आवाज में राजेंद्र कृष्ण का एक और गीत मशहूर हुआ ‘क्यूं ले चला है ऐ दिल मुझको प्यार की गली में हो’। जी. एम. दुर्रानी की पुरदर्द आवाज में राजेंद्र का यह गीत भी मकबूल हुआ।
‘प्यार की शमा को तकदीर बुझाती क्यूं है किसी बर्बादे-मोहब्बत को सताती क्यूं है’। और 1948 में बनी फ़िल्म प्यार की जीत में क़मर जलालाबादी और राजेंद्र कृष्ण के गीत थे। राजेंद्र का यह गीत बहुत मकबूल हुआ ‘तेरे नैनों ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया परदेसिया’। 1948 में ‘बापू की यह अमर कहानी’ इस कदर मकबूल हो गया था कि 1949 की फ़िल्म का नाम ही अमर कहानी रख दिया गया और उसमें गीत लिखने की दावत राजेंद्र कृष्ण को ही दी गई। सुरैया की आवाज में इस फ़िल्म का यह गीत बहुत मकबूल हुआ ‘दीवाली की रात पिया घर आने वाले हैं सजन घर आने वाले हैं’। इसकी धुन हुस्नलाल भगतराम ने बनाई थी। इस फ़िल्म के और भी कई गीत मकबूल हुए; उनमें गीता दत्त की गाई एक गजल भी थी जिसका मतला इस तरह था ‘ये कैसी दिल्लगी है कहां का ये प्यार है कुछ ऐतबार भी नहीं कुछ ऐतबार है’। सुरैया की आवाज में राजेंद्र का यह गीत भी बहुत पसंद किया गया ‘उमंगों पर जवानी छा गई अब तो चले आओ तुम्हारी याद फिर तड़पा गई अब तो चले आ’’। 1949 में लाहौर और बड़ी बहन के ‘चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है , ‘चले जाना नहीं’ जैसे सुपरहिट गानों के साथ राजेंद्र जी अग्रिम पंक्ति के गीतकार बन गए। लाहौर में संगीत दिया था प्रख्यात निर्देशक श्यामसुंदर ने और राजेंद्र कृष्ण का यह गीत बेहद मकबूल हुआ ‘बहारें फिर भी आएंगी मगर हम तुम जुदा होंगे घटाएं फिर भी छाएंगी मगर हम तुम जुदा होंगे’। एक गीतकार के रूप में वह दीनानाथ मधोक और क़मर जलालाबादी के नजदीक पड़ते हैं जो मन की भावनाओं को सीधे-सच्चे शब्दों में और सादा अंदाज में कहने में यकीन रखते हैं और कोरी भावनाओं को कविता का साज-सिंगार पहनाने की चिंता नहीं करते। श्रोता तक उनकी कविता सुनते-सुनते ही संवेदित हो जाती है, उसे समझने और सराहने के लिए उसे कोशिश नहीं करनी पड़ती, कसरत का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। बड़ी बहन के गीतों की लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि बड़ी बहन के निर्माता ने खुश होकर गीतकार राजेंद्र कृष्ण को एक ऑस्टिन कार भेंट की और गीत लिखने के लिए एक हजार रु. माहवार पर नौकर रख लिया। 1949 में आसूदाहाल लोग ही ऑस्टिन कार का सपना देखते थे और एक हजार प्रति माह की तनख्वाह अच्छी-खासी रकम हुआ करती थी। फिर तो राजेंद्र जी की गाडी चल पड़ी अलबेला, अनारकली, आज़ाद, भाई भाई, देख कबीरा रोया, छाया, पतंग, ब्लफ मास्टर, भरोसा, पूजा के फूल, खानदान आदि फ़िल्मों के लिए गाने लिखे और मशहूर हुए, इसके अलावा राजेंद्र जी तमिल बहुत अच्छे तरह से जानते थे सो 18 तमिल फ़िल्मो के लिए पटकथा और गाने भी लिखे।
दरअसल लता, सी. रामचन्द्र और राजेंद्र कृष्ण की एक तिकड़ी बनती है और ये तीनों जब भी एक जगह जमा होते हैं तो एक से बढ़कर एक रसवंती रचनाएं अस्तित्व में आती हैं। लता-रामचंद्र और राजेंद्र की तिकड़ी ने अनारकली में बहुत अच्छा संगीत दिया है। इस फ़िल्म के गीत ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती’, मोहब्बत में दिल का धड़कना तो आम है, हिंदी-उर्दू शायरी ऐसी धड़कनों से भरी पड़ी है; लेकिन यहां तो उसे धड़कन ही बना दिया गया है। यह रूपक अलंकार का चमत्कार है जो इस सीधे-सादे बयान को कविता के रुपहले रूमाल में लपेटकर एक नई आभा दे रहा है।
प्रसिद्ध गीत
जादूगर सैयां छोड़ दे बैयाँ -चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है-वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी-मेरे महबूब क़यामत होगी-छूप गया कोई रे, दूर से पुकार के-कौन आया मेरे मन के द्वारे-ये जिंदगी उसी की है-ज़रूरत है ज़रूरत है एक श्रीमती की-मै चली मै चली देखो प्यार की गली-मेरे सामने वाली खिड़की में-देखा न हाय रे सोचा न हाय रे-कोई कोई रात ऐसी होती है-पल पल दिल के पास तुम रहती हो। राजेन्द्र कृष्ण ने फ़िल्म खानदान (1965) में “तुम्ही मेरे मंदिर, तुम्ही मेरी पूजा” के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीता था।
1966 की फ़िल्म नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे में आशा भोंसले की आवाज़ में राजेंद्र का यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ ‘कोई शिकवा भी नहीं कोई शिकायत भी नहीं और तुम्हें हमसे वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं’। अब राजेंद्र को फ़िल्मों का मिलना कम हो गया था लेकिन जब भी मौका मिलता था वह कोई न कोई मकबूल गीत रच देते थे और सुर्खियों में आ जाते थे। 1970 की फ़िल्म गोपी में उनका लिखा यह गीत देखिए: ‘सुख के सब साथी दु:ख का न कोय मेरे राम मेरे राम तेरा ना है सांचा दूजा न कोय’। गोपी में महेंद्र कपूर का भी एक सदाबहार गीत है जो आज भी सुनने को मिल जाता है, ‘रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलजुग आएगा हंस चुगेगा दाना-दुनका कौवा मोती खाएगा’। अब राजेंद्र पचास के लपेटे में थे लेकिन उम्र ने उनके तेवरों पर जरा भी असर नहीं छोड़ा था। पर अब गीतकारों की नई खेप आ गई थी और उन्हें मिलने वाले काम में कमी आ गई थी। वह इसकी परवा भी कहां करते थे? घुड़दौड़ में 46 लाख का कर मुक्त जैकपॉट जीतकर वह पहले ही फ़िल्म उद्योग के सबसे धनी लेखक कहलाने लगे थे। अपने परम मित्र संतोषी की तरह वह ऐयाशी से खर्च करने वाले शख्स न थे बल्कि पैसे का विवेकशील उपयोग करने में विश्वास करते थे। लेकिन वह अंतिम दिनों तक सक्रिय रहने में भी विश्वास करते थे इसलिए जब भी मौका मिलता था, काम से इनकार नहीं करते थे। कुछ न कुछ काम उन्हें आखिरी दम तक मिलता रहा। इसके अलावा वो तमिल भाषा पर भी हिंदी जैसा ही अधिकार रखते थे और तमिल फ़िल्मों के लिए भी उतने ही मशहूर थे।
हिंदी के कम पाठक जानते हैं कि राजेंद्र कृष्ण ने एवीएम स्टूडियो के लिए 18 फ़िल्में तमिल में लिखी थीं। उनकी अंतिम फ़िल्म अल्ला रक्खा 1986 में आई , 23 सितम्बर, 1987 को बंबई में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से पहले वह आग का दरिया के लिए गीत लिख रहे थे। यह फ़िल्म उनकी मृत्यु के 3 साल बाद 1990 में प्रदर्शित की गई। अनुराधा पौड़वाल का गीत ‘रिश्ते में मोहब्बत का संसार हमारा था’ आम तौर पर उनका आख़िरी गीत है। फोटो सोशल मिडिया से साभार