18वीं सदी के उत्तराद्रर्ध तक तोता-मैना व शीत-बसंत जैसे कथानकों को अपदस्थ कर बाबू देवकीनंदन खत्री के हंगामी तिलस्मी उपन्यास हिंदी के पाठकों का एक बड़ा वर्ग तैयार कर चुके थे। बात साफ थी कि चंद्रकांता जैसे उपन्यासों की एय्यारी की चाहत अब चस्के की शक्ल ले चुकी थी। देवकी बाबू के निधन के बाद एकबारगी लगा कि लेखन की इस लोकप्रिय विधा में बड़ा शून्य पैदा हो जाएगा पर ऐसा हुआ नहीं। देवकी बाबू की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बाबू दुर्गा प्रसाद खत्री (जन्म: 12 जुलाई 1895, मृत्यु: पांच अक्टूबर 1974) ने फौरन पिता की फाउंटेन पेन में रोशनाई की नई डोज डाली और यशस्वी पिता की अधूरी रचनाओं को पूर्णता देने के साथ ही तिलस्मी उपन्यासों की नई श्रृंखला शुरू कर दी। साथ ही अपनी खास शैली में विज्ञान के चमत्कारों के साथ भेदियागिरी को जोड़ते हुए जासूसी उपन्यासों का एक ऐसा चलन चलाया जो आगे चल कर ओमप्रकाश शर्मा, इब्ने सफी बीए, वेदप्रकाश काम्बोज से लेकर इस दौर में हिंदी के सफलतम जासूसी उपन्यासकार सुरेंद्र मोहन पाठक तक चलता चला आया।
दुर्गा प्रसाद खत्री बाबू की महत्ता सही मायनों में यह है कि उन्होंने हिंदी उपन्यासों के लेखन में खुद अपनी एक अलग लीक गढ़ते हुए जासूसी उपन्यास लेखन की पहली पहलकदमी की। सही मायनों में उनकी रचनाधर्मिता का यदि इमानदारी से मूल्यांकन हुआ होता तो उनकी हस्ती अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासों के जनक शरलाक होम्स से जरा भी कमतर नहीं होती। प्रतिशोध, लाल पंजा, रक्ता मंडल, सुफैद शैतान जैसे उपन्यास जहां जासूसी के थ्रिल से लोगों को रोमांचित करते थे, वहीं उनमें कहीं न कहीं राष्ट्रीयता का पुट भी हुआ करता था। सुफैल शैतान नावेल में उन्होंने जिस तरह से संपूर्ण एशिया के एकीकरण और उसके एकमेव वर्चस्व की कल्पना की है, वह अपने आप में दुर्गा बाबू की मौलिक सोच का जीता जागता प्रमाण है। आगे चल कर उन्होंने सुवर्ण रेखा, स्वर्ण पुरी, सागर सम्राट, साकेत और काला चोर जैसे डेढ़ दर्जन उपन्यासों की रचना की। अकेला व कलंक कालिमा जैसे उपन्यास भी रचे। माया उनका एकमात्र कथा संग्रह है। अफसोस कि हिंदी जगत इस विरले लेखक की अनूठी रचनाओं को सहेज नहीं सका। [कुमार अजय] दैनिक जागरण से साभार