कुल्लू घाटी में विजयदशमी के पर्व का परंपरा, रीतिरिवाज, और ऐतिहासिक दृृष्टि से बहुत महत्व है। पूरे देश में इस दिन रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण की प्रतिमाएँ जलाने का रिवाज हैं जिसमें अच्छाई की बुराई पर विजय दर्शायी जाती है। जिस दिन पूरे देश में दशहरे की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सकुल्लू घाटी में विजयदशमी के पर्व का परंपरा, रीतिरिवाज, और ऐतिहासिक दृृष्टि से बहुत महत्व है। पूरे भारतवर्ष में इस दिन रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण की प्रतिमाएँ जलाने का रिवाज हैं जिसमें अच्छाई की बुराई पर विजय दर्शायी जाती है। जिस दिन पूरे देश में दशहरे की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव की शुरुआत होती है। रथ यात्रा की रम्यता, खरीददारी का उल्लास और धार्मिक परंपराओं की धूम इस ज्वार को विविधता से भर देती हैं।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मनाया जाने वाला दशहरा उत्सव देश के प्राचीनतम त्योहारों में से एक है। व्यास नदी के किनारे पर बसे कुल्लू शहर में यह उत्सव बड़े जोर-शोर और उल्लास से मनाया जाता है। ढोल, शहनाई, तुरही और लम्बे रणसिंहे वाद्यों के सामूहिक नाद एवं स्वर के मध्य पर्वतीय क्षेत्रों से जुड़े हर प्रकार के देवी-देवताओं को पालकी बड़े जुलूस में उत्सव स्थल पर लाई जाती है। इस देव यात्रा में सभी कुछ देखने को मिलेगा। तांबे से पीतल के वाद्य यंत्र, हर तरह के रंग-बिरंगे झंडे, पताकाएं और देवी-देवताओं के नकाशीदार छत्र व चंवर, विशेष चिन्ह जो अलग डंडे पर चलते हैं, इनके साथ ही पहाड़ी की घाटियों, पगडंडियों और बल खाते रास्तों से आते है। देवी-देवताओं की सेवा में रत पुजारी, पंडे, पुरोहित और तरह-तरह के गुरू आदि। यहां आने वाले देवी-देवताआं में आपस में भाई-बहन, छोटे-बड़े, गुरू-चेले आदि हर तरह के रिश्ते बताए जाते हैं। पुरानी मान्यताओं के अनुसार कुल्लू में विजयदशमी के पर्व को इस तरह उत्सव मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 में हुई। फुहारी बाबा के नाम से जाने जाने वाले किशन दास संत ने राजा जगत सिंह को सलाह दी कि कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की र्पतिमा की स्थापना की जाये। उनके आदेश का पालन करते हुए जुलाई 1651 अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना की गई। कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी दुस्साध्य रोग से पीडि़त हो गये थे। इस मूर्ति के चरणामृत सेवन से उसका रोग जाता रहा और धीरे-धीरे वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। इसके बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान को अर्पण कर दिया।
इस तरह यहाँ दशहरे का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाने लगा। अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी 365 देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं जो राजघराने की देवी मानी जाती है। कुल्लू में प्रवेशद्वार पर राजदंड से उसका स्वागत किया जाता है और उनका राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में प्रवेश होता है। हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उसका आशीर्वाद लेने आते हैं। इसके उपरांत हिडिंबा का प्रवेश होता है। रथ में रघुनाथ जी की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है।
पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है। रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है। राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना हो जाते हैं। सौ से ज्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है। मंडी से कुल्लू जाने वाले हरियाली से घिरे रास्तों पर घर की बुनी सदरी और गोल टोपी से सजे पुरुषों को पीटते चलते हैं। बचे हुए लोग जब साथ में नाचते गाते हुए इस मंडली को संपूर्णता प्रदान करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे पहाड़ की घाटी के सन्नाटे में उत्सव का संगीत भर गया हो। पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख कर ऐसा र्पतीत होता है मानो सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं। जैसे-जैसे नगर नजदीक आता है पर्व के शोर का रोमांच अपनी ऊँचाइयों को छूने लगता है। घाटी विस्तृत होने लगती है और भीड़ घनी होने लगती है। उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकढ्ठे आकर मिलते हैं जिसे मोहल्ला कहते हैं। रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा लेकिन लुभावना होता है। सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है। सातवे दिन रथ को व्यास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ कुछ कंटीले पेड़ों को लंकादहन के रूप में जलाया जाता है। इसके बाद रथ वापस अपने स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुर्नस्थापित किया जाता है। इस तरह विश्व विख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।
धालपुर की धरती इस समय देश के कोने-कोने से आए व्यापारियों से भी भरी रहती है। इस समय राजकीय स्तर पर कई प्रदर्शनियाँ लगती हैं। रात में कला केंर्द में अंतर्राष्ट्रीय कला महोत्सव का भी आनंद लिया जाता है। कुल्लू दशहरा घाटी में मनाए जाने वाले सभी त्यौहार और महोत्सवों का अंतिम त्यौहार है। त्योहारों की अगली शुरुआत मार्च के महीने से होती है। व की शुरुआत होती है। रथ यात्रा की रम्यता, खरीददारी का उल्लास और धार्मिक परंपराओं की धूम इस ज्वार को विविधता से भर देती हैं।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में मनाया जाने वाला दशहरा उत्सव देश के प्राचीनतम त्योहारों में से एक है। व्यास नदी के किनारे पर बसे कुल्लू शहर में यह उत्सव बड़े जोर-शोर और उल्लास से मनाया जाता है। ढोल, शहनाई, तुरही और लम्बे रणसिंहे वाद्यों के सामूहिक नाद एवं स्वर के मध्य पर्वतीय क्षेत्रों से जुड़े हर प्रकार के देवी-देवताओं को पालकी बड़े जुलूस में उत्सव स्थल पर लाई जाती है। इस देव यात्रा में सभी कुछ देखने को मिलेगा। तांबे से पीतल के वाद्य यंत्र, हर तरह के रंग-बिरंगे झंडे, पताकाएं और देवी-देवताओं के नक्काशीदार छत्र व चंवर, विशेष चिन्ह जो अलग डंडे पर चलते हैं, इनके साथ ही पहाड़ी की घाटियों, पगडंडियों और बल खाते रास्तों से आते है। देवी-देवताओं की सेवा में रत पुजारी, पंडे, पुरोहित और तरह-तरह के गुरू आदि। यहां आने वाले देवी-देवताआं में आपस में भाई-बहन, छोटे-बड़े, गुरू-चेले आदि हर तरह के रिश्ते बताए जाते हैं। पुरानी मान्यताओं के अनुसार कुल्लू में विजयदशमी के पर्व को इस तरह उत्सव मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 में हुई। फुहारी बाबा के नाम से जाने जाने वाले किशन दास नामक संत ने राजा जगत सिंह को सलाह दी कि कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की जाये। उनके आदेश का पालन करते हुए जुलाई 1651 अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना की गई। कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी दुस्साध्य रोग से पीडि़त हो गये थे। इस मूर्ति के चरणामृत सेवन से उसका रोग जाता रहा और धीरे-धीरे वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। इसके बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान को अर्पण कर दिया।
इस तरह यहाँ दशहरे का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाने लगा। अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी 365 देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं जो राजघराने की देवी मानी जाती है। कुल्लू में प्रवेशद्वार पर राजदंड से उसका स्वागत किया जाता है और उनका राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में प्रवेश होता है। हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उसका आशीर्वाद लेने आते हैं। इसके उपरांत हिडिंबा का प्रवेश होता है। रथ में रघुनाथ जी की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है।
पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है। रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है। राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना हो जाते हैं। सौ से ज्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है। मंडी से कुल्लू जाने वाले हरियाली से घिरे रास्तों पर घर की बुनी सदरी और गोल टोपी से सजे पुरुषों को पीटते चलते हैं।
बचे हुए लोग जब साथ में नाचते गाते हुए इस मंडली को संपूर्णता प्रदान करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे पहाड़ की घाटी के सन्नाटे में उत्सव का संगीत भर गया हो। पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं। जैसे-जैसे नगर नजदीक आता है पर्व के शोर का रोमांच अपनी ऊँचाइयों को छूने लगता है। घाटी विस्तृत होने लगती है और भीड़ घनी होने लगती है। उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकढ्ठे आकर मिलते हैं जिसे मोहल्ला कहते हैं। रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा लेकिन लुभावना होता है। सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है। सातवे दिन रथ को व्यास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ कुछ कंटीले पेड़ों को लंकादहन के रूप में जलाया जाता है। इसके बाद रथ वापस अपने स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुर्नस्थापित किया जाता है। इस तरह विश्व विख्यात कुल्लू का दशहरा हर्षोल्लास के साथ संपूर्ण होता है।
धालपुर की धरती इस समय देश के कोने-कोने से आए व्यापारियों से भी भरी रहती है। इस समय राजकीय स्तर पर कई प्रदर्शनियाँ लगती हैं। रात में कला केंर्द में अंतर्राष्ट्रीय कला महोत्सव का भी आनंद लिया जाता है। कुल्लू दशहरा घाटी में मनाए जाने वाले सभी त्यौहार और महोत्सवों का अंतिम त्यौहार है। त्योहारों की अगली शुरुआत मार्च के महीने से होती है।एजेंसी।