महाराजा दलीप सिंह (6 सितम्बर 1838) लाहौर महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे पुत्र तथा सिख साम्राज्य के अन्तिम शासक थे। इन्हें 1843 में पाँच वर्ष की आयु में अपनी माँ रानी ज़िन्दाँ के संरक्षण में राजसिंहासन पर बैठाया गया।
ज़िन्दाँ रानी पंजाब के महाराज रणजीत सिंह की पाँचवी रानी थीं। दलीप सिंह के पिता महाराजा रणजीत सिंह की उनके पैदा होने के अगले साल ही मृत्यु हो गई थी जिससे पंजाब में अशांति फैल गई। 1845 में दूसरा अंग्रेज़-सिख युद्ध हुआ तो ब्रितानियों के पास पंजाब में घुस आने का शानदार मौका आ गया था। 1869 में पंजाब पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े के बाद महाराजा दलीप सिंह को तख्त से हटा दिया गया। युवा महाराजा को उनकी मां जिंद कौर, जिन्हें कैद कर लिया गया था, से अलग कर दिया गया और उन्हें लाहौर में अपने घर से दूर फ़तेहगढ़ ले जाया गया। यह इलाका अब उत्तर प्रदेश में है।
यह ब्रितानी अधिकारियों की पत्नियों और बच्चों का ठिकाना बन गया था- भारत के अंदर ब्रितानी बस्ती की तरह। महाराजा दलीप सिंह को आर्मी के सर्जन जॉन स्पेंसर लोगन और उनकी पत्नी के संरक्षण में सौंप दिया गया और उन्हें बाइबिल भी दी गई।उन्हें अंग्रेज़ों की तरह ज़िंदगी जीना सिखाया गया। उनकी भाषा, संस्कृति, धर्म से उन्हें अलग कर दिया गया और वह ब्रितानियों के आश्रित बन गए। यहां ब्रितानी उन्हें जैसे चाहे ढाल सकते थे।अंततः युवा महाराजा ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। मई 1854 में वह इंग्लैंड पहुंचे और उन्हें क्वीन विक्टोरिया से मिलाया गया, जिन्हें वह तुंरत ही पसंद आ गए। वह बेहद आकर्षक राजकुमार थे रानी उनसे अपने प्रिय बेटे की तरह व्यवहार करती थीं। उन्हें हर शाही समारोह में बुलाया जाता, और तो और उन्होंने रानी विक्टोरिया और राजकुमार एल्बर्ट के साथ छुट्टियां भी बिताई थीं। वह शानदार पार्टियों के ऐसे हिस्से बन गए जिन्हें हर लॉर्ड और लेडी अपने कार्यक्रम में बुलाना चाहते थे।एक दशक तक महाराजा दलीप सिंह अपनी शानदार स्थिति का लुत्फ़ उठाते रहे। वह बहुत विलासिता भरी ज़िंदगी जीते थे, शाही परिवार के साथ शिकार और निशानेबाज़ी करते और पूरे यूरोप में घूमा करते।
व्यक्तिगत रूप से वह सबसे अच्छे अंग्रेज़ सामंत बन चुके थे लेकिन सार्वजनिक रूप से वह अब भी ख़ुद को भारतीय राजकुमार के रूप में पेश करते थे।कई वर्षों के बाद राजा दलीप सिंह, जो कि लंबे अरसे से विदेश में इंग्लैंड में रह रहे थे, उन्होंने अपनी माता से संपर्क करने की कोशिश की। लेकिन सरकार की चालाकी के चलते दो कोशिशों के बाद भी उनका यह प्रयास विफल रहा। अंत में राजा दलीप सिंह ने ‘सर जॉन लॉगिन’ की मदद से, जो कि विदेश में हमेशा ही उनके सहायक के रूप में सामने आए, उनकी मदद से नेपाल जाकर अपनी माता से मिलने का फैसला किया। जब राजा दलीप सिंह नेपाल आए तो उन्हें वृद्ध और नेत्रहीन हो चुकी अपनी माता जिंद कौर मिलीं। उस समय रानी जिंदा कौर अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर आ चुकी थीं। यह वह समय था जब भारत-चीन का युद्ध हुआ था और उस दौर में सिख रेजिमेंट ही सबसे अधिक उभर कर सामने आया था। इस गर्वमयी और सम्मानजनक माहौल के बीच राजा दलीप सिंह अपनी माता को इंग्लैंड ले जाने में सफल हुए। इंग्लैंड में 1 अगस्त, 1863 की सुबह नींद के दौरान ही रानी जिंदा ने अपनी आखिरी सांस ली। उनके अंतिम संस्कार के लिए राजा दलीप सिंह को को पार्थिव शरीर को पंजाब ले जाने की अनुमति तो नहीं मिली किंतु कुछ समय के पश्चात वे शव को मुंबई लाए और उसका दाह संस्कार कर गोदावरी नदी के पास अपनी माता जी का एक स्मारक बनवाया।
महाराजा दलीप सिंह ने बांबा मुलर से शादी कर ली, जो क़ाहिरा में पैदा हुई थीं और बेहद आस्थावान ईसाई थीं.उनके छह बच्चे हुए और वह एल्वेडन हॉल में रहने लगे, जो ग्रामीण इलाके सफ़क में था। लेकिन 1870 तक महाराजा आर्थिक दिक़्क़तों में घिर गए थे. ब्रितानी सरकार से मिलने वाली पेंशन पर छह बच्चों का लालन-पालन और विलासी जीवन बिताने का मतलब यह था कि वह बुरी तरह क़र्ज़ में डूबे हुए थे।
उन्होंने सरकार से भारत में मौजूद अपनी ज़मीन और जायदाद के बारे में पूछना शुरू कर दिया और दावा किया कि पंजाब पर क़ब्ज़ा कपटपूर्ण तरीके से किया गया था। उन्होंने भारत में अपनी जायदाद के लिए हर्जाना मांगते हुए सरकार को अनगिनत चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 31 मार्च, 1886 को महाराजा दलीप सिंह ने अपनी ज़िंदगी का सबसे साहसिक कदम उठाया। वह अपने परिवार के साथ समुद्र मार्ग से भारत के लिए चल पड़े और ब्रितानियों को बताया कि वो फिर से सिख बन रहे हैं और अपनी ज़मीन पर दावा करेंगे। ब्रितानी एक और बग़ावत का ख़तरा नहीं उठा सकते थे। जब महाराजा का जहाज़ भारत के रास्ते में पड़ने वाले एडेन में रुका तो महाराजा को हिरासत में लेकर नज़रबंद कर दिया गया।उनका परिवार ब्रिटेन लौट गया। लेकिन महाराजा दलीप सिंह ने सिख धर्म ग्रहण कर लिया।
कई साल हताशा में भटकने के बाद,इस दौरान ब्रितानी गुप्तचर सेवा उनके पीछे लगी रही, 22 अक्टूबर, 1893, पेरिस में अकेलेपन और मुफ़िलिसी में उनकी मौत हो गई। 24 घंटे के अंदर ही ब्रितानी विदेश सचिव को निर्देश दे दिए गए कि वह महाराजा दलीप सिंह का शव संरक्षित कर, ताबूत में रखकर वापस इंग्लैंड के एल्वेडन ले आएं। उनका अंतिम संस्कार ईसाई ढंग से किया गया और उन्हें सेंट एंड्यूज़ एंड सेंट पैट्रिक्स चर्च में दफ़नाया गया। सरकारी वजहों से ब्रितानी सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि उन्हें ईसाई के रूप में दफ़नाया जाए, ताकि उन पर दावा हमेशा बना रहे।साभार