सचिन देव बर्मन हिन्दी और बांग्ला फि़ल्मों के संगीतकार और गायक थे। सचिन देव बर्मन को एस डी बर्मन के नाम से भी जाना जाता है। एसडीबर्मन का जन्म 1 अक्टूबर 1906 को त्रिपुरा में हुआ था । एस. डी. बर्मन के पिता त्रिपुरा के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के दूसरे पुत्र थे। एसडीबर्मन नौ भाई बहन थे। एसडीबर्मन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए की शिक्षा प्राप्त की। 1933 से 1975 तक बर्मन दा बंगाली व हिन्दी फि़ल्मों में सक्रिय रहे। 1938 में एसडीबर्मन ने गायिका मीरा से विवाह किया व एक वर्ष बाद राहुल देव बर्मन का जन्म हुआ।
एसडीबर्मन ने हिन्दी फि़ल्मों में बहुत से दिल को छूने वाले कर्णप्रिय यादगार गीत दिये हैं। एसडीबर्मन कलकत्ता के संगीत प्रेमियों में सचिन दा बम्बई के संगीतकारों के लिये बर्मन दा बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के रेडियो श्रोताओं में शेचिन देब बोर्मोन सिने जगत में एसडीबर्मन् और फि़ल्मी फ़ैन वालों में एसडी् के नाम से जाने जाते थे । एसडीबर्मन के गीतों ने हर किसी के दिल में अमिट छाप छोड़ी है। एसडीबर्मन के गीतों में विविधता थी। उनके संगीत में लोक गीत की धुन झलकती थी शास्त्रीय संगीत का स्पर्श भी था। उनका संगीत जीवंत अपरंपरागत लगता था।
संगीत में एसडीबर्मन की रुचि बचपन से ही थी और संगीत की एसडीबर्मन ने विधिवत शिक्षा ली थी। एसडीबर्मन का मानना था कि फि़ल्म संगीत शास्त्रीय संगीत का कौल दिखाने का माध्यम नहीं है। सचिन देव बर्मन चुने गए गीतों में ही बेहतरीन धुन देने में विश्वास रखते थे। वह धुनों के दोहराए जाने को भी पसंद नहीं करते थे। बंगाली गीतों व पूर्वोत्तर के लोकगीतों की उनकी विलक्षण प्रतिभा ही स्तंभ थे जिन पर उन्होंने ताल और मधुर संगीत का चिरस्थायी संसार खड़ा किया।
शास्त्रीय संगीत की शिक्षा एसडीबर्मन ने अपने पिता व सितार वादक नबद्वीप चंद्र देव बर्मन से ली। उसके बाद एसडीबर्मन उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय के यहाँ शिक्षित हुए और इसी शिक्षा से उनमें शास्त्रीय संगीत की जड़ें पक्की हुई यह शिक्षा उनके संगीत में बाद में दिखाई भी दी।एसडीबर्मन अपने पिता की मृत्यु के पश्चात घर से निकल गये और असम व त्रिपुरा के जंगलों में घूमें। जहाँ पर उनको बंगाल व आसपास के लोक संगीत के विषय में अपार जानकारी हुई। एसडीबर्मन ने उस्ताद आफ़्ताबुद्दीन ख़ान के शिष्य बनकर मुरली वादन की शिक्षा ली। और वह मुरली वादक बने। हिन्दी और बांग्ला फि़ल्मों में सचिन देव बर्मन ऐसे संगीतकार थे जिनके गीतों में लोकधुनों शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का स्पर्श था, एसडीबर्मन पाश्चात्य संगीत का भी बेहतरीन मिश्रण करते थे।
एसडीबर्मन ने अपना कॅरियर 1930 के दशक के मध्य में कलकत्ता में संगीत निर्देक के रूप में रिू किया। एक गायक के रूप में उनकी पहली रिकॉर्डिंग बंगाल के क्रांतिकारी संगीतज्ञ कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की रचना थी। इसके बाद वर्षों तक दोनों का साथ बना रहा। 1944 में बम्बई आ गए और फि़ल्मों की गतिमान छवियों के प्रति असाधारण संवेदनीलता के साथ एक अभिनव रचनाकार के रूप में शीघ्र ही स्थापित कर लिया। उनका संगीत दृश्यों की सक्तता बढ़ाया था जैसा कि ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है में हुआ। यह गीत प्यासा फिल्म में गुरुदत्त पर फि़ल्माया गया था। हम है राही प्यार के हम से कुछ ना बोलिए। जो भी प्यार से मिलाए हम उसी के हो लिए । एसडीबर्मन सरल और सहज शब्दों से अपनी धुनों को कुछ इस तरह सजाते थे कि उनका गीत हर दिल में गहरे उतर जाता था। मृदुभाषी बर्मन दा ने अपनी इसी प्रवृति को अपने संगीत गीत और गायिकी में भी ढाला था और यह अंदाज आज भी संगीत प्रेमियों के दिल में उनके प्रति प्यार को जि़ंदा रखे हुए है।
एसडीबर्मन ने अपने जीवन के शुरूआती दौर में रेडियो द्वारा प्रसारित पूर्वोत्तर लोक संगीत के कार्यक्रमों में संगीतकार और गायक दोनों के रूप में काम किया। एसडीबर्मन 10 वर्ष तक लोक संगीत के गायक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। 1944 में फि़ल्मिस्तान के शकधर मुखर्जी के आग्रह पर बर्मन दा् अपनी इच्छा के ख़िलाफ़ शिकारी् व आठ दिन् करने के लिये बम्बई चले गये। लेकिन बम्बई में काम करना आसान नहीं था। शिकारी् और आठ दिन् व बाद में दो भाई, विद्या् और शबनम् की सफलता के बाद भी दादा को पहचान बनाने में वक़्त लगा। बर्मन ने इससे हताश होकर वापस कलकत्ता जाने का निश्चय किया, लेकिन अशोक कुमार ने उन्हें जाने से रोक लिया। और उन्होंने कहा कमाल का संगीत दो और फिऱ तुम आज़ाद हो इसके बाद दादा ने फि़र मोर्चा संभाला। कमाल् का संगीत सुपरहिट हुआ। उसी वक़्त देव आनंद जिनकी सिने जगत में अच्छी पहचान थी व रुतबा था उन्होंने नवकेतन बैनर् की शुरूआत की और एसडीबर्मन को बाज़ी् का संगीत देने को कहा। 1951 की बाज़ी् हिट फि़ल्म थी और फिर जाल् 1952 बहार् और लड़की् के संगीत ने बर्मन दा की सफलता की नींव रखी। बर्मन दा ने उसके बाद तो 1974 तक लगातार संगीत दिया। दर्जनों हिन्दी फि़ल्मों में कर्णप्रिय यादगार धुन देने वाले सचिन देव बर्मन के गीतों में जहाँ रूमानियत है वहीं विरह अवसाद की भी झलक मिलती है।
भारतीय सिनेमा जगत में सचिन देव बर्मन को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं संगीतकारों में शुमार किया जाता है। प्यासा, गाइड, बंदिनी, टैक्सी ड्राइवर, बाज़ी् और आराधना् के मधुर संगीत के जरिए एसडी बर्मन आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर ए हुए हैं। अपने कऱीब तीन दशक के फिल्मी जीवन में सचिन देव बर्मन ने लगभग 90 फि़ल्मों के लिये संगीत दिया।
सचिन देव बर्मन ने अपना अधिकतर कार्य देव आनंद की नवकेतन फि़ल्म्स टैक्सी ड्राइवर, फंटूश, गाइड, पेइंग गेस्ट, जुएल थीफ़, और प्रेम पुजारी। गुरुदत्त की फि़ल्मों बाज़ी, जाल, प्यासा, कागज़़ के फू ल और बिमल रॉय की फि़ल्में देवदास, सुजाता, बंदिनी, के लिए किया। बहुमुखी प्रतिभा के किशोर कुमार के साथ उनके लंबे और सफल संबंध ने अनगिनत लोकप्रिय संगीत रचनाएं दीं। नौ दो ग्यारह, चलती का नाम गाड़ी, मुनीम जी और प्रेम पुजारी फि़ल्मों के गीत संगीत कार और गायक दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण थे।
आराधना की सफलता के साथ सचिन देव बर्मन ने फि़ल्म संगीत के आधुनिक दौर में आसानी से प्रवेश किया । पाश्चात्य धुनों के साथ पहला सफल प्रयोग उन्होंने 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में फि़ल्म चलती का नाम गाड़ी में ही कर लिया था। जीवन के अंतिम वर्षों में ऋषिके मुखर्जी की फि़ल्म अभिमान और उन्हीं की कुछ दूसरी फि़ल्मों के लिए चुपके चुपके और मिली अद्भुत संगीत रचना उनकी महानतम उपलब्धि थी।
सचिन देव बर्मन ने अपने फि़ल्मी सफर में सबसे जयादा फि़ल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ की। सिने सफर में बर्मन दा की जोड़ी प्रसिद्व गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ खूब जमी और उनके लिखे गीत ज़बर्दस्त हिट हुए। इस जोड़ी ने सबसे पहले फि़ल्म नौजवान् के गीत ठंडी हवाएँ लहरा के आए के जरिए लोगो का मन मोहा। इसके बाद ही गुरुदत्त की पहली निर्देशित फिल्म बाज़ी् के गीत तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे में एसडी बर्मन और साहिर की जोड़ी ने संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया। इसके बाद साहिर लुधियानवी और एसडीबर्मन की जोड़ी ने ये रात ए चांदनी फिऱ कहा ए, जाएँ तो जाएँ कहाँ, तेरी दुनिया में जीने से बेहतर हो कि मर जाएँ और जीवन के सफर में राही, जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला गानों के जरिए संगीत प्रेमियों को भावविभोर कर दिया। एसडीबर्मन और साहिर लुधियानवी की यह सुपरहिट जोड़ी फि़ल्म प्यासा् के बाद अलग हो गई।
एसडीबर्मन की जोड़ी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ भी ख़ूब जमी। एसडीबर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी वाले गीत में कुछ माना जनाब ने पुकारा नही, छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा है, अपना दिल तो आवारा। साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के अलावा एसडीबर्मन के पसंदीदा गीतकारों में आनंद बख्शी नीरज गुलज़ार आदि प्रमुख रहे हैं, उनके गीतों को स्वर देने में लता मंगेकर मोहम्मद रफ़ी,किशोर कुमार और आाशा भोंसले प्रमुख गायक रहे हैं।
बर्मन दा ने संगीत निर्देशन के अलावा कई फि़ल्मों के लिए गाने भी गाए। इन फिल्मों में सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा, मेरे साजन है उस पार, अल्लाह मेघ दे या दे, गीत आज भी संगीत प्रेमियों को भाव विभोर करते हैं। एसडीबर्मन ने फि़ल्म अभिनेता निर्माता और निर्देशक देवानंद की फि़ल्मों के लिए सदाबहार संगीत देकर उनकी फि़ल्मो को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं।
एसडीबर्मन जी को उनके जीवन में कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।
1934 गोल्ड मैडल् अखिल बंगाल शास्त्रीय संगीत समारोह कलकत्ता। 1954 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक टैक्सी ड्राइवर।
1958 संगीत नाटक अकादमी अवार्ड। 1958 एशिया फि़ल्म सोसायटी अवार्ड। 1959 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक सुजाता् नामांकन।
1965 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देक गाइड् नामांकन। 1969 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक आराधना् नामांकन।
1970 नेशनल फि़ल्म अवार्ड सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक आराधना् सफल होगी तेरी अराधना। 1970 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक लता् नामांकन।
1973 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक अभिमान। 1974 नेशनल फि़ल्म अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक जि़ंदगी जि़ंदगी।
1974 फि़ल्म फेयर अवार्ड सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक प्रेम नगर् नामांकन।
बर्मन दादा ने अपने बेटे पंचम और नासिर हुसैन के साथ सबसे अधिक हिट गानों में संगीत दिया है। बर्मन दादा का स्वयं में अटूट विश्वास था और बर्मन दादा अपने गीत चुनने के लिये जाने जाते थे। वे हमेशा कहते मैं केवल अच्छे गाने निर्देशित करता हूँ। बर्मन दा अधिक मात्रा में संगीत देने की बजाय चुने हुए गीतों में संगीत देते थे और इसी बात के लिये वे जाने भी जाते थे। एक समय था जब संगीत गाने के बोल के आधार पर दिया जाता था। इस तरीके को दादा ने बदला। अब गीत के बोल संगीत की धुन पर लिखे जाने लगे। दादा तुरंत धुने तैयार करने में माहिर थे और इन धुनों में लोक व शास्त्रीय दोनों प्रकार के संगीत का मिश्रण था। बर्मन दादा व्यवसायीकरण में हिचकते थे पर वे ये भी चाहते थे कि गाने की धुन ऐसी हो कि कोई भी इसे आसानी से गा सके। जहाँ ज़रूरत पड़ी उन्होंने सुंदर शास्त्रीय संगीत भी दिया। लेकिन वे कहते थे कि फि़ल्म संगीत वो माध्यम नहीं है जहाँ आप शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाये। लता मंगेकर ने बर्मन दादा के साथ रिकार्ड करने के लिये मना किया उसके बाद उन्होंने आाशा भोंसले व गीता दत्त के साथ एक के बाद एक कईं हिट गाने दिये। बर्मन दादा ने आाशा भोंसले किशोर कुमार और हेमंत कुमार को भी बतौर गायक तैयार किया। उन्होंने मो. रफ़ी से सॉफ्ट गाने गवाये जब अन्य संगीतकार मो. रफ़ी से हाई पिच गीत गाने को कह रहे थे। बर्मन दा की हमेशा कोशिश रहती कि एक बार जो संगीत उन्होंने दिया उसको अगले किसी भी गाने में दोहराया न जाये। इसी वजह से उनके किसी भी गाने में ऐसा कभी नहीं लगा कि पहले भी किसी गाने में दिया गया हो।
1930 के दशक में उन्होंने कलकत्ता में सुर मंदिर नाम से अपने संगीत विद्यालय की स्थापना की। वहाँ बर्मन दादा गायक के तौर पर प्रसिद्व हुए और केसीडे की सान्निध्य में काफ़ी कुछ सीखने को मिला। उन्होंने राज कुमार के लिये 1940 में एक बंगाली फि़ल्म में संगीत भी दिया।
दादा को 1974 में लकवे का आघात लगा जिसके बाद 31 अक्टूबर 1975 को बर्मन दादा का निधन हो गया। अगरतला में एक पुल एसडीबर्मन की याद में समर्पित किया गया है। एसण्डीबर्मन के नाम से अगरतला में हर साल उभरते हुए कलाकारों को अवार्ड दिये जाते हैं। और मुम्बई की सुर सिंगार अकादमी भी फि़ल्म संगीतकारों को एसडीबर्मन अवार्ड देती है। एजेन्सी।