शांताराम राजाराम वणकुद्रे ,जिन्हें वी.शांताराम या शांताराम बापू भी कहते हैं,फिल्म निर्माता, फिल्म निर्देशक और अभिनेता थे। वह डॉ. कोटणीस की अमर कहानी (1946), अमर भोपाल (1951), झनक झनक पायल बाजे (19 55), दो आँखे बारह हाथ (1957), नवरांग (195 9), दुनिया न माने (1937) पिंजरा (19 2), चानी, इय मराठिएचे नगरी और जुंजे के लिए जाने जाते हैं।
वी.शांताराम का जन्म 18 नवंबर 1901 में कोल्हापुर में हुआ था । सर चार्ली चैपलिन ने उनकी मराठी फिल्म ‘मानूस’ के लिए उनकी प्रशंसा की। चैपलिन ने फिल्म को बहुत पसंद किया । फिल्में समाज बनाती हैं और इनसे समाज का विकास भी होता है। फिल्में लोगों को सही रास्ता दिखाने का अच्छा माध्यम है। इसी सोच के तहत अपनी फिल्मों का निर्माण करते थे वी शांताराम। यही वजह थी कि उनकी तमाम फिल्मों ने इतिहास रचा। उनकी कृति दो आंखें बारह हाथ का लोहा आज भी दुनिया मानती है, जो कैदियों से काम करा कर उन्हें सुधारने की बात करती है। यही कहानी गई हॉलीवुड और फिर उसी के अंश पर बुनी गई हिंदी की माइल स्टोन फिल्म शोले। दो आंखें बारह हाथ का गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ को तो हमारे छात्र बच्चों ने प्रार्थना के रूप में अपना ही लिया है। वो पहले ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने फिल्मों के साथ प्रयोग किया। फिल्मों में उन्होंने वार्ड ब्वॉय की हैसियत से अपना करियर शुरू किया और अंत में बड़े फिल्मकार बने। उन्हें जो यश, सम्मान और सिने जगत में अलहदा मुकाम मिला, उसके पीछे उनकी समर्पित भावना, बुलंद इरादे और अथक मेहनत थी। वी शांताराम ने शुरुआत से ही संघर्ष किया। उनका परिवार आर्थिक अभावों से त्रस्त था। उन्होंने छोटे-मोटे कई कार्य किए, जिससे कम से कम अपना खर्च निकल सकें। बचपन में वे नाटकों में काम किया करते थे। उनकी सूझबूझ अन्य लोगों से अधिक थी इसलिए रंगमंच के हर पक्ष अभिनय, मंच सज्जा, प्रकाश व्यवस्था, वेशभूषा, रूप-सज्जा आदि की अच्छी जानकारी उन्होंने बहुत जल्द हासिल कर ली। चूंकि उन्हें इसी क्षेत्र में जाना था इसलिए शिक्षा की ओर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया। गंधर्व नाटक मंडली में कुछ दिनों काम करने के बाद वे उस जमाने के जाने-माने फिल्मकार बाबूराव पेंटर के ग्रुप से जुड़ गए ताकि खुद को दमदार बना सकें। बाबूराव पेंटर के स्टूडियो में शांताराम की हैसियत वार्ड ब्वॉय से अधिक नहीं थी, वहां उनसे हर काम लिया जाता। छोटा काम करने के बावजूद वे कभी निराश नहीं हुए क्योंकि उनके अंदर हर काम में पारंगत होने का जुनून था। उनकी लगन और प्रतिभा से प्रभावित होकर बाबूराव ने उनका ओहदा बढ़ा दिया और उन्हें प्रोडक्शन असिस्टेंट बना दिया। फिर वे अभिनय भी करने लगे।
1921 में बनी ‘सुरेखा हरन’ में उन्होंने पहली बार अभिनय किया। जब शांताराम को ऐसा लगा कि अब वे स्वतंत्र रूप से कार्य करने लायक हो गए, तो उन्होंने प्रभात प्रोडक्शंस नाम की कंपनी की स्थापना कर ली और शुरू हुआ फिल्म निर्माण। बंबई फिल्म निर्माण का मुख्य केंद्र होने के बाद उन्होंने फिल्म बनाई शकुंतला। शांताराम ऐसे फिल्मकार थे, जिनकी फिल्मों में यह कोशिश होती थी कि दर्शकों को मनोरंजन के साथ-साथ जीवनोपयोगी संदेश भी दिया जाए। सामाजिक विषयों पर उन्होंने एक से बढ़कर एक फिल्में बनाई। अमर ज्योति, आदमी, पड़ोसी, दहेज, तूफान और दीया, झनक-झनक पायल बाजे, दो आंखें बारह हाथ, नवरंग, गीत गाया पत्थरों ने, बूंद जो बन गई मोती, जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है जिनमें शांताराम जी ने अपने सृजनात्मक व कलात्मक सूझबूझ का परिचय दिया। शांताराम जी के मन में अपने देश के प्रति असीम लगाव था। यही कारण है कि उन्होंने अपने देशप्रेम के जज्बे को अभिव्यक्त करने के लिए नेताजी पालकर, उदयकाल, जुल्म, अपना देश फिल्में बनाई। राजकमल स्टूडियो की स्थापना के बाद वी शांताराम ने व्यस्तता के कारण अपनी कुछ फिल्मों का निर्देशन दूसरे निर्देशकों से करवाया। वे निर्माता-निर्देशक होने के साथ-साथ अभिनेता भी थे। हिंदी के साथ ही 1930 में अंग्रेजी फिल्म थंडर ऑफ द हिल्स में भी उन्होंने अभिनय किया। 1933 में निर्मित पहली रंगीन फिल्म सैरंधी बनाई। वे आज के फिल्मकारों की तरह कलाकारों पर कभी निर्भर नहीं रहे। उन्होंने व्यावसायिकता को अधिक महत्व कभी नहीं दिया। उनकी फिल्मों का कथानक, संगीत और प्रस्तुतिकरण इतना दमदार होता था कि स्टारों का मोहताज रहने की उन्हें कभी जरूरत नहीं पड़ी। अपनी कई फिल्में उन्होंने नवोदित कलाकारों को लेकर बनाई। शांताराम एक अच्छे फिल्मकार होने के साथ साथ एक फिल्म चिंतक भी थे। फिल्मों के बारे में उनका दृष्टिकोण औरों से हट कर था। उनके द्वारा हिंदु-मुस्लिम एकता पर बनाई फिल्म पड़ोसी, संगीत प्रधान झनक झनक पायल बाजे, अछूतों की दशा को चित्रित करती धर्मात्मा, सामाजिक मर्यादाओं की शिकार युवती की पीड़ा दर्शाती दुनिया न माने, समाज की विसंगतियों पर कुठाराघात करती अंधों की दुनिया आदि फिल्मों में शांताराम जी की गहरी सोच, सशक्त निर्देशन, और उनकी विलक्षण सृजनात्मक प्रतिभा की गहरी छाप है। झनक झनक पायल बाजे में सुर-ताल और रस भाव की सुंदर अभिव्यक्ति है। उन्हें दो आंखें बारह हाथ और झनक झनक पायल बाजे के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्मों में योगदान के लिए दादा साहेब फालके अवार्ड मिला। फ़िल्म जगत में अमूल्य योगदान करने वाले शांताराम का 30 अक्तूबर 1990 को बम्बई अब मुंबई में निधन हो गया था ।एजेंसी