पुण्य तिथि पर विशेष
पुण्य तिथि पर विशेष।
स्वप्निल संसार। ये बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं है…. हाथ कट जाय तो खून निकल आता है। फ़िल्म ‘वक्त के इस संवाद की अदायगी से अभिनेता राजकुमार ने अपनी पहचान बनाई थी। मगर कितने लोगों को याद होगा कि वह डायलाग ‘जानी ने ‘बलबीर बने अभिनेता मदन पुरी से कहा था? उसी’वक्त में रहमान के हाथों कत्ल होने से पहले तुमने मुझे मारा?…. तुमने मुझे मारा?…रटते हुए अपने मालिक चिनोय सेठ पर चाकू से वार करने वाले भी मदन पुरी थे। दीवार में हमेशा सिगार पीते गंैग लीडर ‘सामंत बनकर ‘विजय अमिताभ बच्चन की प्रेमिका बनी परवीन बाबी की हत्या करने वाले मदन पुरी थे, जिन्हें होटल की ऊंची मंजिल से बच्चन फेंक देते हैं।
मदन पुरी को वैसे नई पीढी़ के दर्शक अमरीश पुरी के भाई के रिश्ते से भी पहचान सकते हैं। मगर ये ठीक नहीं होगा,क्योंकि मदन जी ‘मोगेम्बो से उम्र में बडे थे और हिन्दी फ़िल्मों में भी उनसे काफी पहले आये थे। मदन पुरी से बडे भाई चमन पुरी भी फ़िल्मों में बतौर चरित्र अभिनेता काम करते थे। परंतु, उन्हें कभी अपने दोनों छोटे भाईयों ं मदन और अमरीश पुरी जैसी सफलता नहीं मिली थी।
1915 में पठानकोट में जन्मे मदन पुरी की वरीयता का अंदाजा इस बात से भी आ जायेगा कि कॉलेज के दिनों में किये नाटक’माल रोड में वे हीरो थे। जानते हैं उनकी हीरोइन कौन ‘थी? जानकर आश्चर्य और आनंद होगा कि मदन पुरी की नायिका बने थे प्राण, जो भी उन दिनों अभिनय के क्षेत्र में आने की कोशीश कर रहे थे। मगर एक्टिंग को उन दिनों में इतना अच्छा व्यवसाय कहाँ माना जाता था? मदन जी के पिताजी ठहरे सरकारी अफसर और अपने बेटे को एक्टर बनने के लिए तो बी.ए.तक नहीं पढाया था? इस लिए युवा मदन को भी सरकारी नौकरी में लगा दिया। 6 साल की नौकरी के दौरान उनका तबादला शिमला, करांची पर होता रहा। ऐसे में एक बार उनका ट्रान्सफर कलकत्ता हुआ।
1971 में गुजराती सामयिक ‘जी को दिये उनके इन्टरव्यू में ये बात भी खुलती है कि वो तबादला मदन जी ने करवाया था, क्योंकि न्यु थियटर्स और कुन्दनलाल सहगल दोनों वहाँ थे।
के. एल. सहगल उन दिनों के यानि 40 के दशक में सबसे ज्यादा रूपये कमाने वाले स्टार थे। मदन पुरी के मुताबिक ‘उमर खयाम फ़िल्म में काम करने के लिए सहगल साहब को 1 लाख रूपये मिले थे। सहगल सुपर स्टार से मदन पुरी का पारिवारिक संबंध था। वे मदन जी की बुआ के बेटे थे। कलकत्ता में नौकरी करते करते, यानि पिताजी को बताये बिना ही, उन्हें दलसुख पंचोली की फ़िल्म ‘खज़ानची के एक गीत सावन का नज़ारा है…में पर्दे पर गीत गाते दिखने का मौका मिला। सिनेमा के लिए मेक अप लगाने का वह प्रथम प्रसंग था। फ़िल्म रिलीज़ होते ही पिक्चर तथा वो गाना दोनों सुपर हिट हो गए और उनके पिताजी ने ‘खज़ानची देखी तो अपने लाडले जैसे एक्टर को देख चौंक गए। उन्हें पता था कि मदन कलकत्ता में थे और ये पिक्चर तो लाहौर में बनी थी। पिता एस. निहालचंद पुरी को और माता वेद कौर जी को कहाँ पता था कि ‘खज़ानची का वो ही गाना कलकत्ता के बोटनिकल गार्डन में शूट हुआ था और बाकी सारी फ़िल्म लाहौर के स्टुडियो में।
मदन पुरी अब कलकता में छोटी छोटी भूमिकाओं में काम करने लगे थे। जिस के फल स्वरूप उन्होंने ‘माय सिस्टरÓ, ‘राज लक्ष्मीÓ, ‘कुरुक्षेत्रÓ, ‘बन फूल फिल्मों में काम किया और एक दिन ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोडकर वे 1945 में तीन हजार रूपये लेकर बम्बई चले गए। उनके पिताजी को ये अच्छा नहीं लगा। क्योंकि तब तक मदन जी की शादी भी हो चुकी थी और वे दो बच्चों के पिता भी बन चुके थे। मगर तीन ही महीने में उन्हें बतौर हीरो ‘कुलदीपÓ फ़िल्म में लिया गया, जो फ्लॉप हो गई। आई चारों पिक्चरें असफल रहीं। तब वे पहली बार खलनायक बने देव आनंद और सुरैया की फ़िल्म ‘विद्या में। उस वक्त से जो हीरोगीरी से छुटटी विलन तथा बाद में चरित्र अभिनेता बने। उस प्रकार की भूमिकाओं में 1985 में उनके देहांत तक मदन पुरी ने काम किया। खास कर 60 और 70 के दशक में आई कितनी ही हिट और सुपर हिट फ़िल्मों के वे हिस्सा थे।
मदन जी को ‘आराधना के उस करूणामय जैलर के रूप में कौन भूल सकता है;जो रिटायर होकर कैदी शर्मिला टैगोर को अपने घर ले जाते हैं? उपकारÓ में भाई भाई के बीच आग लगाकर खुश होने वाले खलनायक ‘चरणदास को भी कोई कैसे भूल सकता है? उनके छोटे भाई अमरीश पुरी के साथ दिलीप कुमार की मुख्य भूमिका वाली यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘मशाल में वे ‘तोलाराम बने थे और हर बार अमरीशजी अपनी भारी आवाज़ में कहते थे, ज़माना बहुत खराब है, तोलाराम।
उनकी 250 से अधिक फ़िल्मों और उनकी भूमिकाओं के बारे में इतने छोटे से आलेख में लिखना ‘डॉन के अमिताभ के स्टाइल में कहें तो, मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
‘हाथी मेरे साथी, ‘अपना देश, ‘बीस साल बाद, ‘बहारों के सपने, ‘आई मिलन की बेला, ‘चायना टाउन, ‘काला बाज़ार, ‘कश्मीर की कली, ‘शहीद, ‘गुमनाम, ‘शागिर्द, ‘दुनिया, ‘आंखें, ‘फूल और पथ्थर, ‘हमराज़, ‘लव इन टॉकियो, ‘सावन की घटा, ‘कटी पतंग, ‘प्रेम पुजारी, ‘शतरंज, ‘देवी, ‘आदमी और इन्सान, ‘तलाश, ‘पूरब और पश्चिम, ‘प्यार ही प्यार, ‘इत्तेफ़ाक, ‘अनुराग, ‘अपराध, ‘दीट्रेन, ‘रखवाला, ‘पारस, ‘लाखों में एक, ‘अमर प्रेम, ‘कारवाँ, ‘शो, ‘अपराध, ‘दाग, ‘धर्मा, ‘लोफ़र, ‘धुन्द, ‘अगर तुम न होते, ‘नास्तिक, , ‘अंधा कानून, ‘अवतार, ‘हीरो, ‘विधाता, ‘प्रेमगीत, ‘क्रान्ति, ‘मज़दूर, ‘प्यासा सावन, ‘दी बर्निंग ट्रेन, ‘जुदाई, ‘ग्रेट गेम्बलर, ‘जानी दुश्मन, ‘नूरी, ‘अंखियों के झरोंखों से, ‘स्वर्ग नरक, ‘विश्वनाथ, ‘फ़कीरा, ‘दुलहन वो ही पिया मन भाये, ‘मेहबूबा, ‘बैराग, ‘काली चरण, ‘धर्मात्मा, ‘ज़मीर, ‘गीत गाता चलÓ, ‘मजबुर, ‘बेनाम, ‘अजनबी, ‘चोर मचाये शोर, ‘रोटी कपडा और मकान।
स्मरण रहे, ये सिफ़र् उनकी गिनी चुनी फ़िल्मों के ही नाम है। इन में से किसी में वे गांव की लडकीयों को परेशान करने वाले बने होंगे तो कहीं वे किसी अबला की इज्जत लूटते खलनायक होंगे। कभी डॉक्र तो कभी वकील, एक बार कैदी तो दूसरी बार जेलर! जाने कितने ही किरदारों को इस कलाकार ने पर्दे पर जीवित किया था। एक समय था जब वे मुख्य खलनायक होते थे। फिर समय की मांग के अनुसार चरित्र अभिनय करते हुए कभी हीरो के पिता तो कभी नायिका के चाचा बने। मदन पुरी ने मिनिस्टर से लेकर डाकू तक के हर किरदार को बखुबी निभाया था।
मदन पुरी जी ने प्राण तथा अन्य चरित्र अभिनेताओं के साथ मिलकर ‘केरेक्टर आर्टिस्ट एसोसीएशनÓ की स्थापना की थी, जो बाद में सिने आर्टिस्ट्स एसोसीएशन बना और आज वो सिनेमा उपरांत टीवी के कलाकारों के वेतन और काम के समय से लेकर हर समस्या का निपटारा करने का काम करता है। ऐसे नेकदिल इन्सान मदन जी का 1985 की 13 जनवरी के दिन हार्ट अटैक की वजह से देहांत हुआ था। मगर उनके चले जाने के बाद 1989 में आई उनकी अंतिम फ़िल्म मनोज कुमार की ‘संतोष तक उनका अभिनय हमें देखने को मिला था। उनके अभिनय से सजी अनेक फ़िल्मों में अपनी कला के जौहर दिखाने वाले मदन पुरी जी आज भी हम सब के बीच ज़िन्दा ही हैं।
(इस लेख के लिए सहायक सामग्री प्रदान करने के लिए हिन्दी सिनेमा के इतिहासविद सुरत के हरीश रघुवंशी का विशेष धन्यवाद.)