पुण्य तिथि पर विशेष-सआदत हसन मंटो की गिनती ऐसे साहित्यकारों में की जाती है जिनकी कलम ने अपने वक़्त से आगे की ऐसी रचनाएँ लिख डालीं जिनकी गहराई को समझने की दुनिया आज भी कोशिश कर रही है।
मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफिय़ा से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई। उन्हीं दिनों के आसपास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक नाटक प्रस्तुत करने का इरादा किया था। यह क्लब सिफऱ् 15-20 दिन रहा था, इसलिए कि मंटो के पिता ने एक दिन धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और कह दिया था, कि ऐसे वाहियात काम उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है उतनी शायद उर्दू और हिन्दी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली। उन्होंने जीवन में कोई उपन्यास नहीं लिखा।
सआदत हसन ने एंट्रेंस तक की पढ़ाई अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी। 1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया। उन दिनों पूरे देश में और ख़ासतौर पर अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। जलियाँवाला बाग़ का नरसंहार 1919 में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उनके बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी। सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उन्हें मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी ‘तमाशा आई। यह मंटो की पहली कहानी थी। क्रांतिकारी गतिविधियाँ बराबर चल रही थीं और गली-गली में इंक़लाब जि़दाबाद के नारे सुनाई पड़ते थे। दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन पिता की सख़्ती के सामने वह मन मसोसकर रह जाता। आखऱिकार उनका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया। उन्होंने पहली रचना लिखी तमाशा, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नजऱ से देखा गया है। इसके बाद कुछ और रचनाएँ भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखी।
1932 में मंटो के पिता का देहांत हो गया। भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी। मंटो ने अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-लाल कमरा। कुछ लेख मैं क्या लिखता हूँ? मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? कुछ कहानियाँ टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, कम्युनिज़्म, तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, काली शलवार मंटो का रूझान धीरे-धीरे रूसी साहित्य की ओर बढऩे लगा। जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है। रूसी साम्यवादी साहित्य में उनकी दिलचस्पी बढ़ रही थी। मंटो की मुलाक़ात इन्हीं दिनों अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्ऱांसीसी साहित्य भी पढऩे के लिए प्रेरित किया। इसके बाद मंटो ने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, आंतोन चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया। अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड का उर्दू में अनुवाद किया, जो सरगुज़श्त-ए-असीर शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ। यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका अनुवाद करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत कऱीब है।
अगर मंटो के कहानियों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था। विक्टर ह्यूगो के इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे वेरा का अनुवाद शुरू किया। दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके रूसी अफ़साने शीर्षक से प्रकाशित करवाया। एक तरफ मंटो की साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और दूसरी तरफ उनके दिल में आगे पढऩे की ख़्वाहिश पैदा हो गई। 1934 में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी। यहीं मंटो की मुलाक़ात अली सरदार जाफऱी से हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया। मंटो ने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। तमाशा के बाद कहानी इनकि़लाब पसंद (1935) नाम से लिखी, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई। 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था आतिशपारे। अलीगढ़ में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन पारस अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए मुसव्विर नामक साप्ताहिक का संपादन किया।
जनवरी, 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू किया। दिल्ली में मंटो 17 महीने रहे, लेकिन यह सफर उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था। यहाँ उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए ‘आओ, ‘मंटो के ड्रामे, ‘जनाज़े तथा ‘तीन औरतें। उसके विवादास्पद ‘धुआँ और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह ‘मंटो के मज़ामीन भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ।
मंटो जुलाई, 1942 में लाहौर को अलविदा कहकर बंबई पहुँच गये। जनवरी, 1948 तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फि़ल्मों के लिए लेखन का कार्य किया। 1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों में सियाह हाशिए, नंगी आवाज़ें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसी चर्चित कहानियाँ शामिल हैं। जिनमें कहानी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। हालाँकि इन मुक़दमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे।
उनकी सपाट बयानी वाली कहानियाँ फि़क्र के आसमान को छू लेती हैं। मंटो के 19 साल के साहित्यिक जीवन से 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख मिले। तमाम परेशानियाँ उठाने के बाद 18 जनवरी, 1955 में मंटो ने अपने उन्हीं तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह दिया।एजेन्सी।