पुण्य तिथि पर विशेष- उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ की गणना भारत के महानतम गायकों व संगीतज्ञों में की जाती है। वे विलक्षण मधुर स्वर के स्वामी थे। इनके गायन को सुनकर श्रोता अपनी सुध-बुध खोकर कुछ समय के लिए स्वयं को खो देते थे। भारत के कोने-कोने से संगीत के पारखी लोग खाँ साहब को गायन के लिए न्यौता भेजते थे। क्या राजघराने क्या मामूली स्कूल के विद्यार्थी, खाँ साहब की मखमली आवाज सभी को मंत्रमुग्ध कर देती थी। दिल को छू जाने वाली आवाज के मालिक उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ ने नवेली शैली के जरिए ठुमरी को नई आब और ताब दी। जानकारों के मुताबिक उस्ताद ने अपने प्रयोगधर्मी संगीत की बदौलत ठुमरी को जानी-पहचानी शैली की सीमाओं से बाहर निकाला।
बड़े गुलाम अली खाँ साहब का जन्म 2 अप्रॅल, 1902 को अब पाकिस्तानी पंजाब के मशहूर शहर लाहौर के पास स्थित गाँव कसूर में हुआ था। बड़े गुलाम अली खाँ ने मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति संगीत से ही प्राप्त की थी और यही कारण था कि उनके बोलचाल और हावभाव से यह जाहिर हो जाता था कि यह शख्िसयत संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए धरती पर अवतरित हुई है। इनका परिवार संगीतज्ञों का परिवार था। इनके पिताजी का नाम अली बख्श खाँ है। दिलचस्प है कि संगीत की दुनिया में उनकी शुरुआत सारंगी वादक के रूप में हुई। उन्होंने अपने पिता अली बख्श खाँ और चाचा काले खाँ से संगीत की बारीकियाँ सीखीं। इनके पिता महाराजा कश्मीर के दरबारी गायक थे और वह घराना कश्मीरी घराना कहलाता था। जब ये लोग पटियाला जाकर रहने लगे तो यह घराना पटियाला घराना के नाम से जाना जाने लगा। दिखने में बेहद कड़क मिजाज और मजबूत डील-डौल वाले बड़े गुलाम अली ने सबरंग नाम से कई बंदिशें रचीं। उनकी सरगम का अंदाज बिल्कुल निराला था।1947 में भारत के विभाजन के बाद बड़े गुलाम अली खाँ पाकिस्तान चले गए थे लेकिन संगीत के इस उपासक को पाकिस्तान का माहौल कतई पसंद नहीं आया। नतीजतन वह जल्द ही भारत लौट आए। अपने सधे हुए कंठ के कारण बड़े गुलाम अली खाँ ने बहुत प्रसिद्धि पाई। 1919 में लाहौर के संगीत सम्मेलन में इन्होंने अपनी कला का पहली बार सार्वजनिक प्रदर्शन किया। फिर कोलकाता और इलाहाबाद के संगीत सम्मेलनों में इन्हें देशव्यापी ख्याति प्रदान की। भारतीय संगीत के फलक पर 1930 के दशक में सितारे की तरह चमके इस गायक ने साल 1938 में तत्कालीन कलकत्ता में हुए एक कार्यक्रम में दुनिया के सामने पहली बार अपनी आवाज का जादू बिखेरा था। उसके बाद वह संगीत को आगे बढ़ाने और उसे समृद्ध करने की मुहिम में रम गए। खाँ साहब किंवदंती गायक थे। गायन से ऐसा मोहजाल बुनते कि आपको उसमें उलझना ही है। मुगले आजम फिल्म में गाने के लिए उन्होंने एक गाने के 25 हजार रुपए माँग लिए थे क्योंकि वे फिल्म में गाना नहीं चाहते थे। निर्देशक के आसिफ ने 25 हजार रुपए देना स्वीकार कर लिया जबकि उस जमाने में लता मंगेशकर और मुहम्मद रफी को एक गाने के पाँच सौ रुपए से भी कम मिलते थे। बड़े गुलाम अली खाँ के मुंह से एक बार ‘राधेकृष्ण बोल’ भजन सुनकर महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुए थे। खाँ साहब को भारत सरकार के पद्म भूषण और संगीत नाटक अकादमी सम्मान से भी नवाजा गया है। हैदराबाद के नवाब जहीरयारजंग के बशीरबाग महल में उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ की आवाज 25 अप्रैल, 1968 को सो गई और बीते युग के पटियाला घराने का सुरीला अध्याय समाप्त हो गया था। एजेन्सी