सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने। दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥-अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि को होती है. ग्रंथों के अनुसार इस दिन किये जाने वाले सभी शुभ कार्यों का अक्षय फल मिलता है.वैदिक पंचांगम के महूर्त प्रणाली में इंगित चार सर्वाधिक शुभ दिनों में से यह एक मानी गई है। ‘अक्षय’ का अर्थ है ‘जिसका कभी क्षय न हो’ अर्थात जो कभी नष्ट न हो। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम के जन्मदिवस के रुप में भी मनाया जाता हैं। वहीं इस दिन त्रेता युग का आरंभ माना जाता हैं । कहते है कि गंगा नदी का धरती पर अवतरण भी इसी दिन हुआ था । महर्षि वेदव्यास ने इस दिन महाभारत की रचना प्रारंभ की थी जिसे भगवान गणेश ने लिपिबद्ध किया था । वहीं पांडवों के वनवास के दौरान भगवान कृष्ण ने उन्हे अक्षयपात्र दिया था जिससे अन्न का कभी क्षय नहीं होता। द्रौपदी के चीर हरण की घटना भी इस दिन घटी थी जहां भगवान कृष्ण ने चीर को अक्षय बना दिया था । इसी प्रकार श्री कृष्ण ने इस दिन अपने बाल सखा सुदामा की सहायता की थी और उन्हे दरिद्रता से मुक्त कराया था। जबकि कुबेर ने शिवपुरम में इस दिन भगवान शिव की पूजा करके अपनी समृद्धि वापस पाई थी। उड़ीसा में अक्षय तृतीया के दिन से रथ यात्रा के लिये रथ बनाने का कार्य शुरु कर दिया जाता है। इसी दिन तीर्थस्थल बद्रीनाथ के कपाट भी खुलते है। वहीं वृंदावन स्थिति श्री बांके बिहारी जी के मंदिर में केवल इसी दिन से विग्रह के चरण दर्शन होते है, जो कि पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते है। ‘अक्षय तृतीया’ के दिन ख़रीदे गये वेशक़ीमती आभूषण एवं सामान शाश्वत समृद्धि के प्रतीक हैं। इस दिन ख़रीदा व धारण किया गया सोना अखण्ड सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इस दिन शुरू किये गए किसी भी नये काम या किसी भी काम में लगायी गई पूँजी में सदा सफलता मिलती है और वह फलता-फूलता है। यह माना जाता है कि इस दिन ख़रीदा गया सोना कभी समाप्त नहीं होता, क्योंकि भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी स्वयं उसकी रक्षा करते हैं।
कथा के अनुसार प्राचीन काल में धर्मदास वैश्य था। उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना।कहते हैं कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह इतना धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमंड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद भी वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। माना जाता है कि यही राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुआ।एजेन्सी