जीवतराम भगवानदास कृपलानी स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिज्ञ थे। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी से उनका निकट सम्पर्क था। वे ‘गुजरात विद्यापीठ’ के प्राचार्य भी रहे थे, तभी से उन्हें ‘आचार्य कृपलानी’ पुकारा जाने लगा था। हरिजन उद्धार के लिए कृपलानी जी निरंतर गाँधीजी के सहयोगी रहे। वे ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के महामंत्री तथा 1946 की मेरठ कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही थीं।
जे. बी. कृपलानी का जन्म 11 नवम्बर, 1888 को हैदराबाद (सिंध) में हुआ था। वे क्षत्रिय परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उनके पिता काका भगवान दास तहसीलदार के पद पर नियुक्त थे। कृपलानी जी की शिक्षा सिंध और मुंबई के ‘विल्सन कॉलेज’ में आरंभ हुई। उन्होंने एम. ए. तक की शिक्षा पुणे के ‘फ़र्ग्यूसन कॉलेज’ से प्राप्त की थी, जिसकी स्थापना लोकमान्य तिलक और उनके साथियों ने की थी। कृपलानी जी ने एक शिक्षक के रूप में अपना व्यावसायिक जीवन आंरभ किया था। 1912 से 1917 तक वे बिहार के मुजफ़्फ़रपुर कॉलेज में अंग्रेज़ी और इतिहास के प्रोफेसर रहे।
जीवतराम भगवानदास कृपलानी और सुचेता मजूमदार की पहली मुलाकात कहाँ हुई ये कहना मुश्किल है लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय कहीं न कहीं उनके प्यार की धुरी बना था। बाद में महात्मा गांधी के साथ काम करते हुए दोनों नजदीक आते गए, लेकिन गांधीजी यह जानकर हैरान रह गए कि उन्हीं के आश्रम में उन दोनों का प्यार फला-फूला। दोनों कांग्रेस के दिग्गज नेता थे लेकिन आने वाले सालों में उनकी भूमिका ऐसी बदली कि वो विरोधी कैंपों में शामिल हो गए। कृपलानी सिंध के हैदराबाद में पैदा हुए थे। असाधारण तौर पर पढ़ने में बेहद कुशाग्र और कुछ तरह से सोचने वाले शख्स थे। ऐसे शख्स भी जो अपने आप में रहना ज्यादा पसंद करते थे। उनके बारे में कहा जाता था कि वो बहुत आसानी के साथ अपने प्रिय लोगों से खुद को अलग कर लेते थे। कृपलानी को जो भी जानते हैं वो मानते थे वो बेहद अनुशासित और आदर्शों के पक्के शख्स थे। स्त्रियों से खुद को हमेशा दूर रखने वाले थे। ये माना जाने लगा था कि विवाह उनकी डिक्शनरी में नहीं है। कृपलानी आज़ादी से पहले लंबे समय तक कांग्रेस के महासचिव रहे और 1947 जब देश आज़ाद हो रहा था तब वह इस पार्टी के अध्यक्ष थे। हालांकि आज़ादी के बाद स्थितियां ऐसी बनीं कि कांग्रेस विरोध और विपक्ष की राजनीति करने लगे। आजीवन ऐसा करते रहे। वहीं सुचेता बाद में कांग्रेस में मंत्री भी बनीं और मुख्यमंत्री भी।
कृपलानी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर बनकर आए, हालांकि वह यहां एक ही साल रहे, लेकिन वो एक साल ही उस विश्वविद्यालय पर उनका प्रभाव छोड़ने के लिए काफी था। इसके बाद उन्होंने गांधीजी के असहयोग आंदोलन के लिए नौकरी छोड़ दी। इसके कुछ साल बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में सुचेता मजुमदार प्रोफेसर बनकर आईं। उनके कानों में अक्सर आचार्य कृपलानी की बातें सुनाई पड़ती थीं। खासकर उनके जीनियस टीचर होने की और फिर उनके गांधीजी के खास सहयोगी बन जाने की। उन्हीं दिनों कृपलानी जब कभी बनारस आते तो बीएचयू के इतिहास विभाग जरूर जाते। उसी दौरान उनकी मुलाकात सुचेता से हुई, जिनमें एक प्रखरता भी थी और आज़ादी आंदोलन से जुड़ने की तीव्रता भी। कहा जा सकता है कि कृपलानी कहीं न कहीं इस बंगाली युवती से प्रभावित हो गए थे। दोनों में काफी बातें होने लगीं। जब कुछ मुलाकातों के बाद सुचेता ने उनसे गांधीजी से जुड़ने की इच्छा जाहिर की तो कृपलानी इसमें सहायक भी बने। हालांकि वह उन्हें राजनीति में आने से लगातार हतोत्साहित भी करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि महिलाओं को राजनीति में दामन साफ बचाकर रखना मुश्किल होता था। इसलिए वह उनसे लगातार कहते भी थे अपना दामन साफ रखना। आचार्य कृपलानी उनके मार्गदर्शक और विश्वस्त बन गए। समय के साथ जब दोनों का काफी समय एक दूसरे के साथ बीतने लगा तो वो करीब आने लगे, हालांकि किसी को भी अंदाज़ा नहीं था कि कृपलानी जैसे शख्स के जीवन में भी प्रेम दस्तक दे सकता है और दबे पांव उनके मन के घर पर क़ब्ज़ा कर सकता है। कृपलानी लंबे कद के सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे तो सुचेता साधारण कद काठी वाली थीं, लेकिन कुछ तो था उनके व्यक्तित्व में जिसने कृपलानी जैसी शख्सियत को उनके प्यार में बांध लिया था। दोनों जब एक दूसरे के प्यार में पड़े तो उन्हें कभी उम्र का लंबा फासला अपने बीच महसूस नहीं हुआ, हां लेकिन जब उन्होंने आपस में शादी करने की इच्छा अपने परिवारों के सामने जाहिर की तो तूफान आ गया। अपने घरों में उन्हें गुस्से और विरोध का सामना करना पड़ा।
सुचेता ने अपनी किताब ‘सुचेता एन अनफिनिश्ड ऑटोबॉयोग्राफी’ में लिखा, गांधीजी ने उनके विवाह का विरोध किया था, उन्हें लगता था कि पारिवारिक जिम्मेदारियां उन्हें आज़ादी की लड़ाई से विमुख कर देंगी। गांधी ने कृपलानी से कहा, अगर तुम उससे शादी करोगे तो मेरा दायां हाथ तोड़ दोगे। तब सुचेता ने उनसे कहा, वह ऐसा क्यों सोचते हैं बल्कि उन्हें तो ये सोचना चाहिए कि उन्हें आज़ादी की लड़ाई में एक की बजाए दो कार्यकर्ता मिल जाएंगे। कृपलानी इस बात से नाखुश तो बहुत थे कि गांधी उनके व्यक्तिगत मामलों में दखल दे रहे हैं लेकिन इसके बाद भी उन्होंने उनकी बात करीब-करीब मान ही ली, सुचेता भी इस पर सहमत हो गईं। लेकिन इसके बाद गांधीजी ने जो कुछ किया, उसने उनके आपस मे शादी करने के विचार को मजबूत कर दिया। सुचेता अपनी बॉयोग्राफी में लिखती हैं, गांधी चाहते थे कि वह किसी और से शादी कर लें। उन्होंने इसके लिए दबाव भी डाला। मैने इसे एकसिरे से खारिज कर दिया। मैने उनसे कहा, जो प्रस्ताव वह दे रहे हैं वो अन्यायपूर्ण भी है और अनैतिक भी। सुचेता जो खुशवंत सिंह के कहने पर इलैस्ट्रेटेड वीकली मैगजीन में अपनी आत्मकथा लिखने पर राजी हो गईं थीं। बाद में यही उनकी आत्मकथा के रूप में अहमदाबाद के नवजीवन पब्लिशिंग हाउस ने वर्ष 1978 में प्रकाशित की। इसमें उन्होंने लिखा, जब गांधी ने मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव रखा तो मैं उनकी ओर पलटी, उनसे कहा कि जो वो कह रहे हैं वह ग़लत है। गांधी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। हमारी बात वहीं खत्म हो गई। जवाहरलाल नेहरू की सहानुभूति हमारे साथ थी। उन्होंने गांधी से हमारी शादी के बारे में बात की।
1936 में गांधी ने सुचेता और आचार्य कृपलानी को बुलावा भेजा। गांधी ने उनसे कहा कि उन्हें उनकी शादी से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन वह उन्हें आर्शीवाद नहीं दे सकेंगे। गांधी ने कहा कि वह उनके लिए प्रार्थना करेंगे। सुचेता ने अपनी किताब में लिखा, हम उनकी प्रार्थना भर से संतुष्ट थे। अप्रैल 1936 में सुचेता और आचार्य कृपलानी ने शादी कर ली। उस समय कृपलानी 48 साल के थे तो सुचेता मात्र 28 साल की थीं।
बाद में हालात ने ऐसी करवट ली कि दोनों विरोधी दलों में शामिल हो गए। रहते दोनों साथ थे लेकिन एक कांग्रेस में रहा तो दूसरा आजीवन कांग्रेस विरोध की राजनीति करता रहा। आचार्य कृपलानी अक्सर मजाक में कहा करते थे कि कांग्रेसी इतने बदमाश हैं कि वो मेरी पत्नी ही भगा ले गए। बेशक दोनों पति-पत्नी थे लेकिन उनमें दोस्ती का भाव ज्यादा था। सुचेता आज़ादी के आंदोलन में शामिल उन तीन बांग्ला महिलाओं में थीं, जो उच्च शिक्षित थीं और जिन्होंने पूरे जोर-शोर आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया और तीनों ने अपना कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश को बनाया। तीनों ने धर्म जाति की परवाह नहीं करते हुए अपने जीवनसाथी चुने। आज़ादी के बाद बदले हालात में आचार्य कृपलानी ने जहां कांग्रेस से अलग होकर पहले अपनी किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई और फिर राम मनोहर लोहिया के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। सुचेता ने 1950 में दिल्ली से लोकसभा चुनाव किसान मजदूर पार्टी से लड़ा। चुनाव जीता, लेकिन इसके बाद वह कांग्रेस में चली गईं और बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं। 1971 में जब तक वह राजनीति में सक्रिय रहीं तब तक कांग्रेस में शामिल रहीं। वर्ष 1971 में राजनीति से रिटायर होने के बाद वह आचार्य कृपलानी के साथ दिल्ली के अपने बंगले में रहने लगीं। एक पत्नी के नाते उन्होंने अपने पति का पूरा ख्याल रखा।
इन्हीं दिनों गाँधीजी ने चम्पारन की प्रसिद्ध यात्रा की थी और जे. बी. कृपलानी उनके निकट संपर्क में आए। वर्ष 1919-1920 में वे कुछ समय तक ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ में भी रहे और गाँधीजी के ‘असहयोग आंदोलन’ के समय वहाँ से हट गए। ‘असहयोग आंदोलन’ आंरभ होने पर विद्यालयों का बहिष्कार करने वाले छात्रों के लिए गाँधीजी की प्रेरणा से कई प्रदेशों में विद्यापीठ स्थापित किए थे। जे. बी. कृपलानी 1920 से 1927 तक ‘गुजरात विद्यापीठ’ के प्राचार्य रहे। तभी से वे ‘आचार्य़ कृपलानी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
1927 के बाद आचार्य कृपलानी का जीवन पूर्ण रूप से स्वाधीनता संग्राम और गाँधीजी की रचनात्मक प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में ही बीता। उन्होंने खादी और ग्राम उद्योगों को पुर्न:जीवित करने के लिए उत्तर प्रदेश में ‘गाँधी आश्रम’ नामक एक संस्था की स्थापना भी की। हरिजनों के उद्धार के लिए गाँधीजी की देशव्यापी यात्रा में वे बराबर उनके साथ रहे और इस दिशा में निरंतर अपने प्रयत्न जारी रखे। ये उनकी समाज सेवा की भावना ही थी, जो उन्हें राष्ट्रपिता के इतने क़रीब ले आई। देश और समाज सेवा की नि:स्वार्थ भावना ने उन्हें देश की जनता के बीच लोकप्रिय बना दिया था।
1935 से 1945 तक उन्होंने कांग्रेस के महासचिव के रूप में काम किया। 1946 की मेरठ कांग्रेस के वे अध्यक्ष चुने गए थे। कई प्रश्नों पर पंडित जवाहरलाल नेहरू से मतभेद हो जाने कारण उन्होंने अध्यक्षता छोड़ दी और ‘किसान मज़दूर प्रजा पार्टी’ बनाकर विपक्ष में चले गए। वे एकाधिक बार लोक सभा के सदस्य भी रहे।
जे. बी. कृपलानी ने सभी आंदोलनों में भाग लिया था और जेल की सज़ाएँ भोगीं। देश की आज़ादी में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले आचार्य कृपलानी जी का 19 मार्च, 1982 में निधन हुआ। भारत कोष से